# व्यवहारवाद का अर्थ, परिभाषाएं, उपागम, महत्व, लक्षण, आलोचनाएं या सीमाएं

द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् परम्परागत राजनीति विज्ञान के विरोध में एक व्यापक क्रान्ति हुई इस क्रान्ति को “व्यवहारवाद” नाम दिया जाता है।

व्यवहारवाद से अभिप्राय उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राज्य, समाज एवं मानव का व्यवस्थित अध्ययन विश्वविद्यालय स्तर पर प्रारम्भ हो गया था। इस प्रकार के अध्ययन का सामान्य प्रचलित नाम सामाजिक विज्ञान था किन्तु इस नाम से भ्रम उत्पन्न होता था। अतः सुविधा के लिए सामाजिक विज्ञान के अन्तर्गत आने वाले सम्पूर्ण विषयों के लिए ‘व्यवहारवादी विज्ञान‘ (Behavioural Science) शब्द का प्रयोग किया जाने लगा।

व्यवहारवाद के प्रणेता (जनक) “डेविड ईस्टन” को माना जाता है उसके अनुसार “व्यवहारवाद वास्तविक व्यक्तियों पर अपना समस्त ध्यान केन्द्रित करता है। व्यवहारवाद की अध्ययन की इकाई मानव का ऐसा व्यवहार है, जिसका प्रत्येक व्यक्ति द्वारा पर्यवेक्षण, मापन और सत्यापन किया जा सकता है। व्यवहारवाद राजनीतिक व्यवहार के अध्ययन से राजनीति की संरचनाओं तथा प्रतिक्रियाओं आदि के बारे में वैज्ञानिक व्याख्यायें विकसित करना चाहता है।”

“व्यववहारवादी क्रान्ति परम्परागत राजनीति विज्ञान की असफलताओं के प्रति असंतोष का परिणाम है। इस क्रान्ति का उद्देश्य राजनीति विज्ञान को अधिक वैज्ञानिक बनाना है” – रॉबर्ट

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व्यवहारवाद की परिभाषाएं :

व्यवहारवाद के अर्थ को अच्छी तरह समझने के लिए विभिन्न विद्वानों द्वारा व्यवहारवाद की दी गई परिभाषाओं को समझना आवश्यक होगा :-

१. डेविड ट्रूमैन के अनुसार “व्यवहारवादी उपागम से अभिप्राय है कि अनुसंधान व्यवस्थित हो तथा उसका प्रमुख आग्रह आनुभविक प्रणालियों के प्रयोग पर ही होना चाहिए।”

२. हींज यूलाऊ अनुसार “राजनीतिक व्यवहार के अध्ययन का संबंध राजनीतिक संदर्भ में मानव के कार्यों, रुख, वरीयताओं एवं आकांक्षाओं से है।”

३. डेविड ईस्टन के अनुसार “व्यवहारवादी शोध वास्तविक व्यक्ति पर अपना समस्त ध्यान केन्द्रित करता है।”

संक्षेप में व्यवहारवाद ऐसा दृष्टिकोण है जिसका लक्ष्य विश्लेषण की नई इकाईयों, नई पद्धतियों, नई तकनीकों, नये तथ्यों और एक व्यवस्थित सिद्धान्त के विकास को प्राप्त करना व्यवहारवाद की आधारभूत मान्यता यह है कि प्राकृतिक विज्ञानों और समाज विज्ञानों के बीच एक गुणात्मक निरन्तरता है।

व्यवहारवाद या व्यवहारवादी उपागम :

राजनीतिक तथ्यों की व्यवस्था और विश्लेषण का एक विशेष तरीका है, जिसे द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् अमरीकी राजनीतिशास्त्रियों द्वारा विकसित किया गया।

व्यवहारवादी उपागम का विकास व्यवहारवादी अवधारणा का जन्म द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् हुआ। इसके जन्म और विकास में दो तत्त्व सहायक रहे हैं- पहला द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले का अनुभववाद एवं दूसरा द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान राजनीति शास्त्रियों के यथार्थवादी अनुभव। ऐतिहासिक दृष्टि से व्यवहारवाद का प्रारम्भ बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में दिखाई पड़ता है। शिकागो विश्वविद्यालय के तीन विद्वान, पी. वी. स्मिथ, चार्ल्स मेरियम, तथा हेराल्ड लासवेल को व्यवहारवादी उपागम का संस्थापक कहा जा सकता है।

मेरियम तथा लावेल के बाद डेविड ईस्टन, आमण्ड हालमेन, कार्ल डायच तथा एडवर्ड शिल्स आदि ने व्यवहारवादी अध्ययन को आगे बढ़ाया। व्यवहारवाद के उदय के कारण व्यवहारवाद के उदय और विकास के लिए प्रमुख तौर पर जिन कारणों को उत्तरदायी माना जा सकता है उनमें परम्परागत अध्ययन पद्धतियों के प्रति असंतोष, अन्य सामाजिक विज्ञानों से प्रेरणा, द्वितीय विश्वयुद्ध का प्रभाव तथा नवीन अध्ययन पद्धतियों का प्रयोग आदि प्रमुख हैं।

व्यवहारवाद के लक्षण/आधारभूत मान्यतायें :

व्यवहारवाद की मूल मान्यताओं या विशेषताओं का डेविड ईस्टन ने विस्तार के साथ वर्णन किया है। उसने व्यवहारवाद या व्यवहारवादी उपागम के आठ प्रमुख आधार बताये हैं और इन्हें सम्पूर्ण व्यवहारवाद की बौद्धिक आधारशिला कहा है। डेविड ईस्टन के अनुसार व्यवहारवाद की प्रमुख मान्यतायें या विशेषतायें इस प्रकार हैं :-

१. नियमितताएं (Regularities)

नियमन से तात्पर्य है कि राजनीति के अध्ययन हेतु नियमों अथवा सिद्धान्तों का निर्माण संभव है। व्यवहारवादी मानते हैं कि मनुष्य के राजनीतिक व्यवहार में ऐसे सामान्य तथ्य पाये जाते हैं जिनके आधार पर सिद्धान्तों का निर्माण किया जा सकता है। इन सिद्धान्तों के आधार पर मानव के राजनीतिक व्यवहार की व्याख्या की जा सकती है और उसके भविष्य के राजनीतिक व्यवहार बारे सम्भावना प्रकट की जा सकती है।

२. सत्यापन (Verification)

सत्यापन का तात्पर्य है कि मानव व्यवहार के बारे में जो भी कथन है उसकी सत्यता की जाँच होनी चाहिए। सत्यापन के लिए जो साक्ष्य प्रस्तुत किये जाएं, वे आनुभाविक एवं प्रेक्षणीय होने चाहिए।

३. तकनीकों का प्रयोग (Use of Techniques)

तकनीक का अर्थ अध्ययन के ऐसे साधनों से है जो तथ्यों के चयन, संकलन, एवं वस्तुनिष्ठ विश्लेषण में सहायक हों। परम्परागत रूप से जिन तकनीकों को काम में लिया गया है, उन्हें पूर्ण रूप से वैज्ञानिक नहीं कहा जा सकता है। अतः व्यवहारवादियों का यह मानना है कि अध्ययन की तकनीकों में सुधार की लगातार कोशिशें की जानी चाहिए ताकि अधिक शुद्ध व वैज्ञानिक तकनीकों का निर्माण हो सके। साथ ही यह भी जरूरी हैं कि अध्ययनकर्ता इन तकनीकों का प्रयोग निरपेक्ष एवं तटस्थ भाव से करे, तभी राजनीतिक विश्लेषण वस्तुनिष्ठ हो सकता है।

४. परिमाणीकरण (Quantification)

अस्पष्ट गुणात्मक निर्णयों से बचने के लिए आवश्यक है कि शोधकर्ता अपना वक्तव्य संख्याओं एवं समीकरणों में प्रस्तुत करें। सटीक होने के कारण संख्याएं ज्यों की त्यों संप्रेषित हो जाती है।

५. क्रमबद्धीकरण (Systematization)

व्यवहारवादी यह मानते हैं कि शोधकार्य क्रमबद्ध तथा व्यवस्थित होना चाहिए। शोध तथा सिद्धान्त में घनिष्ठ संबंध है किन्तु वैज्ञानिक दृष्टि से सिद्धान्त की तुलना में शोध का स्थान पहले होता है। इसका अर्थ यह है कि पहले शोध का कार्य किया जाना चाहिए और इस शोध से प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर सिद्धान्त का निर्माण किया जाना चाहिए पुनः भविष्य में सिद्धान्त द्वारा शोध की यथार्थता का समर्थन होना चाहिए। इस प्रकार के व्यवस्थित और क्रमबद्ध अध्ययन द्वारा ही मानव के राजनीतिक व्यवहार के संदर्भ में कार्य व कारण का संबंध स्थापित किया जा सकता है।

६. मूल्य निर्धारण (Value Determination)

व्यवहारवादी मूल्यों की दृष्टि से तटस्थ रहना चाहते हैं फिर भी नैतिक मूल्यांकन के कुछ मूल्यों व आदर्शों का प्रतिपादन और प्रयोग आवश्यक हो जाता है। उनके अनुसार नैतिक मूल्यांकन तथा तथ्यात्मक व्यवस्था में अन्तर है। मूल्यों तथा तथ्यों को पृथक रखा जाना चाहिये। उदाहरण के लिए लोकतंत्र, समानता अथवा स्वतंत्रता उच्च मूल्य होते हुए भी उनकी सत्यता एवं असत्यता को वैज्ञानिक ढंग से सिद्ध नहीं किया जा सकता। वैज्ञानिक विश्लेषण के लिए उस सीमा तक मूल्यों को दृष्टि में रखा जा सकता है जिस सीमा तक वे राजनीतिक व्यवहार का विनिश्चय करते हैं किन्तु शोधकर्ता के लिए स्वयं के व्यक्तिगत मूल्यों को अलग रखकर ही शोध करना चाहिये।

७. विशुद्ध विज्ञान (Pure Science)

व्यवहारवादी राजनीति विज्ञान को एक शुद्ध विज्ञान का रूप देना चाहते हैं जिसमें दो प्रमुख लक्षण हैं, प्रथम यह वैज्ञानिक (आनुभविक ) सिद्धान्तों के निर्माण में मददगार हो तथा द्वितीय हमारे युग की – सामाजिक राजनीतिक समस्याओं को सुलझाने में सहायक हो। वे इस बात से सहमत हैं कि सिद्धान्त के बोध से वास्तविक जीवन की समस्याओं को समझा जा सकता है। सिद्धान्त और व्यवहार में उसका प्रयोग वैज्ञानिक अध्ययन का एक महत्वपूर्ण अंग है अतः वे शुद्ध अनुसंधान पर बहुत अधिक जोर देते हैं।

८. एकीकरण (Integration)

व्यवहारवादियों की एक प्रमुख मान्यता यह है कि समस्त मानव व्यवहार एक पूर्ण इकाई है और उसका अध्ययन खण्डों में नहीं होना चाहिये। मानव व्यवहार में एक आधारभूत एकता पाई जाती है और इसी कारण विभिन्न समाज विज्ञान एक दूसरे के अधिक समीप हैं। अतः राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन जीवन के अन्य पक्षों के संदर्भ में ही किया जाना चाहिये ।

व्यवहारवाद की आलोचना या सीमाएं :

व्यवहारवाद की अपनी अनेक दुर्बलतायें हैं जिनके कारण इसकी आलोचना की जाती है। व्यवहारवाद की आलोचना करने वाले विद्वानों में अर्नाल्ड ब्रेश्ट, लियो स्ट्रास, सिबली, किर्क पेट्रिक राबर्ट ए. डहल तथा डायच आदि के नाम प्रमुख हैं। व्यवहारवाद की आलोचना अथवा इसकी सीमाओं का उल्लेख निम्नलिखित रूप में किया जा सकता है-

१. राजनीतिक व्यवहार की गलत धारणा

व्यवहारवादी यह मानते हैं कि राजनीति विज्ञान में संस्थागत अध्ययन के स्थान पर मनुष्य के राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन किया जाना चाहिए। परन्तु व्यवहारवादी मानव व्यवहार का विज्ञान प्रस्तुत करने में असफल रहे हैं। व्यवहारवादी नियमितताओं पर अत्यधिक बल देते हैं। वे मनुष्य के व्यवहार के समान एवं नियमित गुणों का ही अध्ययन करते हैं जबकि मानव स्वभाव अत्यन्त जटिल है और उसका व्यवहार अनिश्चित और अमापनीय है। अतः मनुष्य के राजनीतिक व्यवहार का आकलन एवं गणना गणितीय रूप में प्रस्तुत नहीं की जा सकती।

२. प्राविधिक तकनीकों पर अत्यधिक बल

परम्परावादी राजनीतिशास्त्री व्यवहारवादियों पर प्राविधिक तकनीकों पर अत्यधिक बल देने का आरोप लगाते हैं। उनका कहना है कि वे शोध के उद्देश्यों के बजाय शोध के उपकरणों को परिष्कृत बनाने पर अत्यधिक ध्यान देते हैं। ये अपना अधिकांश समय प्रतिमानों और वैचारिक संरचनाओं के निर्माण में अथवा छोटी-छोटी समस्याओं के अध्ययन में लगा देते हैं और व्यावहारिक और महत्वपूर्ण तथ्यों को भुला देते हैं।

३. मूल्य निरपेक्ष अध्ययन सम्भव नहीं

व्यवहारवादियों ने राजनीति विज्ञान के मूल्य निरपेक्ष अध्ययन पर बल दिया है। किन्तु आलोचकों का मानना है कि राजनीति विज्ञान में मूल्य निरपेक्ष अध्ययन न तो सम्भव है न ही उचित है। एक शोधकर्ता शोध प्रारम्भ करने से पूर्व शोध के विषय के चयन में भी स्वयं के मूल्यों से प्रभावित होता है। इस प्रकार शोध का प्रारम्भ ही मूल्यों से प्रभावित होता है जिससे स्पष्ट है कि राजनीति विज्ञान में मूल्य निरपेक्ष अध्ययन सम्भव नहीं। विद्वानों का भी यही मानना है कि मूल्य निरपेक्ष अध्ययन सम्भव नहीं है क्योंकि निरपेक्ष होने का अर्थ हुआ अच्छे-बुरे एवं उचित – अनुचित में भेद नहीं करना।

४. अन्तर्विरोध

व्यवहारवादियों के कथन और आचरण में विरोध दिखाई पड़ता है। एक ओर तो वे मूल्य निरपेक्ष अध्ययन पर बल देते हैं किन्तु दूसरी ओर तानाशाही की तुलना में उदारवादी लोकतंत्र की श्रेष्ठता को स्वीकार करते हैं।

५ अत्यधिक खर्चीली पद्धति

व्यवहारवादी अध्ययन बहुत अधिक खर्चीली है क्योंकि इसमें अध्ययन की शुद्धता एवं पूर्णता के नाम पर बार-बार सर्वेक्षण किये जाते हैं और आँकड़े एकत्रित किये जाते हैं और फिर उनका विश्लेषण किया जाता है। यह सम्पूर्ण कार्य अत्यधिक समय साध्य और व्यय साध्य होता है। अतः एक सामान्य अध्ययनकर्ता अथवा तृतीय विश्व का गरीब समाज इस पद्धति को अपनाने में असमर्थ दिखाई पड़ता है।

व्यवहारवाद का योगदान अथवा राजनीति विज्ञान में महत्त्व :

अनेक आलोचनाओं के बावजूद व्यवहारवाद के कुछ उपयोगी पक्ष भी हैं जिसके कारण राजनीति विज्ञान में इसकी उपयोगिता एवं महत्व को स्वीकारा जाता है। व्यवहारवाद ने राजनीति विज्ञान को नई भाषा, नई शैली, नई अवधारणायें, नई पद्धतियाँ तथा नई तकनीकें दी हैं। डॉ. एस. पी. वर्मा के अनुसार “व्यवहारवादियों ने राजनीति विज्ञान में अनुसंधान के लिए नये क्षेत्रों को निकाला है और नई अध्ययन तकनीकों का विकास किया है।”

राजनीति विज्ञान पर व्यवहारवाद के प्रभाव अथवा उसकी उपयोगिता व महत्व को निम्नलिखित रूप में प्रकट किया जा सकता है-

१. नये राजनीति विज्ञान की स्थापना

व्यवहारवाद ने परम्परागत राजनीति विज्ञान की कमियों को उजागर करके उसके स्थान पर नये राजनीति विज्ञान की स्थापना की है। एक प्रकार से व्यवहारवाद ने परम्परागत राजनीति विज्ञान का पूर्ण कायाकल्प किया है। जहाँ परम्परावादी राजनीति विज्ञान में मूल्य प्रधान, आदर्शवादी तथा व्यक्तिनिष्ठ अध्ययन को महत्व दिया जाता था वहीं व्यवहारवाद ने आधुनिक राजनीति विज्ञान के अध्ययन को मूल्य निरपेक्ष, यथार्थवादी तथा वस्तुनिष्ठ बनाने की कोशिश की है।

२. राजनीति विज्ञान का वैज्ञानीकरण करने का प्रयत्न

व्यवहारवाद ने राजनीति विज्ञान के अध्ययन के लिए वैज्ञानिक पद्धति को अपनाने पर बल दिया। उसने राजनीति विज्ञान के अध्ययन के लिए सर्वेक्षण प्रणाली, प्रश्नावली प्रणाली, साक्षात्कार प्रणाली, सांख्यकीय प्रणाली आदि को अपनाया है।

३. विषयवस्तु में परिवर्तन

परमपरागत राजनीति विज्ञान में अध्ययन का केन्द्र बिन्दु राजनीतिक संस्थायें थीं। किन्तु व्यवहारवाद ने संस्थाओं के स्थान पर अध्ययन का केन्द्र बिन्दु मानव के राजनीतिक व्यवहार को स्वीकारा है, वे मानव के राजनीतिक व्यवहार को अपनी अध्ययन इकाई मानते हैं।

४. अन्तर-अनुशासनात्मक दृष्टिकोण की स्थापना

व्यवहारवाद ने राजनीति विज्ञान व अन्य सामाजिक विज्ञानों में घनिष्ठ संबंध को स्वीकारा है। उनके अनुसार एक अनुशासन को दूसरे अनुशासन की पद्धतियों, उपलब्धियों आदि को अपनाना चाहिये। उनकी इसी मान्यता को अन्तर अनुशासनात्मक दृष्टिकोण कहा जाता है। रॉबर्ट डहल ने व्यवहारवाद के इसी दृष्टिकोण को राजनीति विज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना है।

५. वैकल्पिक धारणायें

व्यवहारवाद ने राजनीति विज्ञान को अनेक वैकल्पिक धारणायें प्रदान की हैं जिनका राजनीतिक व्यवहार के अध्ययन में विशेष महत्व है – जैसे शक्ति, समूह, व्यवस्था, इच्छाशक्ति, मतदान व्यवहार तथा खोज सिद्धान्त आदि।

यद्यपि आज व्यवहारवाद का पतन हो चुका है किन्तु यह कहना उचित होगा कि इसने राजनीति विज्ञान के आधुनिकीकरण में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। व्यवहारवाद के अभाव में आधुनिक राजनीति विज्ञान का विकास सम्भव नहीं था। उत्तर व्यवहारवाद का श्रेय भी व्यवहारवादियों को ही दिया जा सकता है। एक प्रकार से व्यवहारवाद का अन्त होने के बावजूद वह उत्तर व्यवहारवाद के रूप में जीवित है।

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