# मृदा/मिट्टी संरक्षण एवं प्रबंधन (Soil Conservation and Management)

भूमि :

भूमि पृथ्वी का वह भाग है जिस पर हम निवास करते हैं पशु, पक्षी और सभी जीव जन्तु रहते हैं, जिस पर पेड़-पौधे और वनस्पति उगते हैं, जिसके अन्दर अनेक प्राकृतिक संसाधन (खनिज) भरे हैं। यह पूरी पृथ्वी का 3/10 भाग है और इसे स्थल मण्डल (Lithosphere) कहते हैं।

सामान्य भाषा में पृथ्वी के जिस ऊपरी पर्त पर हमारी दैनिक क्रियाएँ होती हैं वह भू-पटल कहलाता है, साधारण बोलने तथा समझने में हम भू-पटल को ही भूमि कह देते हैं, जबकि हमें अपने कार्यों में स्थलमंडल के लगभग सभी भागों की आवश्यकता होती है। पृथ्वी के खनिज, जो भू-पटल के बहुत नीचे हैं, खेती जिस मिट्टी पर होती है वह भी भू-पटल के नीचे है, भू-गर्भ जल और पानी के भण्डारों (महासागर, समुद्र, झीलें नदियाँ आदि) के नीचे के अंतिम भाग भूमि से ही जा मिलते हैं। अतः व्यापक रूप से भूमि एक ठोस पिंड है, जो अनेक चट्टानों से मिलकर बना है और जिसके ऊपरी भाग में अपेक्षाकृत कम कठोर भाग मिट्टी और अंदर के भाग में खनिजों के संग्रह चट्टानें और अधिक तापमान के कारण पिघले पदार्थ हैं। पर्यावरण की दृष्टि से हमारी चर्चा इस पूरे भू-भाग से है।

भूमि एवं मृदा/मिट्टी (Land and Soil) :

पृथ्वी की सतह के पानी रहित ठोस भाग, जिस पर किसी भी कार्य का निष्पादन किया जा सकता है, उसे भूमि कहते हैं। जबकि मृदा (मिट्टी) भूमि का वह ऊपरी सतह, है जिसमें खनिज व अन्य आर्गेनिक पदार्थ मिले होते हैं और जिस पर पेड़-पौधे उग सकते हैं या उगाए जा सकते हैं।

भूमि के नष्ट अथवा दूषित होने के कारण :

भूमि का नष्ट अथवा दूषित होना निम्नलिखित दो कारणों से होता है –

  • 1. भूमि क्षरण
  • 2. भूमि- प्रदूषण

1. भूमि क्षरण (Soil Erosion)

तेज वर्षा, आँधी तथा तूफान से मिट्टी की ऊपरी सतह कुछ ही दिनों में बह जाती है अथवा उड़ जाती है, जबकि इसके बनने में बहुत अधिक समय लगता है। अतः मिट्टी की रक्षा करना बहुत आवश्यक है।

भूमि क्षरण जल और हवा दोनों से होता है।

A. जल द्वारा भूमि क्षरण

जहाँ वनस्पति क्षेत्र विरल तथा अपर्याप्त होता है और आस-पास भी सघन पेड़ नहीं होते, वहाँ की भूमि की मिट्टी की सतह धीरे-धीरे क्षय होती जाती है। भूमि की मिट्टी में कटाव होता है और वर्षा जल बहने के साथ ही मिट्टी भी बह जाती है। यदि तेज वर्षा होती है तो यह कटाव और भूमि क्षय शीघ्र तथा अधिक होता है।

बचाव – जल द्वारा भूमि क्षरण को रोकने के निम्न उपाय हो सकते हैं –

1. भूमि की जुताई पानी की व्यवस्था के लम्बवत् करने से मिट्टी का कटाव और भूमि-क्षरण कम हो जाता है।

2. खेतों के आस-पास घने वृक्ष लगाए जाएँ क्योंकि वर्षा की तेज बूँदों को वृक्ष अपने ऊपर लेकर बूँदों की तेजी को कम करता है तथा फिर पानी को मिट्टी में धीमे-धीमे जाने देता है।

3. खेतों अथवा भूमि भाग के ऊपरी हिस्सों में, जहाँ से वर्षा के पानी की आवक है, छोटे-छोटे एनीकट बनाए जाएँ जिससे कि पानी उस एनीकट में रूक जाए तथा बाद में इस जल का पुनः उपयोग हो सके।

B. वायु द्वारा भूमि क्षरण

वायु के तेज प्रवाह से भी भूमि-क्षरण होता है। तेज हवा अपने साथ मिट्टी के छोटे-छोटे कणों को भूमि से उठाकर बहुत दूर ले जाती है तथा वहाँ से पुनः वायु वेग के साथ यह मिट्टी कण एक तूफान के रूप में बहुत दूर उड़ जाते हैं जिससे भूमि का क्षरण हो जाता है।

बचाव – वायु द्वारा भूमि क्षरण से बचाव के निम्न उपाय हैं –

1. वायु के प्रवाह के विरूद्ध रक्षा पेटियों की व्यवस्था करना।

2. वायु की नमी बनाए रखना, जिससे मिट्टी सहज ही उड़ने न पाए।

3. खेतों के आस-पास सघन वृक्ष लगाकर।

2. भूमि प्रदूषण

भूमि के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों में ऐसा कोई भी अवांछित परिवर्तन जिसका प्रभाव मनुष्य तथा अन्य जीवों पर पड़े अथवा भूमि की प्राकृतिक गुणवत्ता तथा उपयोगिता नष्ट हो, भूमि प्रदूषण कहलाता है।

वर्तमान समय में उत्पादन बढ़ाने के लिए खेतों में रासायनिक खादों, कीटनाशक, रोगनाशी एवं कवकनाशक रसायनों का प्रयोग दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है, जिससे भूमि में हानिकारक तत्वों की मात्रा बढ़ने से भूमि प्रदूषित हो रही है। उदाहरण के लिए अमोनियम सल्फेट उर्वरक का खेतों में लगातार प्रयोग करने से भूमि में अम्ल की मात्रा बढ़ जाती है। डी. डी. टी. अथवा बी. एच. सी. जैसे हानिकारक कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग से भूमि में इन रसायनों का अंश कई वर्षों तक रहता है, जिससे मृदा प्रदूषित होने के साथ ही इन कीटनाशकों का अंश अनाजों में आने से मानव में नए-नए रोग व बीमारियाँ फैल रही हैं, जो मानव समाज के लिए अभिशाप है।

बचाव – भूमि प्रदूषण बचाव के निम्न उपाय है –

1. भूमि क्षरण को नियन्त्रण करने के उपाय किए जाए।

2. कृषि में रासायनिक खादों तथा कीटनाशकों का उपयोग कम से कम किया जाए।

3. रासायनिक खादों के स्थान पर जैविक खाद भू-परिष्करण इत्यादि को प्राथमिकता दी जाए।

4. डी.डी.टी. तथा बी. एच. सी का उपयोग कम से कम किया जाए। भारत सरकार द्वारा अनाजों साग-सब्जियों आदि में डी.डी.टी., बी.एच.सी. जैसे रसायनों का प्रयोग नहीं करने की सिफारिश की गई है।

5. नगरीय तथा औद्योगिक अपशिष्ट को समुचित उपचार के बाद ही प्रवाहित किया जाए।

6. समुचित भूमि का उपयोग फसल प्रबंधन के अनुसार किया जाए।

7. किसानों को भूमि – प्रदूषण की जानकारी भी देनी चाहिए, जिससे वे रासायनिक पदार्थों का उपयोग कृषि में सावधानी से करें।

मृदा संरक्षण (Soil Conservation) :

मृदा के संरक्षण के विभिन्न विधियों को दो भागों में विभक्त किया गया है:-

  • A. जैविक विधियाँ
  • B. यान्त्रिक विधियाँ।

A. जैविक विधियाँ

ये विधियाँ निम्नलिखित प्रकार की हो सकती है –

1. सस्यावर्तन

मृदा संरक्षण का यह एक महत्वपूर्ण उपाय है। प्रत्येक वर्ष यदि मृदा में एक ही प्रकार की फसल उगाई जाए, तो मृदा की उर्वरा शक्ति समाप्त होने लगती है। अतः आवश्यक है कि मृदा की उर्वरा शक्ति बनाए रखने के लिए प्रत्येक वर्ष फसलों में परिवर्तन किया जाए। इसे सस्यावर्तन या फसल चक्र कहते हैं। जैसे एक बार मृदा में गेहूँ, कपास, मक्का, आलू आदि के बाद दूसरी फसल लेग्यूमिनोसी कुल (दलहन) के पौधों की होनी चाहिए। इन पौधों की जड़ों में गाँठे पाई जाती है जिससे उसमें उपस्थित जीवाणु द्वारा वायुमण्डल के नाइट्रोजन का यौगिकीकरण होता है। इससे मृदा की उर्वरा शक्ति बनी रहती है।

2. मल्व बनाना (Mulching)

फसल काटने के पश्चात् पौधों के ठूंठ मिट्टी के अन्दर रह जाती है, जो एक संरक्षक परत की भाँति कार्य करते हैं। इस कारण हवा तथा जल द्वारा होने वाला मृदा अपरदन रूक जाता है तथा वाष्पन कम होने के कारण मिट्टी में जल की अधिक मात्रा एकत्रित रहती है।

3. कण्टूर कृषि (Contour Cropping)

इस प्रकार की कृषि पहाड़ों की ढलानों पर अधिक उपयोगी है। खेतों में या ढलान वाले क्षेत्रों में खाँचे तथा कटक (ridges) बनाए जाते हैं, जिससे पानी, इसमें रुक जाता है तथा मृदा का अपरदन नहीं होता है।

4. पट्टीदार खेती (Strip cropping)

यह कई प्रकार की होती है। इसमें खेत को पट्टियों में विभाजित कर दिया जाता है। प्रत्येक पट्टी पर बड़े पौधों के बीच के स्थान में छोटे पौधों वाली फसल गेहूँ, उड़द आदि बोई जाती है। इस प्रकार की फसलें बोने से मिट्टी दृढ़ता से बंधी रहती है। इससे वायु एवं जल द्वारा होने वाला अपरदन रुक जाता है।

5. घास उगाना (Growing of grass)

जिन स्थानों पर मृदा अपरदन के कारण शीर्ष मृदा हट गई है। वहाँ पर विभिन्न प्रकार की घासें उगाई जाती हैं। ये मृदा कणों को बाँधती तथा उनमें दृढ़ता प्रदान करती हैं। इससे वर्षा के दिनों में जल द्वारा मृदा अपरदन रुक जाता है।

6. ड्राई खेती (Dry farming)

जिन क्षेत्रों में वर्षा बहुत कम होती है उसमें बहुत कम फसले ही उग पाती हैं। अतः इन स्थानों पर पशुओं को चरने के लिए घास उगाई जाती है जिससे मृदा का अपरदन नहीं हो पाता है।

7. अत्यधिक पशुचरण पर नियंत्रण

अत्यधिक पशुचरण से मृदा की अपरदन की अत्यधिक सम्भावना रहती है। इसलिए नियन्त्रित पशुचरण ही भूमि पर करना चाहिए, जिससे मृदा का अपरदन रोका जा सके।

# चरने पर नियंत्रण के कारण अच्छी फसल तथा मृदा अपरदन कम होना।

# चरने पर नियन्त्रण नहीं होने पर खराब फसल तथा मृदा अपरदन अधिक होना।

8. वनारोपण (Afforestation)

जंगली वृक्षों का रोपण वनारोपण कहलाता हैं। शुरु में वृक्षों की वृद्धि धीमी रहती है परन्तु कुछ समय बाद इनकी वृद्धि तथा विकास में तेजी आने पर ये मृदा अपरदन को रोकने में सहायक होते हैं। इन वृक्षों की पत्तियाँ भूमि पर गिरती हैं जिससे ह्यूमस बनता हैं तथा भूमि की उर्वरा शक्ति भी बढ़ जाती हैं। इन वृक्षों के नीचे अनेक शाकीय वनस्पतियाँ भी उगाई जा सकती हैं। यह मिट्टी के कणों को बाँधने में सहायक होती है तथा मृदा अपरदन रुकता है।

B. यान्त्रिक विधियाँ (Mechanical Methods)

मृदा अपरदन को रोकने के लिये मुख्य यान्त्रिक विधियाँ निम्न है –

1. वैदिका लगाना (Contour terracing)

पहाड़ों पर ढलान वाले क्षेत्रों में छोटे-छोटे बाँध बना दिए जाते हैं तथा खेतों को बेंचनुमा क्षेत्रों में विभक्त किया जाता है जिसे वेदिका कहते हैं। इससे जल प्रवाह की गति कम हो जाती है तथा मृदा अपरदन रुक जाता है।

2. बाँध बनाना (Building of dams)

नदियों में बाढ़ को नियन्त्रित करने के लिए बाँध बनाए जाते हैं। इससे वर्षा का पानी एकत्रित कर लिया जाता है, जिसका उपयोग सिंचाई तथा विद्युत उत्पादन में किया जाता है। बाँध बनाने से मृदा अपरदन एवं भूमि कटाव में कमी आती है।

जैव उर्वरकों एवं जैव कीटनाशकों का उपयोगः-

जैव उर्वरक वास्तव में उर्वरक (जैव यूरिया, सुपर फास्फेट) नहीं है। ये सूक्ष्म जीवाणु होते हैं जो वातावरण से नाइट्रोजन स्थिर करके भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाते हैं। ये रासायनिक उर्वरक के विकल्प हो सकते हैं तथा पर्यावरण की दृष्टि से भी सुरक्षित माने जाते हैं। राइजोबिया का प्रभाव पौधों की वृद्धि पर अच्छा पाया गया है।

माइक्रोराइजा से पोषित पौधे विपरीत परिस्थितियों को सहने में अधिक सूक्ष्म होते हैं। भूमि से स्थिर तत्वों जैसे- फास्फोरस की कमी वाले भूमि में इसका उपयोग लाभदायी पाया गया है।

इसी प्रकार जैव कीटनाशकों का प्रयोग भी रासायनिक कीटनाशकों (डी. डी. टी., बी. एच. सी.) के स्थान पर किया जा रहा है। इससे मृदा एवं जल प्रदूषित नहीं होता है। भविष्य में जैव उर्वरकों एवं जैव कीटनाशकों के उपयोग की प्रबल सम्भावनाएँ है जिससे रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशकों का उपयोग कम किया जा सके।

वर्तमान समय में गोबर मल, जैविक अवशेष, गंदा पानी, नगरीय तथा शहरों के कूड़े-कचरे से जैविक उर्वरक तैयार किए जाते हैं। इससे नगरों तथा शहरों को कचरों से भी मुक्ति मिल जाती है।

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