# सामाजिक क्रिया की अवधारणा : मैक्स वेबर | सामाजिक क्रिया की परिभाषा, विशेषताएं, भाग, आवश्यक तत्व, आलोचना | Social Action

सामाजिक क्रिया के सिद्धांत को प्रस्तुत करने का पहला श्रेय अल्फ्रेड मार्शल (Alfred Marshall) को है। लेकिन सामाजिक क्रिया को समझाने वाले और प्रतिपादक विद्वानों में मैक्सवेबर का नाम विख्यात हैं। वेबर ने सामाजिक क्रिया के सिद्धान्त की विशद् विवेचना करके स्पष्टतः समझाया है। मैक्सवेबर सामाजिक क्रिया के सिद्धान्त द्वारा ही समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति को स्पष्ट करते हैं। अनेक समाजशास्त्री जैसे एरन, बोगार्डस, रैक्स आदि ने समालोचना का कार्य वेबर की सामाजिक क्रिया से ही प्रारम्भ किया है।

सामाजिक क्रिया की परिभाषा :

मैक्सवेबर के अनुसार, ‘सामाजिक क्रिया’ वैयक्तिक क्रिया (Inpidual Action) से पृथक् है। वेबर ने इसे परिभाषित करते हुए लिखा है, “किसी भी क्रिया को हमें तभी सामाजिक क्रिया मानना चाहिए, जिसमें कर्ता या कर्ताओं द्वारा लगाये गये व्यक्तिनिष्ठ अर्थ (Subjective Meaning) के अनुसार उस क्रिया में दूसरे व्यक्तियों के मनोभाव एवं क्रियाओं का समावेश हो और उन्हीं के अनुसार उसकी गतिविधि निर्धारित हो।”

वेबर की इस परिभाषा से स्पष्ट है कि सामाजिक क्रिया केवल उसी क्रिया को कहते हैं जिसे कर्ता अन्य कर्ताओं के मनोभावों एवं क्रियाओं को ध्यान में रखकर करता है और प्रत्येक क्रिया का कर्ता के लिए कोई-न-कोई अर्थ होता है। वेबर सामाजिक क्रिया में व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक दोनों ही प्रकार की क्रियाओं को सम्मिलित करते हैं।

सामाजिक क्रिया की अवधारणा :

मैक्सवेबर ने अपनी सामाजिक क्रिया की अवधारणा को समझाने के लिए इसे चार भागों में बाँटकर समझाया है। वेबर के अनुसार क्रियाओं का यह वर्गीकरण वस्तु के साथ सम्बन्ध पर आधारित है। पारसन्स ने इसे अभिमुखता का प्रारूप माना है। गर्थ एवं मिल्स इसे प्रेरणा की दिशा कहते हैं। मैक्सवेबर के क्रिया के वर्गीकरण को समझने से पहले हम सामाजिक क्रिया की अवधारणा को विधिवत् समझ लें। वेबर के अनुसार किसी क्रिया को सामाजिक क्रिया मानने से पूर्व हमें चार बातों का ध्यान रखना चाहिए।

(1) मैक्सवेबर का मानना है कि सामाजिक क्रिया दूसरे या अन्य व्यक्तियों (परिचित या अपरिचित) के भूत, वर्तमान एवं भावी व्यवहार द्वारा प्रभावित हो सकती है। यदि हम अपने पिछले किसी कार्य के प्रत्युत्तर में कोई क्रिया करते हैं तो यह भूतकालीन क्रिया होगी, वर्तमान समय में कोई क्रिया कर रहे हैं तो वर्तमान क्रिया और भविष्य को ध्यान में रखते हुए कोई क्रिया करते हैं तो भविष्यत् क्रिया होगी। उदाहरण के लिए यदि एक कर्ता पिछली दुश्मनी का बदला लेने के लिए संघर्ष करता है तो यह भूतकालीन क्रिया होगी क्योंकि संघर्ष करने की क्रिया का सम्बन्ध उस आक्रान्त व्यक्ति की भूतकाल की किसी क्रिया से प्रभावित है। इसी प्रकार किसी ड्रिल मास्टर द्वारा दिए जा रहे निर्देशों के अनुसार ‘ड्रिल’ करना वर्तमान सामाजिक क्रिया है और भविष्य में होने वाली किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के लिए अभी से तैयारी करना भविष्यत क्रिया होगी।

(2) वेबर का कहना है कि प्रत्येक प्रकार की ‘बाह्य क्रिया’ (Overt Action) सामाजिक क्रिया नहीं कही जा सकती। बाह्य क्रिया गैर-सामाजिक (Non-Social) है, यदि पूर्णतया जड़ व बेजानदार वस्तुओं द्वारा प्रभावित और उनकी प्रतिक्रिया स्वरूप की जा रही है। उदाहरण के लिए किसी ईश्वर की आराधना करना, नमाज पढ़ना या अकेले समाधि लगाना सामाजिक क्रिया नहीं है। लेकिन ब्राह्मण के कहने के अनुसार पूजन करना, मुल्ला के कहने के अनुसार नमाज पढ़ना सामाजिक क्रिया है, क्योंकि कर्ता के ये व्यवहार अन्य व्यक्तियों (ब्राह्मण, मुल्ला आदि) के व्यवहार से सम्बन्धित है।

(3) मनुष्यों के कुछ सम्पर्क उसी सीमा तक सामाजिक क्रिया में आते हैं, जहाँ तक वह दूसरों के व्यवहार से अर्थपूर्ण ढंग से सम्बन्धित और प्रभावित होते हैं। प्रत्येक प्रकार के सम्पर्क सामाजिक नहीं कहे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए यदि सिनेमा की सीढ़ियाँ उतरते समय दो व्यक्ति आपस में टकरा जाएँ तो यह क्रिया सामाजिक नहीं होगी, लेकिन यदि वे आपस में संघर्ष पर उतर आएँ अथवा खेद व्यक्त करें, तो यह क्रिया सामाजिक क्रिया होगी, क्योंकि ऐसा करने में दोनों व्यक्तियों के व्यवहार आपस में अन्तर्सम्बन्धित एवं प्रभावित होते हैं।

(4) सामाजिक क्रिया न तो अनेक व्यक्तियों द्वारा की जाने वाली एक जैसी क्रिया को कहा जाता है और न ही उस क्रिया को कहा जाता है जो कि केवल दूसरे व्यक्तियों द्वारा प्रभावित होती हो। उदाहरण के लिए वर्षा होने पर सड़क पर अनेक व्यक्तियों द्वारा छाता खोल लेने की क्रिया सामाजिक क्रिया नहीं है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की क्रिया का दूसरे या अन्य व्यक्तियों से कोई सम्बन्ध नहीं है। मैक्सवेबर कहते हैं कि दूसरे की क्रियाओं का अनुसरण (Imitation) करना सामाजिक क्रिया नहीं है, जब तक कि वह अन्य व्यक्ति, जिसका कि अनुसरण किया जा रहा है, की क्रिया से अर्थपूर्ण सम्बन्ध न रखता हो, या उसकी क्रिया द्वारा अर्थपूर्ण रूप से प्रभावित न होता हो।

सामाजिक क्रिया की विशेषताएं :

मैक्स वेबर सामाजिक क्रिया को व्यक्तिगत क्रिया या गैर-सामाजिक क्रिया से अलग करने के लिए कुछ कसौटियों का उल्लेख किया है। ये कसौटियाँ ही सामाजिक क्रिया की विशेषताएँ हैं। अतः किसी क्रिया को करने के पहले सामाजिक क्रिया की विशेषताओं को समझना आवश्यक है, जो निम्न हैं-

(1) सामाजिक क्रिया दूसरे व्यक्तियों के भूत, वर्तमान एवं भावी व्यवहार द्वारा प्रभावित हो सकती है। जैसे- कोई व्यक्ति किसी दुश्मनी का बदला लेने के लिए किसी को मारता तो मारने की क्रिया का सम्बन्ध आक्रान्त व्यक्ति की किसी क्रिया से प्रभावित या उस प्रतिक्रियास्वरूप है। इसी प्रकार क्लास में प्रवक्ता के लेक्चर देने के साथ-साथ नोट्स लेना सामाजिक क्रिया है क्योंकि नोट्स लेने की यह क्रिया भी वर्तमान समय में प्रवक्ता द्वारा दिये गये लेक्चर की प्रतिक्रियास्वरुप हो रही है।

(2) सामाजिक क्रिया का सम्बन्ध और प्रभाव सामाजिक प्राणियों के साथ ही होता है इस दृष्टि से प्रत्येक प्रकार की क्रिया सामाजिक क्रिया नहीं कही जा सकती है। सभी की बाह्य क्रियाएँ असामाजिक हैं यदि वे बेजानदार वस्तुओं द्वारा प्रभावित होती हैं। उनके प्रतिक्रियास्वरूप की गई क्रिया सामाजिक क्रिया नहीं होती है। जैसे- धार्मिक व्यवहार सामाजिक क्रिया उस स्थिति में नहीं होता है जब व्यक्ति ईश्वर का ध्यान लगाकर बैठ जाता है या अकेले में पूजा-पाठ करता है। परन्तु यदि व्यक्ति ब्राह्मण के उच्चारित मन्त्रों को कहते हुए मूर्ति पर फूल अर्पित करता है तो यह क्रिया सामाजिक होगी क्योंकि फूल चढ़ाने की यह क्रिया ब्राह्मण के व्यवहार से सम्बन्धित है।

(3) मनुष्यों का प्रत्येक प्रकार का सम्बन्ध भी सामाजिक नहीं होता है। जब तक किसी भी व्यक्ति का व्यवहार दूसरों के व्यवहार से अर्थपूर्ण ढंग से सम्बन्धित और प्रभावित न हो। जैसे – दो व्यक्तियों के आपस में एकाएक टकरा जाने की सामाजिक क्रिया नहीं कहा जा सकता है जब तक टकराने के बाद दोनों में हाथापायी या गाली-गलौज न हो क्योंकि इसमें एक का व्यवहार दूसरे से सम्बन्धित या दूसरों के व्यवहार द्वारा प्रभावित है।

(4) सामाजिक क्रिया अनेक व्यक्तियों द्वारा की जाने वाली एक-सी क्रिया नहीं है और न ही उस क्रिया को कहते हैं जो कि केवल दूसरे व्यक्तियों द्वारा प्रभावित है। जैसे— कई व्यक्ति जा रहे हैं और वर्षा होने लगती है। सभी के पास अपना छाता है ऐसी अवस्था में वे सभी छाता खोल लेते हैं तो इस प्रकार की क्रिया सामाजिक क्रिया नहीं है क्योंकि छाता खोलने वाले व्यक्तियों की क्रियाओं का एक-दूसरे की क्रियाओं से कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसी अवस्था में किसी भी व्यक्ति का व्यवहार अन्य किसी भी व्यक्ति की क्रिया द्वारा प्रभावित नहीं है। छाता खोलने क्रिया वर्षा के द्वारा प्रभावित है।

मैक्स वेबर का कथन है कि दूसरों की क्रियाओं का अनुकरण करना सामाजिक क्रिया तब तक नहीं कही जा सकती है जब तक दूसरों की क्रियाओं में अर्थपूर्ण सम्बन्ध न हो अर्थात् दूसरों की क्रियाएँ अर्थपूर्ण रूप से प्रभावित न हों। जैसे कोई विद्यार्थी एक शार्टकट रास्ते से जाता है। मैं भी दूसरे दिन उसी रास्ते से जाऊँ तो मेरा यह कार्य सामाजिक कार्य नहीं होगा क्योंकि मेरा यह कार्य उस समय दूसरे की क्रिया से किसी रूप में भी सम्बन्धित नहीं है परन्तु यदि किसी ड्रिल मास्टर की क्रिया का अनुसरण करूँ तो वह क्रिया सामाजिक क्रिया होगी क्योंकि इसमें अर्थपूर्ण सम्बन्ध है।

मैक्स वेबर की सामाजिक क्रिया के प्रकार/भाग :

सामाजिक क्रिया को मैक्स वेबर ने 4 भागों में बाँटा है-

1. परम्परात्मक क्रियाएँ

जो क्रियायें प्रथाओं के प्रभाव से घटित होती हैं उन्हें परम्परात्मक सामाजिक क्रियाएँ कहते हैं। सामाजिकता की प्रवृत्ति के कारण मनुष्य निश्चित रूप से सामाजिक प्रथाओं के अनुसार कार्य करता है क्योंकि प्रथाओं को सामाजिक अभिमति प्राप्त होती है तथा यह सामाजिक विरासत का अंग होती है।

2. भावात्मक क्रियाएँ

मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के साथ-साथ भावना प्रधान प्रणाली भी है। मनुष्य के जो कार्य भावनाओं अर्थात् संवेगों से जैसे काम, क्रोध, मद, ईर्ष्या आदि से प्रभावित होकर किये जाते हैं। उन्हें सामाजिक क्रिया के भावात्मक प्रकार के अन्तर्गत सम्मिलित किया जाता है। वेबर कहता है कि इस प्रकार की क्रियाओं को भावात्मक आधार पर ही समझा जाता है।

3. मूल्यांकनात्मक क्रियाएँ

मनुष्य के जो कार्य सामाजिक मूल्यों से प्रभावित होकर किये जाते हैं। उन्हें मूल्यांकनात्मक सामाजिक क्रिया के नाम से सम्बोधित किया जाता है। सामाजिक मूल्य समाज में व्यक्ति की स्थिति को निर्धारित करते हैं। इसलिए वह इनके अनुसार ही अपनी क्रियाओं को सम्पादित करता है।

4. बौद्धिक क्रियाएँ

मनुष्य की बहुत सारी क्रियायें तार्किक ढंग से योजना के अनुसार सम्पादित की जाती हैं, जिन्हें वेबर बौद्धिक सामाजिक क्रिया की संज्ञा देता है। इस प्रकार की क्रियाओं में निश्चित अनुक्रम अर्थात् क्रमबद्धता की व्यवस्था पाई जाती है, इसलिए इस प्रकार की क्रियाओं को बौद्धिक ढंग से समझा भी जाता है। उदाहरण के लिए डॉक्टर बनने की नियति से विज्ञान समूह विषयों के अध्यापन का क्रम व कार्य बौद्धिक सामाजिक क्रिया है।

सामाजिक क्रिया के आवश्यक तत्व :

★ मैक्स वेबर के अनुसार सामाजिक क्रिया के आवश्यक तत्व निम्न हैं –

(1) कर्ता– सामाजिक क्रिया को सम्पादित करने वाला व्यक्ति कर्ता है, व्यक्ति के कार्य ही सामाजिक क्रिया का निर्माण करते हैं। व्यक्ति के बिना सामाजिक क्रिया की कल्पना नहीं की जा सकती है।

(2) दो या दो से अधिक व्यक्तियों की उपस्थिति– सामाजिक क्रिया का दूसरा तत्व कर्ता के साथ अन्य व्यक्तियों की उपस्थिति आवश्यक है तभी क्रिया-प्रतिक्रिया से अन्तःक्रिया व सामाजिक क्रिया का प्रतिपादन होता है। सामाजिक क्रिया वहीं सम्भव है जहाँ और जब दो या दो से अधिक व्यक्तियों की उपस्थिति हो ऐसी उपस्थिति शारीरिक व मानसिक रूप में हो सकती है।

(3) पारस्परिक प्रभाव व कर्ता द्वारा प्रभाव की अनुमति– वेबर के मतानुसार सामाजिक क्रिया का तीसरा तत्व विभिन्न व्यक्तियों का एक-दूसरे पर प्रभाव व कर्त्ता द्वारा उस प्रभाव की अनुमति है। उदाहरण के लिए मन्दिर में बैठकर पूजा करने का कार्य धार्मिक क्रिया है, सामाजिक क्रिया नहीं, किन्तु पण्डित के निर्देशानुसार या उच्चारित मन्त्रों के अनुसार सत्यनारायण की कथा का श्रवण करना सामाजिक क्रिया है।

(4) सामाजिक परिस्थिति– वेबर कहता है कि व्यक्ति के वही कार्य सामाजिक क्रियाओं के रूप में माने जाते हैं जो किसी न किसी सामाजिक परिस्थिति के सन्दर्भ में किये जायें तथा जिनकी सामाजिक यथार्थता हो, उदाहरण-टाकीज में फिल्म देखते हुए किसी प्रसंग पर यदि हम हँस या रो पड़ें तो यह क्रिया सामाजिक क्रिया तब तक नहीं है जब तक उसकी सामाजिक यथार्थता नहीं।

(5) आशय व प्रेरणाएँ– वेबर का विचार है कि सामाजिक क्रियाओं का निर्माण व्यक्तियों के आशय व प्रेरणाओं से होता है। हर कार्य के पीछे एक प्रेरणा होती है तथा इस प्रकार प्रेरणा से उत्पन्न ऐसे कार्य सामाजिक क्रिया है जो सामाजिक परिस्थिति व सार्थकता से युक्त हो।

★ किंग्सले डेविस के अनुसार सामाजिक क्रिया के आवश्यक तत्व निम्न हैं –

किंग्सले डेविस ने सामाजिक क्रिया के चार आवश्यक तत्वों- कर्ता, लक्ष्य, परिस्थिति एवं साधन का उल्लेख किया है। हम यहाँ क्रमशः उनका वर्णन करेंगे-

(1) कर्ता (Actor) – किसी भी सामाजिक क्रिया के लिए कर्ता का होना आवश्यक है, उसके अभाव में कोई सामाजिक क्रिया नहीं हो सकती। जब हम किसी क्रिया के कर्ता की बात करते हैं तो हमारा तात्पर्य कर्ता की शारीरिक रचना से नहीं होता वरन् उसके ‘अहम्’ (ego) या ‘स्व’ (self) से होता है। यह किसी वस्तु का नहीं वरन् ‘मैं’ और ‘मुझे’ का बोध कराता है। ‘अहम्’ एक प्रातीतिक वस्तु (Subjective entity) होती है जिसमें जागरूकता एवं अनुभव होता है। अहम् स्वयं निर्णय लेता है और भूतकाल में लिये गये निर्णयों पर प्रकाश डालता है तथा भविष्य की घटनाओं की कल्पना करता है। शरीर के अभाव में अहम् का अस्तित्व दिखायी नहीं देता, किन्तु शरीर के किसी अंग के नष्ट हो जाने पर भी अहम् में कोई परिवर्तन नहीं आता। ‘स्व’ के लिए शरीर परिस्थिति का एक अंग मात्र है अथवा लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए यह एक साधन अथवा स्थिति है। ‘अहम्’ ही कोई क्रिया करता है यद्यपि मनुष्य की जीव रचना भी कुछ व्यवहार करती है।

(2) लक्ष्य (End) – कर्ता किसी-न-किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही क्रिया करता है। लक्ष्य भविष्य की किसी घटना की ओर संकेत करता है। लक्ष्य के सन्दर्भ में कर्ता कल्पना शक्ति, प्रयास एवं इच्छा शक्ति का उपयोग करता है। क्रिया लक्ष्य के चारों ओर चलती है। अतः जब लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है तो क्रिया भी समाप्त हो जाती है। एक लक्ष्य को प्राप्त कर लेने के बाद उसके स्थान पर दूसरा लक्ष्य तय किया जाता है और नयी क्रिया प्रारम्भ होती है। लक्ष्य का चुनाव करते समय सामाजिक मूल्यों को भी ध्यान में रखना होता है। यदि कोई घटना स्वतः घट जाती है जिसमें कर्ता की इच्छा व प्रयत्न शामिल नहीं होते तो उसे हम लक्ष्य नहीं कहेंगे।

(3) स्थितियाँ (Conditions) – प्रत्येक क्रिया किसी परिस्थिति या स्थिति में ही की जाती है। स्थितियों में हम उन बाधाओं एवं सुविधाओं दोनों को गिनते हैं जो क्रिया के समय उपलब्ध होती हैं। लक्ष्य प्राप्ति में केवल प्रयत्न और इच्छा ही सम्मिलित नहीं हैं वरन् वे बाधाएँ भी हैं जो लक्ष्य पूर्ति में सामने आती हैं। यदि बाधाएँ न हों तो कर्ता के प्रयत्न के बिना ही लक्ष्य पूरा हो जायेगा और फिर न तो किसी लक्ष्य की आवश्यकता होगी और न किसी क्रिया की। क्रिया की धारणा में यह बात छिपी होती है कि प्रयत्न द्वारा बाधाओं को दूर किया जा सकता है। यदि सभी बाधाएँ अजेय हों तो लक्ष्य प्राप्त करने के सभी प्रयत्न विफल हो जायेंगे तथा व्यक्ति शीघ्र ही प्रयत्न (क्रिया) करना बन्द कर देगा। जो बाधाएँ दूर नहीं की जा सकती हैं, उन्हें ही हम स्थितियाँ कहते हैं। इन स्थितियों में ही क्रिया की जाती है। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति दिल्ली से मुम्बई जाना चाहता है तो वह अपना हाथ हिलाकर इस दूरी को शून्य में नहीं बदल सकता। इस दूरी को एक विद्यमान स्थिति मानकर कर्ता को मोटर या वायुयान, आदि के द्वारा दूरी को कम करने का प्रयास करना होगा।

(4) साधन (Means) – लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए साधनों का होना एवं उनका प्रयोग करना आवश्यक है। साधन सरल या जटिल हो सकते हैं। एक लक्ष्य की प्राप्ति अनेक साधनों द्वारा की जा सकती है, जैसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए हम रेल, मोटर, वायुयान, आदि का प्रयोग कर सकते हैं। कर्ता के सामने साधनों का चुनाव करने की छूट होती है, किन्तु इसमें त्रुटि की भी सम्भावना रहती है। क्योंकि यह हो सकता है जिस साधन का चुनाव हम करें वह अधिक उपयुक्त न भी हो।

आलोचनाएं :

(1) वेबर की सामाजिक क्रिया के अर्थ की अवधारणा पूर्णरूपेण स्पष्ट नहीं है, मनुष्य की विभिन्न क्रियाएँ उसके जीवन का अभिन्न अंग होती हैं जिन्हें एक-दूसरे से अलग करके नहीं समझा जा सकता।

(2) मनुष्य की सामाजिक क्रियाएँ विभिन्न प्रकार की होती हैं जिन्हें केवल चार ही प्रकारों के अन्तर्गत सीमित नहीं किया जा सकता, जबकि वेबर ने उन्हें केवल चार ही प्रकारों के अन्तर्गत उल्लेखित कर सीमित कर दिया है।

(3) वेबर ने केवल सामाजिक क्रियाओं की ही बात कही है। असामाजिक क्रियाओं की नहीं, जबकि वास्तविकता यह है कि मनुष्य की बहुत सारी असामाजिक क्रियाओं का भी अध्ययन किया जाना चाहिए।

(4) सामाजिक क्रियाओं को समझने के लिए वेबर ने जिन विभिन्न विधियों का उल्लेख किया है उनमें सामाजिकता की जानकारी को स्पष्ट रूप से सम्मिलित नहीं किया है, जबकि वास्तविकता यह है कि मनुष्य की सामाजिक क्रियाओं को समझने के लिए उस समाज की संस्कृति सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, वैधानिक आदि समस्त व्यवस्थाओं को समझना आवश्यक है।

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