सन् 1850 में हरबर्ट स्पेन्सर की प्रथम पुस्तक ‘सोशल स्टेटिक्स‘ (Social Statics) प्रकाशित हुई जिसमें सामाजिक उद्विकास के विचारों का प्रतिपादन किया गया। इसके पश्चात् सन् 1858 में स्पेन्सर ने ‘सिन्थेटिक फिलोसफी‘ (Synthetic Philosophy) नामक एक योजना प्रकाशित की, इसमें उन्होंने उद्विकास की सार्वभौमिकता को महत्व प्रदान किया।
सर्वप्रथम चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin) ने अपनी पुस्तक ‘ओरिजिन ऑफ स्पेशीज (Origin of Species) सन् 1859 में जीवों की उत्पत्ति का उद्विकास सिद्धान्त प्रस्तुत किया। उद्विकास सिद्धान्त के अनुसार जीवों का विकास सरलता से जटिलता की ओर तथा समानता से भिन्नता की ओर हुआ है। डार्विन ने अपनी दूसरी पुस्तक ‘दि डिसेण्ट ऑफ मैन‘ (The Descent of Man) सन् 1871 में मानव के उद्विकास के आधारों को समझाया।
सामाजिक डार्विनवाद :
समाजशास्त्रियों, मानवशास्त्रियों तथा अन्य विद्वानों ने इस सिद्धान्त के आधार पर समाज एवं संस्कृति के विकास को समझने का प्रयास किया। हरबर्ट स्पेन्सर का मत है कि जिस प्रकार प्राणिशास्त्रीय शरीर का उद्विकास कुछ निश्चित नियमों अंतर्गत होता है, उसी प्रकार समाज एवं संस्कृति का भी विकास हुआ है। उनका स्पष्ट मत है कि मानव समाज में भी डार्विन का प्राकृतिक प्रवरण (Natural Selection) का सिद्धान्त लागू होता है तथा सभी समाज उद्विकासीय प्रक्रिया से गुजरते हैं। उन्होंने ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ (Survival of the Fittest) की अवधारणा को मानव समाज पर लागू किया।
प्राकृतिक प्रवरण के सिद्धान्त के अनुसार समाज में निरन्तर संघर्ष होता रहता है और इस संघर्ष में वहीं व्यक्ति जीवित रहते हैं जो बलशाली एवं योग्य होते हैं तथा अनुकूलन कर लेते हैं। यही सिद्धान्त सामाजिक संरचना एवं सामाजिक संस्थाओं पर भी लागू होता है। इनमें परिवर्तन की उद्विकासीय प्रवृत्ति होती है, जो समाज अपने पर्यावरण के अनुरूप अनुकूलन कर लेते हैं। वे जीवित रहते हैं और जो समाज ऐसा अनुकूलन नहीं कर पाते, वे नष्ट हो जाते हैं।
अतः स्पष्ट है कि डार्विन ने प्राणिशास्त्रीय उद्विकास सिद्धान्त के आधार पर स्पेन्सर ने समाज एवं सामाजिक उद्विकास का विश्लेषण प्रस्तुत किया। इन दोनों सिद्धान्तों में समानता होने के कारण स्पेन्सर का सामाजिक उद्विकास का सिद्धान्त ‘सामाजिक डार्विनवाद’ के नाम से जाना जाता है।
डार्विन का उद्विकास का सिद्धान्त :
चार्ल्स डार्विन का प्राणिशास्त्रीय उद्विकास का सिद्धान्त विश्व में अत्यन्त लोकप्रिय है। उन्होंने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन अपनी दो पुस्तकों ‘ओरिजिन ऑफ स्पेशीज’, सन् 1859 तथा ‘दि डिसेण्ट ऑफ मैन’, 1871 में किया। इस सिद्धान्त का प्रयोग विभिन्न विज्ञानों, साहित्य, कला, दर्शन, इतिहास, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र, राजनीतिशास्त्र आदि सभी में किया जाने लगा है। उद्विकास के सिद्धान्त के आधार पर किसी विषय के आकस्मिक स्वरूपों तक उसके विकास के विभिन्न चरणों को समझा जा सकता है। डार्विन के सिद्धान्त की प्रमुख मान्यताएँ निम्नलिखित हैं-
1. सरलता से स्पष्टता और पृथकता की ओर
डार्विन के अनुसार प्रारम्भ में प्रत्येक जीवित वस्तु का रूप सरल एवं समान होता है। उसके विभिन्न अंग इस प्रकार एक साथ घुले-मिले होते हैं कि उन्हें पृथक् नहीं किया जा सकता है। उनका कोई निश्चित स्वरूप भी नहीं होता है। उद्विकास की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप उसके अंगों की भिन्नताएँ स्पष्ट होने लगती हैं और उनका स्वरूप भी निश्चित होने लगता है। उदाहरण के लिए स्त्री के गर्भ में प्रारम्भ में बालक का रूप बहुत सरल होता है। उसके सभी अंग परस्पर इतने घुले-मिले होते हैं कि उनको पृथक नहीं किया जा सकता है। लेकिन कुछ ही महीनों में उसके विभिन्न अंग; जैसे- हाथ, पैर, नाक, कान, आँख, मुँह आदि पृथक् होकर स्पष्ट हो जाते हैं और उनमें भिन्नता आ जाती है।
2. विभिन्न अंगों का विशेष कार्य
जब जीवित वस्तु के विभिन्न अंगों का विकास हो जाता है तो वे पृथक्-पृथक् रूप में अपना-अपना कार्य करने लगते हैं। एक अंग किसी दूसरे अंग का कार्य नहीं कर सकता है। उदाहरण- आँख देखने का कार्य करती है, पैर चलने का कार्य करते हैं, कान सुनने का कार्य करते हैं। लेकिन आँख का कार्य कान द्वारा, कान का कार्य मुँह द्वारा अथवा मुँह का कार्य आँख द्वारा कदापि नहीं किया जा सकता है।
3. विभिन्न अंगों में अन्तःसम्बन्ध एवं अन्तः निर्भरता
विभिन्न अंगों के पृथक् पृथक् कार्य होने का अर्थ यह नहीं है कि उनका परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है। वास्तव में उनमें अन्तःसम्बन्ध और अन्तः निर्भरता बनी रहती है। उदाहरण के लिए मस्तिष्क के प्रभावित होने से दूसरे सभी अंग भी प्रभावित हो जाते हैं।
4. क्रमिक प्रक्रिया
उद्विकास की प्रक्रिया में निरन्तरता का गुण पाया जाता है। जीवित वस्तु में मन्द गति से विकास होता रहता है। उसमें कब कौन-सा परिवर्तन हो रहा हैं, यह निश्चित रूप से नहीं बताया जा सकता है। उदाहरण के लिए, माता-पिता के सामने ही बच्चों में परिवर्तन होता रहता है, लेकिन इस परिवर्तन को देख पाना सम्भव नहीं होता है।
5. निश्चित स्तर
उद्विकास की प्रक्रिया कुछ निश्चित स्तरों से गुजर कर किसी सरल वस्तु को जटिल रूप दे देती है। उदाहरण के लिए, पहले बच्चा जन्म लेता है, फिर बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था के विभिन्न स्तरों से गुजर कर मृत्यु का आलिंगन करता है।
हरबर्ट स्पेन्सर का सामाजिक उद्विकास (डार्विनवाद) का सिद्धान्त :
हरबर्ट स्पेन्सर का सामाजिक उद्विकास का सिद्धान्त डार्विन के प्राणिशास्त्रीय उद्विकास के सिद्धान्त पर आधारित है। स्पेन्सर के अनुसार, प्राणिशास्त्रीय उद्विकास के नियम समाज एवं संस्कृति पर भी लागू होते हैं। सामाजिक उद्विकास के सिद्धान्त को निम्नलिखित मान्यताओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है-
1. सरलता से स्पष्टता और पृथकता की ओर
प्रारम्भिक अवस्था में आदिम समाज का रूप अत्यन्त सादा और सरल था। उसके विभिन्न अंग इतने घुले-मिले थे कि उन्हें पृथक् नहीं किया जा सकता था। व्यक्ति का क्षेत्र अपने परिवार तक ही सीमित था। परिवार की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा अन्य सभी प्रकार के कार्यों को सम्पन्न करता था। व्यक्तियों के विचारों में बहुत समानता थी, क्योंकि उनके कार्य और पेशे एक-से होते थे। लेकिन कुछ समय पश्चात् मनुष्य की इस अवस्था में परिवर्तन हुआ। धीरे-धीरे व्यक्तियों के अनुभवों, विचारों और ज्ञान में उन्नति होती गई और उन्होंने सहयोग के आधार पर मिल-जुलकर कार्य करना प्रारम्भ कर दिया। इसके परिणामस्वरूप सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन के विभिन्न अंग पृथक् होकर स्पष्ट होते गये। उदाहरण के लिए, परिवार, समुदाय, राज्य, समितियाँ, धार्मिक संस्थाएँ, स्कूल, ग्राम, करबा, नगर, श्रमिक संघ आदि का रूप निर्धारण मनुष्य की अवस्था में विकास का ही परिणाम है।
2. विभिन्न अंगों का विशेष कार्य
सामाजिक उद्विकास की प्रक्रिया में सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन के विभिन्न अंग जैसे-जैसे स्पष्ट रूप लेते जाते हैं, वैसे-वैसे वे अपने-अपने विशेष प्रकार के कार्य करने लगते हैं। परिणामस्वरूप समाज में श्रम विभाजन और विशेषीकरण की स्थिति आ जाती है। इस स्थिति में परिवार, राज्य, शिक्षण संस्थाएँ, धार्मिक संस्थाएँ, कारखाने, श्रमिक संगठन आदि पृथक्-पृथक् कार्यों को करते हैं।
3. विभिन्न अंगों में अन्तःसम्बन्ध एवं अन्तः निर्भरता
श्रम विभाजन और विशेषीकरण के कारण विभिन्न अंग पृथक् रूप से कार्य करते हैं। परन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि उनका एक-दूसरे से कोई सम्बन्ध नहीं है। विभिन्न अंगों के बीच कुछ निश्चित अन्तःसम्बन्ध और अन्तःनिर्भरता सदैव बनी रहती है। उदाहरण के लिए, परिवार राज्य से सम्बन्धित और उस पर निर्भर है लेकिन इसके विपरीत राज्य भी परिवारों से सम्बन्धित तथा उन पर निर्भर है।
4. क्रमिक प्रक्रिया
सामाजिक उद्विकास की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। इस निरन्तरता के परिणामस्वरूप धीरे-धीरे अनेक वर्षों तक एक पूर्ण समाज का निर्माण होता रहता है।
5. निश्चित स्तर
सामाजिक उद्विकास की प्रक्रिया कुछ निश्चित स्तरों से होकर गुजरती है जिसके कारण धीरे-धीरे एक सरल समाज जटिल समाज में बदल जाता है। आर्थिक जीवन के प्रारम्भ में प्रचलित विनिमय प्रणाली धीरे-धीरे आज अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का रूप धारण कर चुकी है। शिकारी अवस्था के अत्यन्त सरल और साधारण स्वरूप से प्रारम्भ करके समाज क्रमशः पशुपालन अवस्था और कृषि अवस्था से गुजरता हुआ आधुनिक जटिल औद्योगिक स्वरूप धारण कर चुका है। प्रारम्भ में व्यक्ति का जीवन परिवार तक ही सीमित था परन्तु अब अन्तर्राष्ट्रीय बन गया है।
सामाजिक डार्विनवाद या सामाजिक उद्विकास के सिद्धान्त की वास्तविकता अथवा आलोचना :
यद्यपि सामाजिक उद्विकास के सिद्धान्त के प्रवर्तकों एवं समर्थकों ने इस सिद्धान्त को क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया है, लेकिन उनके द्वारा कुछ आधारभूत सत्यों की अवहेलना हुई है। इसी कारण उनके विश्लेषण को अधिकतर विद्वान् स्वीकार नहीं करते हैं। सामाजिक उद्विकास के सिद्धान्त की वास्तविकता अथवा आलोचना को निम्नलिखित आधारों पर स्पष्ट किया जा सकता है-
1. एक ही नियम स्वीकार्य नहीं
सामाजिक उद्विकास के सिद्धान्त की प्रमुख दुर्बलता यह है कि इस सिद्धान्त के प्रवर्तकों का यह दृढ़ मत है कि सभी समाजों में विकास का एक ही नियम क्रियाशील होता है। वास्तव में प्रत्येक समाज की पृथक्-पृथक् संरचना होती है। उनकी परिस्थितियों में भी भिन्नता पाई जाती है। विभिन्न सामाजिक संरचना तथा परिस्थितियों की भिन्नता का प्रभाव सामाजिक विकास की प्रक्रियाओं पर पड़ना स्वाभाविक है। अतः इस सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि विभिन्न समाजों की परिस्थितियों में भिन्नता होते हुए भी उद्विकासीय प्रक्रिया में एकरूपता बनी रहती है।
2. स्तरों का एक ही क्रम आवश्यक नहीं
इस सिद्धान्त के प्रवर्तकों का मत है कि सभी समाजों में सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास के विभिन्न स्तर एक ही क्रम से आये हैं। यदि इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया जाये तो विभिन्न प्रकार के समाजों में कोई भिन्नता नहीं होनी चाहिए। लेकिन विभिन्न समाजों में महान अन्तर दिखाई देता है। इसके अतिरिक्त आज भी अनेक ऐसी जनजातियाँ हैं जिनमें शिकारी अवस्था, पशुपालन अवस्था और कृषि अवस्था तीनों साथ-साथ चल रही हैं। इसके साथ ही उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका में कुछ ऐसी जनजातियाँ हैं जो पशुपालन स्तर में प्रवेश किये बिना ही कृषि स्तर में पहुँच गईं।
3. बाह्य कारकों के महत्व की अवहेलना
हरबर्ट स्पेन्सर एवं अन्य उद्विकासवादियों का मत है कि जिस प्रकार प्राणियों का उद्विकास होता है, उसी प्रकार सामाजिक उद्विकास भी होता है। लेकिन यह मत ठीक नहीं है। प्राणियों की आन्तरिक शक्ति और समाज की आन्तरिक शक्ति में महान अन्तर है। सामाजिक उद्विकास के लिए बाह्य कारकों के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। यह कहना उचित नहीं है कि समाज का उद्विकास केवल आन्तरिक शक्तियों के कारण ही होता है। सामाजिक उद्विकास में व्यक्ति का अपना प्रयत्न महत्वपूर्ण है। इसके विपरीत उद्विकास में प्राकृतिक शक्तियाँ ही सब कुछ हैं।
4. प्रसार के सिद्धान्त की अवहेलना
उद्विकास का सिद्धान्त इस तथ्य की अवहेलना करता है कि संस्कृति का एक स्थान से दूसरे स्थान को प्रसार होता है। गोल्डनवीजर (Goldenweiser) का मत है कि संस्कृति में होने वाले प्रसार और परिवर्तन के कारण समाज में परिवर्तन होता है। इसलिए समाज में होने वाले परिवर्तनों को उद्विकासीय सिद्धान्त के द्वारा स्पष्ट नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, जब एक संस्कृति को मानने वाले मानव समूह दूसरी संस्कृति के सम्पर्क में आते हैं, तब सांस्कृतिक आदान-प्रदान बढ़ता है। इसके परिणामस्वरूप संस्कृतियों का विकास होता है।
5. आविष्कारों के महत्व की अवहेलना
उद्विकास सिद्धान्त के प्रवर्तकों ने अपने सिद्धान्त में आविष्कारों को कोई महत्व नहीं दिया है। समाज में होने वाले आविष्कार व्यक्तियों की मानसिक योग्यता एवं सांस्कृतिक तत्वों के प्रतीक होते हैं। वास्तव में सामाजिक उद्विकास स्वतः कम होता है। आविष्कारों के परिणामस्वरूप ही उद्विकास की प्रक्रिया को गति मिलती है। नवीन आविष्कार व्यक्तियों के सामाजिक जीवन एवं सम्बन्धों को विशेष रूप से प्रभावित करते हैं। इससे सामाजिक उद्विकास प्रभावित होता है।
6. सरलता से जटिलता आवश्यक नहीं
मौरिस जिन्सबर्ग का मत है कि “यह धारणा कि उद्विकास एक सरल स्थिति से जटिल स्थिति की ओर होने वाला परिवर्तन है, एक गम्भीर विवाद का विषय है।” अतः उद्विकास केवल जटिलता के लिए होता है, यह कहना उपयुक्त नहीं है। वास्तव में सामाजिक जीवन प्रत्येक परिवर्तन के साथ अनिवार्य रूप से जटिलता की ओर नहीं बढ़ता है।
मूल्यांकन (Evaluation)
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि समाज उद्विकास का फल है। इसकी उत्पत्ति किसी विशेष समय पर नहीं हुई। समाज का प्रारम्भिक रूप अत्यन्त सरल था और इसके विभिन्न अंग परस्पर घुले-मिले थे। उद्विकासीय प्रक्रिया के कारण समाज के विभिन्न अंग स्पष्ट और पृथक् होते गये। इससे समाज में श्रम विभाजन और विशेषीकरण प्रारम्भ हुआ। कार्यों की भिन्नता होने पर भी विभिन्न अंगों में समन्वय बना रहा। भिन्नता एवं समन्वय की क्रियाशीलता के कारण ही समाज का अस्तित्व सम्भव है।
यद्यपि इस सिद्धान्त में अनेक असंगतियाँ एवं दुर्बलताएँ हैं, लेकिन फिर भी उसे पूर्ण रूप से ठुकराया नहीं जा सकता है। इसका कारण यह है कि इस सिद्धान्त के माध्यम से समाज के विस्तृत इतिहास को समझने में सहायता मिलती है। उद्विकासवादी सिद्धान्त को किसी-न-किसी रूप में कार्ल मार्क्स, इमाइल दुर्खीम, फ्रेडरिक ऐंजिल्स, पारसन्स, गोरडन चाइल्ड आदि विद्वानों ने भी स्वीकार किया है।