# मूल्यों का समाजशास्त्र (मूल्यों की अवधारणा) : डॉ. राधाकमल मुकर्जी | Mulyon Ka Samajshastra

मूल्यों का समाजशास्त्र :

डॉ. राधाकमल मुकर्जी अपने मूल्य सिद्धान्त के कारण भारत में ही नहीं अपितु संसार के समाजशास्त्रियों में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाये हुए हैं। बोगार्ड्स ने इसीलिए डॉ. राधाकमल मुकर्जी को पूर्वी देशों का समाजशास्त्री और सामाजिक-दार्शनिक कहकर सम्बोधित किया है। डॉ. राधाकमल मुकर्जी ने अपनी विचारधारा में पौरवात्य और पाश्चात्य विचारधारा का सर्वोत्तम समन्वय किया है। अपने मूल्य सिद्धान्त के द्वारा सामाजिक विचारधारा के क्षेत्र में डॉ. मुकर्जी अन्य विद्वानों से काफी आगे निकल गये हैं।

मूल्यों की अवधारणा :

सामाजिक मूल्यों के क्षेत्र में अन्य समकालीन विचारकों की तुलना में डॉ. राधाकमल मुकर्जी का योगदान अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है। इसका कारण यह है कि डॉ. राधाकमल मुकर्जी ने अत्यन्त ही विस्तृत और विलक्षण रूप में मूल्यों की अवधारणा को स्पष्ट किया है। उनकी मौलिक विशेषता यह है कि मूल्यों को उन्होंने रहस्यवादी आधार पर प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। उनका विश्वास है कि रहस्यवाद ही वह शक्ति है जिसके द्वारा तटस्थ नैतिक दृष्टि का विकास होता है। इसके साथ ही आत्म-विश्लेषण और आत्मानुशासन के लिए भी मूल्यों का अत्यधिक महत्व है। मूल्य व्यक्ति को ऐसी शक्ति प्रदान करते हैं जिससे वह लघु मानव से विश्व मानव में परिवर्तित हो जाता है। जब मूल्य विकसित हो जाते हैं तो व्यक्ति को प्रकृति, समाज और स्वयं में अन्तर अनुभव नहीं होता है। वह ऐसा देखता है कि जो मुझमें है वहीं प्रकृति और समाज में है। इसी के माध्यम से विश्व एकता के सूत्र में बँधता है और यही मानव जीवन का मूल्य है।

राधाकमल मुकर्जी ने इन मूल्यों के सम्बन्ध में जो विचार प्रतिपादित किये हैं उन्हें निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है-

1. मूल्यों का उद्भव

डॉ. राधाकमल मुकर्जी ने अपने विचारों को प्रतिपादित करते हुए लिखा है कि सभी मूल्य सामाजिक होते हैं। इसीलिए उन्होंने सामाजिक मूल्यों को सामाजिक जीवन में खोजने का प्रयास किया है। उनके अनुसार मनुष्य द्वारा ही सामाजिक मूल्यों की उत्पत्ति की जाती है और उनका विकास किया जाता है। डॉ. मुकर्जी के अनुसार व्यक्ति की कुछ आवश्यकताएँ होती हैं, वह इन आवश्यकताओं की पूर्ति का प्रयास करता है। ऐसा करते समय उसके सामने अनेक सामाजिक समस्याएँ आती हैं। अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि और समस्याओं के समाधान के सन्दर्भ में उसे अनेक सामाजिक अनुभव होते हैं। सामाजिक विकास प्रगति के लिए समाज में व्यवस्था का निर्माण किया जाता है और इस प्रकार समाज में मूल्यों का जन्म होता है।

मानव जीवन के दो पक्ष है- वास्तविक (Actual) और आदर्श (Ideal)। ये दोनों आदर्श एक-दूसरे से अन्तःसम्बन्धित हैं। वास्तविक जीवन में सभी एक-दूसरे को सहयोग प्रदान करते हैं। इस सहयोग के माध्यम से समाज में मूल्यों का जन्म होता है। मूल्य वह मानवीय शक्तियाँ हैं जिनके द्वारा मानवीय प्रवृत्तियों और उनकी इच्छाओं को नियन्त्रित किया जाता है। व्यक्ति के ये सामाजिक व्यवहार उसके आदर्शों को नियन्त्रित करते हैं। जब व्यक्ति उच्चादर्शों के अनुकूल अपने व्यवहारों को नियन्त्रित करता है और साध्य साधन के सन्दर्भ में अपनी क्रियाओं का प्रतिपादन करता है तो मूल्यों का जन्म होता है।

2. मूल्यों का क्षेत्रीय आधार

डॉ. राधाकमल मुकर्जी एक परिस्थिति शास्त्री (Ecologist) हैं। इसके परिणामस्वरूप वे प्रत्येक सामाजिक घटना को एक विशेष परिस्थिति के सन्दर्भ में सोचते हैं। उनका विचार है कि परिस्थितिशास्त्रीय (Ecological) विशेषताओं के कारण समाज में मूल्यों की उत्पत्ति होती है। उनके अनुसार मूल्य सार्वभौमिक होते हुए भी इनकी प्रकृति सार्वभौमिक नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि मूल्य यद्यपि सभी समाजों में पाये जाते हैं किन्तु इनकी परिभाषा एक क्षेत्र विशेष से सम्बन्धित होती है। उदाहरण के लिए, विवाह एक सामाजिक मूल्य है। विवाह यद्यपि सार्वभौमिक है किन्तु विवाह से सम्बन्धित मूल्य सार्वभौमिक नहीं हैं। भारतीय जीवन में विवाह एक धार्मिक संस्कार है, किन्तु दूसरे देशों में विवाह को धार्मिक नहीं माना जाता है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि मूल्यों का सम्बन्ध क्षेत्र विशेष से होता है। यही कारण है। कि मूल्य के भिन्न-भिन्न अर्थ लगाये जाते हैं। जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि डॉ. मुकर्जी का मूल्य सिद्धान्त रहस्यवाद पर आधारित है। इसीलिए वे स्वीकार करते हैं कि प्रकृति स्वयं में ही बुद्धिमान है। प्राकृतिक बुद्धि के कारण ही व्यक्ति प्राकृतिक साधन, जनसंख्या तथा संस्थाओं से संतुलन स्थापित करता है। यही कारण है कि मुकर्जी ने लिखा ‘व्यक्ति को प्रकृति द्वारा स्थापित सन्तुलन को भंग नहीं करना चाहिए।’

3. सामाजिक संगठन और मूल्यों के स्तर

डॉ. मुकर्जी का विचार है कि मूल्य सिद्धान्त सामाजिक संगठन के स्तरों पर आधारित हैं। मूल्यों के माध्यम से सामाजिक संरचना और प्रतिमान का निर्धारण होता है। प्रत्येक समाज में सामाजिकता (Sociability) पायी जाती है। समाज में पायी जाने वाली सामाजिकता के अनेक स्तर होते हैं। यही कारण है कि प्रत्येक स्तर पर सामाजिक संगठन के अनुसार ही मूल्यों का विकास होता है। मुकर्जी ने सामाजिक संगठन को चार स्तरों में विभाजित किया है। प्रारम्भिक अवस्थाओं के संगठनों में नैतिकता का अभाव पाया जाता है। धीरे-धीरे इन संगठनों में नैतिकता का विकास होता गया और यही कारण है कि वर्तमान संगठनों में उत्कृष्ट नैतिकता पायी जाती है। मुकर्जी ने नैतिकता के अभाव में उत्कृष्ट नैतिकता पर पहुँचने के स्तरों को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया है-

१. भीड़

डॉ. मुकर्जी के अनुसार भीड़ सामाजिक संगठन की प्रथम अवस्था है। डॉ. मुकर्जी के अनुसार व्यक्तियों और समूहों में परस्पर विरोध न होते हुए वे एक-दूसरे के पूरक हैं। व्यक्ति एक क्रियाशील प्राणी है और अपनी क्रियाशीलता के परिणामस्वरूप समाज में रचनात्मक कार्यों का सम्पादन करता है और इस प्रकार स्वयं में सामाजिक मूल्यों से प्रभावित होता है। प्रथम अवस्था का यह सामाजिक संगठन स्थायी प्रकृति का होता है। इसमें जितने भी व्यक्ति सम्मिलित होते हैं उनमें बुद्धि और नैतिकता का स्तर निम्न होता है। व्यक्ति विवेक की अपेक्षा भावनाओं द्वारा संचालित होते हैं। यही कारण है कि भीड़ में सम्मिलित व्यक्ति के व्यवहारों, क्रियाओं और बुद्धि में गुणात्मक परिवर्तन आ जाता है। भीड़ में सम्मिलित होने वाले व्यक्तियों का स्व निम्न स्तर का होता है। इसमें मूल्यों का अभाव पाया जाता है। भीड़ अनुकरण के परिणामस्वरूप इकट्ठी हो जाती है।

२. स्वार्थ समूह

स्वार्थ समूह के उदाहरण के रूप में व्यापार संघ, क्लब और राजनीतिक पार्टियों को सम्मिलित किया जाता है। इस अवस्था में व्यक्ति में मिल-जुलकर कार्य करने की क्षमता का विकास होता है। इस अवस्था में व्यक्ति में वर्ग चेतना का विकास होता है। इसके साथ ही व्यक्ति में स्वर का विकास भी होने लगता है। इसके परिणामस्वरूप आदान-प्रदान की व्यवस्था का जन्म होता है जिससे सामाजिक प्राणी दूसरे के हितों का ध्यान करना सीख जाते है। व्यक्ति का सम्पूर्ण स्व व्यवसाय पर केन्द्रित हो जाता है और उसमें अहंकारी भावना का विकास होता है। यह अहंकारी भावना अवैयक्तिक संघर्षो को जन्म देती है।

३. समाज

स्वार्थ समूहों में व्यक्तियों के अन्तः सम्बन्धों का विकास होता है। साथ ही सामान्य उद्देश्यों के कारण व्यक्ति संगठन का निर्माण करते हैं और इसी संगठन को समाज के नाम से जाना जाता है। समाज में व्यक्ति अन्य सदस्यों के हितों को ध्यान में रखकर सहयोगी व्यवहार करते हैं। समाज समूहों के ही विस्तृत रूप है। भीड़ स्वार्थ समूह की तुलना में समाज में मानव नैतिकता का स्तर व्यापक हो जाता है। इस अवस्था में सामूहिक हित समाज के हितों में परिवर्तित हो जाते हैं। समाज के सदस्य समानता (Equality) और न्याय (Justice) को सामाजिक मूल्य के रूप में स्वीकार करते हैं। सामाजिक प्राणी के रूप में व्यक्ति जो भी व्यवहार करता है वे तार्किक, नैतिक और सांवेगिक आधारों पर होते हैं। संक्षेप में, समाज सामाजिक संगठन की विस्तृत अवस्था है जिसमें व्यक्ति पारस्परिक सहयोग के माध्यम से समाज को विकसित करते हैं, आगे बढ़ते हैं।

४. सामूहिकता

सामूहिकता के लिए डॉ. मुकर्जी ने जनता (Communiality) शब्द का प्रयोग किया है। उनके अनुसार नैतिक दृष्टि से सामूहिक मानव समाज सर्वोच्च संगठन है। सामूहिक सामाजिक संगठन अत्यन्त ही सुदृढ़ और सार्वभैमिक है। इसके अन्तर्गत मनुष्य सार्वभौमिक मूल्यों को स्वीकार करता है। सार्वभौमिक मूल्य के अन्तर्गत प्रेम, समानता, बन्धुत्व आदि तत्वों को सम्मिलित किया है। सामूहिकता नैतिकता का सर्वोच्च स्तर है। इस कारण यह व्यक्ति की इच्छाओं पर आधारित है। व्यक्ति न तो किसी स्वार्थवश और न ही किन्हीं भावनाओं के कारण नैतिकता को स्वीकार करते हैं। अपितु चेतनात्मक रूप से बुद्धि और तर्क की सहायता से नैतिकता को स्वीकार करते हैं। आदर्श सामूहिकता के व्यक्ति स्वार्थ और क्षेत्रीयता की भावनाओं से ऊपर उठकर सोचते हैं। उनके अन्दर ऐसी भावनाएँ विकसित होती हैं जिनसे समस्त विश्व के साथ भाई-चारे का सम्बन्ध स्थापित हो। परिणामस्वरूप विश्व बन्धुत्व की भावना का विकास होगा।

डॉ. मुकर्जी ने लिखा है कि जिस प्रकार सामाजिक व्यवहार के प्रत्येक क्षेत्र में मूल्य पाये जाते हैं ठीक इसी तरह समाज में मूल्यहीन (Disvalues) भी पाये जाते हैं। यदि हम व्यक्ति के व्यवहार की विवेचना करें तो ज्ञात होता है कि व्यक्ति मूल्यों का अतिक्रमण करता है और साथ ही उसके विरुद्ध व्यवहार भी करता है। इससे व्यक्ति में आत्म-सम्मान की भावना समाप्त हो जाती है और अपराधी प्रवृत्तियों का विकास होता है।

आज समाज में मूल्यहीन संगठन भी बनते जा रहे हैं जो शोषण, असमानता और सामाजिक विरोधी कार्यों पर आधारित है। समाज में मूल्यहीन अवस्था का जन्म एकता की कमी के परिणामस्वरूप होता है। इसके अतिरिक्त व्यक्ति की प्राणीशास्त्रीय विशेषताएँ और सामाजिक परिस्थितियाँ भी मूल्यहीन व्यवहारों को जन्म देती हैं। इन मूल्यहीन व्यवहारों, कानून एवं सामाजिक संहिताओं की उपेक्षा करते हैं जिससे समाज का अहित तो होता है साथ ही समाज में अनेक समस्याओं का जन्म होता है। इसीलिए डॉ. मुकर्जी ने यह सुझाव दिया है कि मूल्यहीन व्यवहारों को समाज में न पनपने दिया जाये। जो व्यक्ति मूल्यहीन व्यवहार करते हैं समाज के साथ उनका सामंजस्य स्थापित किया जाये।

4. व्यक्तित्व और मूल्य

डॉ. मुकर्जी का विचार है कि व्यक्तित्व के निर्माण में मूल्यों का अत्यन्त महत्वपूर्ण योगदान होता है। मानव व्यक्तित्व की संरचना को परिभाषित और संचालित करने में मूल्य व्यवस्था का अत्यधिक महत्व है। व्यक्ति अपने व्यवहार की सहायता से निरन्तर मूल्यों का परिमार्जन करता रहता है। इस परिमार्जन के परिणामस्वरूप मूल्यों का परिवर्द्धन एवं संशोधन होता है। इस संशोधन एवं परिमार्जन के कारण व्यक्ति मूल्यों को उस स्तर तक पहुँचा देता है जहाँ पहुँच कर व्यक्ति मूल्य के लिए स्वयं से और समाज से एकता स्थापित करने में असमर्थ रहता है। चूंकि व्यक्ति और मूल्य परस्पर अन्तःसम्बन्धित है। अन्तःसम्बन्धित मूल्यों में निरन्तर परिवर्तन और वृद्धि होती रहती है।

डॉ. मुकर्जी ने लिखा है कि व्यक्ति अपने जीवन में विभिन्न स्तरों से गुजरता है। इन स्तरों से गुजरते हुए व्यक्ति अपने सामाजिक सम्बन्धों का सुधार करता है। वह अपने नैतिक जीवन का विकास करता ही है। इसके साथ ही वह मूल्यों की वृद्धि में भी योगदान देता है। इस प्रकार डॉ. मुकर्जी ने मानव व्यवहार के जो तीन स्तर बताये हैं, वे अग्रलिखित है-

१. जैविक सामाजिक स्तर

मनुष्य के व्यवहार का जैविक-सामाजिक स्तर वह है जब व्यक्ति सामाजिक नियमों का पालन करता है और इन्हीं नियमों के आधार पर वह अपनी प्राणीशास्त्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। प्राणीशास्त्रीय आवश्यकता की पूर्ति में व्यक्ति भी व्यवहार करता है, वह मूल्यों के द्वारा निर्धारित और निर्देशित होता है। मनुष्य और पशु में प्रमुख अन्तर यही है कि पशु अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते समय मूल्यों के बारे में अजागरूक होते हैं। इसके विपरीत, मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति से सम्बन्धित व्यक्ति की प्रेरणाओं को निर्धारित परिवर्तित और निर्देशित करते हैं।

२. मानसिक एकता का स्तर

मानसिक एकता का स्तर वह है जब व्यक्ति का मस्तिष्क इतना विकसित हो जाये कि वह अपनी आवश्यकता की पूर्ति अन्य सदस्यों के सहयोग से करे। इस अवस्था में व्यक्ति में मिल-जुलकर रहने की भावना का विकास होता है। व्यक्ति सामाजिक प्राणी है। सामाजिक प्राणी होने के नाते वह सामाजिक क्रियाओं में भाग लेना चाहता है। समाज के अन्य सदस्यों के साथ सम्बन्धों की स्थापना करता है। इस स्तर पर समाज से एकता के मूल्य को ग्रहण करता है।

३. आध्यात्मिक स्तर

डॉ. मुकर्जी के अनुसार आध्यात्मिक स्तर मानव व्यक्तित्व के विकास की तीसरी और अन्तिम अवस्था है, भारतीय दर्शन में जिसे हम ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ की अवस्था कहते हैं। डॉ. मुकर्जी के अनुसार आध्यात्मिक स्तर मानव व्यक्तित्व में विकास का यही स्तर है। वह ऐसे मूल्यों को अपनाता है जो विश्व एकता की स्थापना में सहायक होते हैं। डॉ. मुकर्जी ने लिखा है कि मूल्य स्तर और व्यक्तित्व स्तर अन्तःसम्बन्धित है। जिस प्रकार सामाजिक मूल्यों के स्तर होंगे ठीक उसी प्रकार व्यक्तित्व के स्तर भी होंगे। मूल्य और व्यक्तित्व एक ही स्तर पर रहते हैं।

डॉ. मुकर्जी का विचार है कि यदि समाज और व्यक्ति अपने अस्तित्व को बनाये रखना चाहता है तो इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि वह समाज के सर्वोच्च मूल्यों का विकास करे। अच्छाई, प्रेम, सौन्दर्य, शान्ति आध्यात्मिक मूल्य हैं। इन्हीं के द्वारा सामाजिक संस्थाओं का विकास होता है। यदि हम समाज में मूल्यों को संरक्षण नहीं देंगे तो मानवीय एकता, सौन्दर्य, सच्चाई और प्रेम की रक्षा करना असम्भव होगा।

5. मूल्य और सामाजिक समस्याएं

समाज में अनेक सामाजिक समस्याएं पायी जाती हैं। इन सामाजिक समस्याओं का जन्म व्यक्ति के व्यवहारों द्वारा होता है। व्यक्ति के व्यवहार चेतन और अचेतन दोनों प्रकार के हो सकते हैं। व्यक्ति के व्यवहार मूल्यों से प्रभावित और संचालित होते हैं। सामाजिक संस्थाओं का उद्देश्य मूल्यों के अनुसार कार्य करना होता है। समाज में कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जो सामाजिक मूल्यों के विषय में जागरूक नहीं होते हैं। इसके अतिरिक्त, कुछ व्यक्तियों का व्यक्तित्व कुछ इस प्रकार विकसित होता है कि मूल्यों के प्रति उपेक्षात्मक दृष्टियकणे अपनाते हैं। इससे सामुदायिक भावना समाप्त होती है और व्यक्ति में स्वार्थवादी प्रवृत्तियाँ विकसित होती हैं। अतः व्यक्ति ऐसे व्यवहार करता है जिससे अनेक समस्याओं का जन्म अपने आप होता है।

मूल्यों का उद्देश्य व्यक्ति को सामाजिक जीवन और घटनाओं का विश्लेषण करना तथा व्यक्ति के व्यवहारों को समाज के अनुरूप बनाना है। दूसरे शब्दों में, मूल्य यह बताते हैं कि व्यक्ति को किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए और किस प्रकार का व्यवहार नहीं करना चाहिए। मूल्य सत्य और नैतिकता पर आधारित होते हैं। सत्य और नैतिकता पर आधारित होने के कारण व्यक्ति ऐसे व्यवहार करता है जिससे दृढ़ता का विकास होता है। संक्षेप में, मूल्य अनेक सामाजिक समस्याओं को समाप्त करके समाज में सामंजस्य स्थापित करते हैं।

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