सोरोकिन के शब्दों में, “एक व्यक्ति या सामाजिक वस्तु अथवा मूल्य अर्थात् मानव क्रियाकलाप द्वारा बनायी या रूपान्तरित किसी भी चीज में एक सामाजिक स्थिति से दूसरी सामाजिक स्थिति में होने वाले परिवर्तन को सामाजिक गतिशीलता कहते हैं।”
सार रूप में हम यह कह सकते हैं कि सामाजिक संरचना की किसी इकाई की स्थिति में होने वाले किसी भी प्रकार के परिवर्तन को सामाजिक गतिशीलता कहते हैं।
मुक्त (खुली) एवं बन्द गतिशीलता :
सामाजिक स्तरीकरण के आधार पर गतिशीलता के दो प्रमुख स्वरूप हैं-
- मुक्त (खुली) गतिशीलता एवं
- बन्द गतिशीलता।
गतिशीलता के ये दोनों ही स्वरूप एक-दूसरे के विपरीत हैं।
1. मुक्त (खुली) गतिशीलता
इस प्रकार की गतिशीलता वाले समाजों में विभिन्न स्तर समूहों की सदस्यता का आधार जन्म या आनुवंशिकता न होकर व्यक्ति के गुण, योग्यता एवं उपलब्धियों के द्वारा होती हैं। परिणामस्वरूप व्यक्ति की किसी भी स्तर पर समूह की सदस्यता का निर्धारण जीवन भर के लिए नहीं होता है। वह एक स्तर एवं पद से दूसरे स्तर एवं पद में गमन कर सकता है। आज व्यक्ति एक स्थिति-समूह (status group) का सदस्य है, आगे आने वाले समय में वह अपनी योग्यता, गुणों एवं परिश्रम के आधार पर उपलब्धियों को बढ़ाकर किसी उच्च स्तर, पद या समूह की सदस्यता ग्रहण कर सकता है। मुक्त व्यवस्था वाले समाजों में गतिशीलता को स्वीकार किया जाता है और बढ़ावा दिया जाता है।
एक व्यक्ति अपनी प्रस्थिति और पद में वृद्धि और प्रगति के लिए स्वतन्त्र होता है। इसलिए ही इसे खुली या मुक्त गतिशीलता के नाम से पुकारा जाता है। मुक्त गतिशीलता हमें वर्ग व्यवस्था पर आधारित संस्तरण की व्यवस्था वाले समाजों में देखने को मिलती है। यूरोप के अधिकतर समाजों एवं अमेरिका में मुक्त गतिशीलता अधिक पायी जाती है क्योंकि वहाँ सामाजिक संस्तरण वर्ग के आधार पर निर्मित है। वहाँ वर्ग की सदस्यता का निर्धारण प्रमुखतः व्यक्ति की आर्थिक स्थिति के आधार पर होता है। राजनीतिक सत्ता या शक्ति तथा सांस्कृतिक क्षेत्र में प्राप्त विशिष्ट उपलब्धियाँ भी व्यक्ति में गतिशीलता उत्पन्न करने में योग देती हैं।
2. बन्द गतिशीलता
इस प्रकार की गतिशीलता बन्द स्तरीकरण वाली समाज व्यवस्था की विशेषता है। ऐसे समाजों में व्यक्ति के पद एवं स्तर समूह का निर्धारण जन्म या आनुवंशिकता के आधार पर होता है जिसे वह अपने जीवनकाल में नहीं बदल सकता है। अतः एक समूह को त्यागकर दूसरे समूह की सदस्यता ग्रहण करने का प्रश्न ही नहीं उठता है। बन्द स्तरीकरण वाली व्यवस्था का श्रेष्ठ उदाहरण भारत की जाति-प्रथा है। इसके अन्तर्गत व्यक्ति की जाति का निर्धारण जन्म के समय ही हो जाता है। व्यक्ति आजीवन उसी जाति का सदस्य बना रहता है जिसमें उसका जन्म हुआ है। जातियाँ बदलना सम्भव नहीं है। प्रत्येक जाति की समाज में स्थिति, अधिकार, दायित्व एवं कार्य निश्चित होते हैं।
जाति-प्रथा में व्यक्ति की गतिशीलता के अवसर नगण्य होते हैं। किन्तु वर्तमान में नगरीकरण, औद्योगीकरण, पाश्चात्य सभ्यता, शिक्षा और संस्कृति, नवीन संविधान, प्रजातन्त्र एवं कानूनों के प्रभावों के कारण जातीय कठोरता कम हुई है और एक जाति के व्यक्ति दूसरी जातियों के व्यवसायों, मूल्यों, व्यवहारों, प्रथाओं आदि को अपना रहे हैं। डॉ. एम.एन. श्रीनिवास का मत है कि भारत में निम्न जातियाँ ‘संस्कृतीकरण‘ की प्रक्रिया द्वारा अपनी सामाजिक स्थिति ऊँची उठा रही हैं और अपने को उच्च जातियों में सम्मिलित करने के लिए प्रयत्नशील हैं।