# पैरेटो की सामाजिक क्रिया की अवधारणा | Social Action Theory of Vilfred Pareto

सामाजिक क्रिया सिद्धान्त प्रमुख रूप से एक प्रकार्यात्मक सिद्धान्त है। सर्वप्रथम विल्फ्रेडो पैरेटो ने सामाजिक क्रिया सिद्धान्त की रूपरेखा प्रस्तुत की। बाद में मैक्स वेबर ने सामाजिक क्रिया सिद्धान्त को आदर्श-प्रारुप (Ideal type) के रूप में प्रस्तुत किया। तत्पश्चात् टालकट पारसन्स ने सामाजिक क्रिया सिद्धान्त को विश्लेषणात्मक ढंग से विकसित किया। बाद में उन्होंने सामाजिक क्रिया सिद्धान्त को सामाजिक व्यवस्था सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत किया।

विल्फ्रेड पैरेटो की सामाजिक क्रिया की अवधारणा/सिद्धान्त :

पैरेटो ने अपने वैज्ञानिक समाजशास्त्र की अवधारणा में चार प्रमुख धारणाओं को सम्मिलित किया है जो व्यवस्था के आन्तरिक तत्व के रूप में समझे जाते हैं। इन चार धारणाओं में तार्किक क्रिया (Logical Action), अतार्किक क्रिया (Non-Logical Action), विशिष्ट चालक (Residues), भाँति तर्क (Derivations) प्रमुख हैं। पैरेटो अपने सामाजिक क्रिया की अवधारणा में इनमें से तार्किक एवं अतार्किक दो प्रकार की क्रियाओं का उल्लेख किया है। उनका मत है कि अतार्किक व्यवहार विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।

पैरेटो के अनुसार तार्किक क्रियाओं का आधार वैषयिक (Objective); जबकि अतार्किक क्रियाओं का आधार प्रातीतिक (Subjective) होता है। पैरेटो प्रत्येक व्यक्तिगत एवं सामाजिक क्रिया के दो आधार मानते हैं- लक्ष्य और साधन। प्रत्येक लक्ष्य की पूर्ति के लिए कुछ साधन अपनाये जाते हैं। तार्किक क्रिया में कर्त्ता लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए ऐसे साधन अपनाता है जो अनुभव सिद्ध (Empirical) एवं तर्क की कसौटी पर खरे उतरते हों। तार्किक क्रिया में लक्ष्य एवं साधन में सामंजस्य पाया जाता है। ऐसे तार्किक कार्यों को ही वैषयिक कार्य कहते हैं। इसके विपरीत अतार्किक क्रिया में लक्ष्य और साधन के बीच सामंजस्य नहीं पाया जाता और न ही उन्हें तर्क के आधार पर प्रमाणित किया जा सकता है। अतार्किक क्रियाएँ प्रातीतिक (Subjective) होती हैं, उनमें भावना का अंश होता है। तार्किक प्रयोग विज्ञान के क्षेत्र में किया जाता है। अतार्किक क्रियाएँ कल्पना और अनुमान पर आधारित होती हैं, उनमें लक्ष्य व साधन में तालमेल नहीं होता। मानव क्रियाएँ तार्किक एवं अतार्किक दोनों ही हो सकती हैं।

तार्किक एवं अतार्किक क्रिया के सम्बन्ध में मानव के सामने अग्र तीन प्रकार की समस्याएँ आती हैं।

1. लक्ष्य व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों ही हो सकते हैं। लक्ष्यों के ज्ञान के अभाव में साधन को तार्किक एवं अतार्किक समझना एक कठिन कार्य है।

2. जब लक्ष्य का सम्बन्ध पारलौकिक हो तब तो यह जानना और भी कठिन होता है कि लक्ष्य व साधन के बीच उचित सम्बन्ध है या नहीं।

3. उचित और अनुचित कार्यों का पता लगाना भी एक कठिन कार्य है क्योंकि एक कार्य जो एक के लिए उचित है वही दूसरे के लिए अनुचित हो सकता है।

         इन कठिनाइयों के कारण ही मानव समाज में अतार्किक क्रियाओं की प्रधानता रही है और समाज का अस्तित्व भी उसी पर निर्भर करता है। मानव अतार्किक क्रियाएँ क्यों करता है, इसके पैरेटो ने कुछ कारक बताइये हैं, वे इस प्रकार से हैं- मूल प्रवृत्तियाँ (Instincts), चालक (Residues), स्वार्थ (Interests), मनोभाव (Sentiments) और भ्रान्त तर्क (Derivation), आदि, किन्तु इन सब में आप चालकों और भ्रान्त तर्क को अधिक महत्व देते हैं। चालक अपेक्षतया स्थायी व्यवहार को जन्म देते हैं। मूल प्रवृत्तियाँ एवं भावनाएँ भी चालक के ही विशेष स्वरूप हैं। चालकों के माध्यम से मूल प्रवृत्तियों एवं भावनाओं की अभिव्यक्ति होती है। भ्रान्त तर्क के द्वारा व्यक्ति अपनी क्रियाओं के औचित्य को सिद्ध करके और अपने व्यवहार के असली प्रयोजन को छुपाने का प्रयास करता है।

तार्किक एवं अतार्किक आधार पर ही पैरेटो ने सामाजिक घटनाओं को दो भागों में बाँटा है- (i) जैसी घटना वह वास्तव में है, इसे वह वैषयिक (Objective) या वैज्ञानिक कहता है। (ii) जैसी वह व्यक्ति के मस्तिष्क में अंकित है, इसे वह प्रातीतिक (Subjective) कहता है। अतार्किक क्रियाओं का प्रमुख स्रोत व्यक्ति की मनोदशा ही है। पैरेटो के सामाजिक क्रिया के सिद्धान्तीकरण में अतार्किक क्रियाएँ समाजशास्त्रीय एवं मनोवैज्ञानिक दोनों हैं।

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