# संस्था एवं संस्थाओं के महत्वपूर्ण लक्षण | Sanstha Ke Lakshan

संस्था शब्द से अभिप्राय व्यवस्थित सामाजिक व्यवहार से है जिसे समाज में रहकर व्यक्ति सदा नियंत्रित करता है। सामाजिक व्यवहार को एक खास तरीके से नियंत्रित किया जाना किसी भी संस्था के लिए अनिवार्य शर्त है। परंतु नियंत्रण के लिए जो समाज में नियम बने होते हैं वे सामाजिक प्रतिमानों द्वारा संचालित होते हैं। किसी भी सामाजिक संरचना व सामाजिक व्यवस्था के लिए संस्था का खास महत्व होता है। संस्थाओं द्वारा ही समाज का व्यवस्थित स्वरूप दिखता है। अगर संस्थाएं न हो तो सामाजिक व्यवस्था में अराजकता की स्थिति हो जाएगी और इस समाज को सामाजिक व्यवस्था से संबोधित करना भी गलत होगा।

यह ध्यान रखना आवश्यक है कि मानव समाज में कुछ व्यवस्था का बनाया जाना अनिवार्य होता है अर्थात् व्यवस्था को बनाये रखने के कुछ अनिवार्य शर्त होती हैं। इन प्रकार्यात्मक शर्तों का उल्लेख करते हुए टी०वी० बाटमोर ने निम्न शर्तों को आवश्यक माना है।

  • संचार की व्यवस्था
  • आर्थिक व्यवस्था जिससे उत्पादन और वितरण को नियंत्रित किया जा सके।
  • नये पीढ़ी के समाजीकरण के लिए (परिवार तथा शिक्षा)
  • सत्ता को नियंत्रित करने के लिए राजनीति प्रणाली
  • धार्मिक अनुष्ठान जो व्यक्तिगत घटनाओं जैसे जन्म, विवाह और मृत्यु को नियंत्रित कर सकें।

इन सभी सामाजिक क्रियाओं को नियंत्रित तथा व्यवस्थित करने के लिए कुछ प्रमुख संस्थाओं की जरूरत होती है। प्रत्येक समाज अपनी प्रकार्यात्मक जरूरतों की पूर्ति के लिए संस्थागत नियमों के आधार पर संस्थाओं का गठन करता है जिससे उसकी जरूरतों की पूर्ति की जा सके। इसीलिए जन्म से ही हमारा परिचय इन संस्थाओं के आधारभूत नियमों से होता है जिसे परिवार तथा समाज के सदस्य होने के कारण हम सीखते हैं और अपने व्यवहार को उसके अनुरूप ढाल लेते हैं।

संस्थाओं के महत्वपूर्ण लक्षण :

संस्थाएं व्यवहार को नियंत्रित करने का एक प्रमुख साधन है इसलिए प्रत्येक संस्थाओं की एक परंपरा और आचार संहिता होती है। इन परंपराओं के द्वारा हमारे व्यवहार अपने आप नियंत्रित होते रहते हैं क्योंकि इन संस्थाओं का अपना एक नैतिक बल होता है। इसलिए संस्थाओं के इस नैतिक बल के भी अपने कुछ लक्षण हैं जिसे समझना उचित होगा।

1. बाह्यता

संस्था एक बाहरी सच हैं जो हमारे बाहर रहते भी तथा हमारे व्यवहार को नियंत्रित करता है। इस प्रकार यह एक बाहरी सच है जो हमारे बाहर रहते हुए अपनी मौजूदगी का एहसास कराता है। संस्थाओं का बाहर होकर हमें प्रभावित करना एक महत्वपूर्ण विशेषता है। उदाहरण के लिए भाषा को ही संस्था के रूप में देखा जा सकता है जो हमारे बाहर होते हुए भी हमारी क्रियाओं को प्रभावित करता है।

2. वस्तुनिष्ठता

संस्था वस्तुनिष्ठ तरीके से हमारे व्यक्तित्व को प्रभावित करता है। यह वस्तुनिष्ठ इसलिए हो जाता है क्योंकि इसके इस स्वरूप को हम सभी वास्तविक रूप में स्वीकार करते हैं। भाषागत व्यवहार को ही अगर उदाहरण माना जाये तो यह कहा जा सकता है कि कब हम भाषा की गलती करते हैं और कब गलती नहीं कर रहे होते हैं इसका वस्तुनिष्ठ तरीके से आकलन किया जा सकता है। स्विस बाल मनोवैज्ञानिक जिन पिआजे ने प्रयोग द्वारा यह बताया कि एक बच्चे से पूछा गया कि क्या सूर्य को कुछ और शब्द द्वारा संबोधित किया जा सकता है। उसका उत्तर था नहीं! बच्चे को इसकी जानकारी कैसे मिलीं। यह बच्चे के लिए भी पहेली से कुछ कम नहीं था। परंतु उसने सूर्य की तरफ इशारा करते हुए बताया कि यह सूर्य है। इस प्रकार जो निरीक्षण के द्वारा भी बताया जा सके उस प्रकार के वस्तुनिष्ठ गुण संस्थाओं की एवं खास पहचान होती है।

3. बाह्य दबाव

संस्थाओं का एक बाहरी दबाव भी होता है जिसे व्यक्ति चाहकर भी अपने चेतन मन से नहीं हटा सकता। संभव है व्यक्ति अपने कार्य की व्यस्तता के कारण भूल जाये और अगर ऐसा होता है तो अपनी इस गलती का एहसास जनमत के एतराज जताने से तुरन्त हो जाता है। उदाहरण के लिए मंदिर में प्रवेश अगर हम जूता पहन कर करें तो यह गलती चाहे अनजाने में ही क्यों न हुई हो मंदिर में मौजूद लोग विरोध प्रदर्शित करेगें और हमारी गलती का एहसास दिला देते हैं। इस प्रकार किसी औपचारिक सभा में बिना अनुमति लिए बोलना भी गलत माना जाता है। अर्थात् संस्थाओं का अपना एक अलग तरीका होता है जिसके द्वारा व्यक्ति पर ये संस्थाएं अपना दबाव डालती है।

4. नैतिक बल

प्रत्येक संस्था का एक नैतिक बल होता है जिसके द्वारा संस्थाएं अपना दबाव मनुष्य पर सदैव बनाए रखते हैं। संस्थाओं की वैधानिकता को चुनौती नहीं दी जा सकती क्योंकि इन संस्थाओं को ऊर्जा उसमें निहित नैतिक बल से मिला होता है। इसका उल्लंघन करने वाले को इसकी सजा दी जाती हैं। झारखंड के आदिवासी समूह संस्थाओं में बिटलाहा जैसे संस्था का प्रावधान है जिसके द्वारा किसी भी व्यक्ति को उनके समाज के नियमों का उल्लंघन करने की छूट नहीं दी गयीं है। उनके विवाह के नियम का प्रावधान ऐसा है जिसके द्वारा किसी भी व्यक्ति को अपने आदिवासी समाज से बाहर शादी करने की इजाजत नहीं दी जाती है। और अगर कोई व्यक्ति इसका उल्लंघन करता है तो उसे उस गाँव तथा अपने समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता है उसके घर को विशेषकर रसोई को ध्वस्त कर दिया जाता है। इस प्रकार संस्थाओं का अपना एक अलग नैतिक बल होता है जिसके कारण समाज के नियमों की मर्यादा बनी रहती है।

5. एतिहासिक स्वरूप

संस्थाओं का अपना एक अलग ऐतिहासिक स्वरूप भी होता है जिसके कारण संस्थाएं न केवल एक सच्चाई के रूप में अपना अस्तित्व बनाये रखते हैं बल्कि वे अपना एक अलग पहचान ऐतिहासिक भूमिका के कारण भी बनाकर रखते हैं। संस्थाओं का अर्थ अचानक ही नहीं बना होता है बल्कि इसके पीछे एक एतिहासिक सोच और परंपरा भी जुड़ी होती है। इस दष्टिकोण से यह भी स्मरण रखना जरूरी है कि संस्थाओं के नियम व्यक्ति के जन्म लेने से पहले ही बने होते हैं। व्यक्ति उन संस्थागत नियमों का सिर्फ पालन करना अपना फर्ज समझता है।

मैकाइबर तथा पेज ने संस्थाओं के अध्ययन के तीन विधि की बात की है जो निम्न है:-

  • ऐतिहासिक
  • तुलनात्मक
  • परस्पर संबंध

संस्थाओं की एतिहासिक पष्ठभूमि का विवेचन पहले भी किया गया है इसलिए यहाँ तुलनात्मक तथा परस्पर संबंध की चर्चा की जरूरत है। किसी भी संस्था की तुलना की जा सकती है। एक, समाज के विवाह प्रणाली की तुलना दूसरे समाज के विवाह प्रणाली से की जा सकती है। इस रूप में दोनों समाज के विवाह प्रणाली का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए दोनों के बीच में परस्पर संबंधों की भी विवेचना की जा सकती है। फ्रेडरिक इंजेल्स ने अपने पुस्तक आरिजिन्स ऑफ फैम्ली, स्टेट व प्राइवेट प्रापर्टी में विवाह के प्रणाली का तुलनात्मक अध्ययन निजी संपत्ति के विकास के क्रम तथा राज्य के विकास के क्रम के संदर्भ में किया था।

मैकाइबर तथा पेज ने संस्थागत नियमों के आधार को रीति-रिवाजों से भी जोड़कर देखा है। रीतिरिवाज, जनरीतियां और रूढ़ियां ये तीनों एक खास प्रकार के संस्थागत मुल्यों से जुड़े हुए हैं जिनका प्रमुख उद्देश्य है मनुष्य के व्यवहार का नियंत्रण इन अवधारणाओं के द्वारा भी यह समझा जा सकता है कि ऐसे संस्थाओं का अपना एक नैतिक आधार होता है जिसके द्वारा यह मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करता है।

समाजशास्त्रियों ने संस्थाओं के अध्ययन में पाँच प्रकार के प्रमुख संस्थाओं का वर्णन व्यापक रूप से किया हैं ये संस्थाएं निम्न है :-

  1. आर्थिक संस्थाएं : इसके द्वारा उत्पादन, वितरण और उपभोग जैसे क्रियाओं का वर्णन किया जाता है।
  2. राजनीतिक संस्थाएं : इसके द्वारा सत्ता का नियंत्रण किस प्रकार होता है इसे समझने में मदद मिलती है।
  3. स्तरीकरण : इसके द्वारा किस प्रकार समाज के वर्ग अपनी स्थिति के आधार पर बंटे होते हैं। उन प्रक्रियाओं को समझा जा सकता है।
  4. स्वजन संस्थाएं : इन संस्थाओं से संस्थाएं विवाह, परिवार और बच्चों के समाजीकरण की क्रिया को समझा जा सकता है।
  5. सांस्कृतिक संस्थाएं : ये संस्थाएं धार्मिक, वैज्ञानिक तथा कला के क्षेत्र में संस्थाओं की क्या भूमिका है उसे समझने में मदद करती हैं।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि समाजशास्त्र में संस्थाओं का व्यापक अध्ययन होता है जिसके आधार पर संस्थाओं के भूमिका का अध्ययन होता है।

The premier library of general studies, current affairs, educational news with also competitive examination related syllabus.

Related Posts

# सिद्धान्त निर्माण का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, महत्व | सिद्धान्त निर्माण के प्रकार | Siddhant Nirman

सिद्धान्त निर्माण : सिद्धान्त वैज्ञानिक अनुसन्धान का एक महत्वपूर्ण चरण है। गुडे तथा हॉट ने सिद्धान्त को विज्ञान का उपकरण माना है क्योंकि इससे हमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण…

# पैरेटो की सामाजिक क्रिया की अवधारणा | Social Action Theory of Vilfred Pareto

सामाजिक क्रिया सिद्धान्त प्रमुख रूप से एक प्रकार्यात्मक सिद्धान्त है। सर्वप्रथम विल्फ्रेडो पैरेटो ने सामाजिक क्रिया सिद्धान्त की रूपरेखा प्रस्तुत की। बाद में मैक्स वेबर ने सामाजिक…

# सामाजिक एकता (सुदृढ़ता) या समैक्य का सिद्धान्त : दुर्खीम | Theory of Social Solidarity

दुर्खीम के सामाजिक एकता का सिद्धान्त : दुर्खीम ने सामाजिक एकता या समैक्य के सिद्धान्त का प्रतिपादन अपनी पुस्तक “दी डिवीजन आफ लेबर इन सोसाइटी” (The Division…

# पारसन्स के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त | Parsons’s Theory of Social Stratification

पारसन्स का सिद्धान्त (Theory of Parsons) : सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार्यवादी सिद्धान्तों में पारसन्स का सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त एक प्रमुख सिद्धान्त माना जाता है अतएव यहाँ…

# मैक्स वेबर के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त | Maxweber’s Theory of Social Stratification

मैक्स वेबर के सामाजिक स्तरीकरण के सिद्धान्त : मैक्स वेबर ने अपने सामाजिक स्तरीकरण के सिद्धान्त में “कार्ल मार्क्स के सामाजिक स्तरीकरण सिद्धान्त” की कमियों को दूर…

# कार्ल मार्क्स के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त | Karl Marx’s Theory of Social Stratification

कार्ल मार्क्स के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त – कार्ल मार्क्स के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त मार्क्स की वर्ग व्यवस्था पर आधारित है। मार्क्स ने समाज में आर्थिक आधार…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

eight − two =