संस्था का अर्थ एवं परिभाषाएँ :
संस्थाएँ वे कार्यप्रणालियाँ हैं जिनके द्वारा व्यक्ति, समितियाँ या संगठन अपने उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। ये समाज द्वारा मान्यता प्राप्त होती हैं। कार्यप्रणालियाँ या नियमों की व्यवस्था होने के कारण संस्थाएँ अमूर्त होती हैं। विवाह, उत्तराधिकार, परीक्षा प्रणाली, स्नातकत्व, सामूहिक सौदेवाजी, प्रजातन्त्र इत्यादि संस्थाओं के प्रमुख उदाहरण है।
ऑगबर्न एवं निमकॉफ (Ogburn and Nimkoff) के अनुसार, “सामाजिक संस्थाएँ कुछ आधारभूत मानवीय आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए संगठित एवं स्थापित प्रणालियों को कहते हैं।”
बोगार्डस (Bogardus) के अनुसार, “सामाजिक संस्था समाज की वह संरचना है जिसको सुस्थापित कार्यविधियों द्वारा व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संगठित किया जाता है।”
ग्रीन (Green) के अनुसार, “एक संस्था अनेक जनरीतियों और रूढ़ियों (प्रायः अधिकतर पर आवश्यक रूप से नहीं) का ऐसा संगठन होता है जो अनेक सामाजिक कार्य करता है।”
गिलिन एवं गिलिन (Gillin and Gillin) के अनुसार, “एक सामाजिक संस्था सांस्कृतिक प्रतिमानों (जिनमें क्रियाएँ, विचार, मनोवृत्नियाँ तथा सांस्कृतिक उपकरण सम्मिलित है) का वह क्रियात्मक स्वरूप है जिसमें कुछ स्थायित्व होता है और जिसका कार्य सामाजिक आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करना है।”
इसी भाँति, मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के अनुसार, “संस्थाएँ सामूहिक क्रिया की विशेषता बताने वाली कार्यप्रणाली के स्थापित स्वरूप या अवस्था को कहते है।”
संस्था की उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि संस्था नियमों या कार्यप्रणालियों की व्यवस्था है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि संस्था का तात्पर्य व्यवहार के स्वीकृत प्रतिमानों से है जिनके द्वारा परस्पर सम्बन्धित व्यक्तियों की भूमिकाएँ निश्चित कर दी जाती है।
संस्था की प्रमुख विशेषताएँ :
सामाजिक संस्था की विभिन्न परिभाषाओं से इसकी कुछ विशेषताएँ भी स्पष्ट होती हैं, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित है –
1. सुपरिभाषित उद्देश्य
प्रत्येक सामाजिक संस्था का एक निश्चित उद्देश्य होता है जिसकी पूर्ति के लिए संस्था का निर्माण किया जाता है। सामाजिक संस्थाओं के उद्देश्य पूर्णत: सुपरिभाषित व स्पष्ट होते हैं।
2. स्थायित्व
सामाजिक संस्था का विकास दीर्घ समय में होता है। जब कोई कार्यविधि दीर्घ समय तक समाज के व्यक्तियों को आवश्यकताओं को सफलतापूर्वक पूरा करती रहती है, तब ही उसे एक संस्था के रूप में स्वीकार किया जाता है। अतएव साधारणतः स्थायित्व के कारण संस्था में परिवर्तन नहीं होता।
3. सामूहिक अभिमति
सामाजिक संस्था के लिए सामूहिक अभिमति का होना अति आवश्यक है। सामूहिक अभिमति के कारण इसमें स्थायित्व आता है तथा सदस्यों के लिए अधिक प्रभावशाली होती है।
4. नियमों की संरचना
बिना उचित ढाँचे वा संरचना के कोई भी सामाजिक संस्था विकसित नहीं हो सकती। बाँचे से अभिप्राय उन नियमों (लिखित या अलिखित) अथवा कार्यप्रणालियों से है जिनके द्वारा संस्था का काम चलता है तथा उद्देश्यों की प्राप्ति होती है।
5. सामूहिक प्रयत्न
सामाजिक संस्था व्यक्ति विशेष के लक्ष्यों को पूरा न करके, सामूहिक लक्ष्यों की पूर्ति करती है। इस कारण संस्था का विकास या अवनति व्यक्ति विशेष पर आधारित नहीं होती है।
6. प्रतीक
प्रत्येक सामाजिक संस्था के कुछ प्रतीक होते हैं। प्रतीकों को प्रकृति भौतिक या अभौतिक हो सकती है। उदाहरणार्थ—प्रत्येक बैंक या विश्वविद्यालय का अपना प्रतीक होता है। स्त्रियों के लिए विवाह संस्था का प्रतीक मंगलसूत्र है।
7. अमूर्त व्यवस्था
सामाजिक संस्था व्यक्तियों का समूह न होकर कार्यविधियों की व्यवस्था है। कार्यविधि अथवा नियमों की व्यवस्था होने के कारण ही संस्था को अमूर्त व्यवस्था कहा जाता है।
8. सांस्कृतिक व्यवस्था की इकाई
सामाजिक संस्था में अनेक रीतियाँ, प्रथाएँ, जनरीतियाँ व रूढ़ियाँ सम्मिलित होती है। ये सभी संस्कृति के अंग है। इनसे मिलकर बनने के कारण संस्था स्वयं सम्पूर्ण सांस्कृतिक व्यवस्था की इकाई बन जाती है।