# सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, प्रकार्य या महत्व एवं प्रमुख आधार

स्तरीकरण का अर्थ एवं परिभाषाएं :

सामान्य अर्थ में स्तरीकरण का तात्पर्य, “उन स्तरों से होता है, जिनमें समाज के सम्पूर्ण सदस्यों को उच्च या निम्न स्थिति में विभक्त कर दिया जाता है। जब यह विभाजन समाज द्वारा स्वीकृत होता है तो इसे सामाजिक स्तरीकरण कहा जाता है।” इस प्रकार स्पष्ट हैं कि “सामाजिक स्तरीकरण का आशय समाज के सदस्यों का वह क्रमबद्ध विभाजन है, जिसके अन्तर्गत सभी सदस्य उच्चता एवं निम्नता की भावनात्मक एकता के द्वारा परस्पर जुड़े रहते हैं।”

स्तरीकरण पर विचार व्यक्त करते हुए अमेरिकन सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री टालकॉट पारसन्स (Talcott Parsons) ने कहा है कि “किसी भी समाज व्यवस्था में व्यक्तियों का ऊँचे और नीचे क्रम में विभाजन ही स्तरीकरण है। स्पष्ट है उच्च एवं निम्न क्रमानुसार व्यक्तियों के विभाजन को पारसन्स ने स्तरीकरण स्वीकार किया है।

सदरलैण्ड तथा वुडवर्ड (Sutherland and Woodward) के विचारानुसार, “स्तरीकरण साधारणतया अन्तःक्रिया अथवा विभेदीकरण की वह प्रक्रिया है, जिसमें कुछ व्यक्तियों को दूसरे व्यक्तियों की तुलना में उच्च स्थान प्राप्त होता है।” उपर्युक्त परिभाषाओं में पूर्व परिभाषा की तरह ही उच्च एवं निम्न स्थिति को स्तरीकरण के रूप में स्वीकृति प्रदान की गई है तथा स्तरीकरण को विभेदीकरण की प्रक्रिया स्वीकारा गया है। आधुनिक भारत के सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री योगेन्द्र सिंह (Y. Singh) ने स्तरीकरण पर विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि “सामाजिक स्तरीकरण का सम्बन्ध सामाजिक क्रमबद्धता, सामाजिक समानता, सामाजिक न्याय, शक्ति तथा मनुष्य की प्रकृति से है।”

उपर्युक्त परिभाषा द्वारा, अत्यन्त विस्तृत अर्थ में व्यक्त की गई है कि स्तरीकरण सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शक्ति तथा प्रकृति आदि के रूप में हो सकता है। जैसा कि रुन्सिमैन (W.C. Runciman) ने स्तरों का मापन करते हुए प्रस्थिति (Status), सम्पत्ति (Wealth) तथा शक्ति (Power) को महत्व दिया है किन्तु यह तथ्य किसी भी समाज के व्यक्तियों के स्तर को मापने के अन्तिम तथ्य नहीं कहे जा सकते।

रेमण्ड मुरे (R.W. Murray) ने स्तरीकरण की अत्यन्त संक्षिप्त परिभाषा देते हुए बतलाया है कि “स्तरीकरण समाज का उच्च एवं निम्न सामाजिक इकाइयों में किया गया क्रमगत विभाजन है।” उपर्युक्त परिभाषा से प्रकट होता है कि जब उच्चता तथा निम्नता के क्रम में समाज की सभी इकाइयाँ एक व्यवस्था के रूप में रहती हों तो स्तरीकरण कहा जाता है तथा यह स्तरीकरण सामाजिक उपयोगिता की दृष्टि से किया गया हो।

उपर्युक्त विद्वानों के विचारों से स्पष्ट होता है कि “सामाजिक स्तरीकरण का आशय उस श्रेणीकरण से है, जिसमें समाज के सभी सदस्य उच्चता एवं निम्नता के क्रमानुसार इस प्रकार सजे रहते हैं, जिससे समाज व्यवस्था सुचारू रूप से संचालित होती रहती है।

अतः स्पष्ट है कि “सामाजिक स्तरीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा सामाजिक व्यवस्था के स्थायित्व एवं निरन्तरता के लिए समाज के सदस्यों को उच्चता एवं निम्नता की स्थिति प्रदान की जाती है।” “उदाहरण के लिए, प्रदेश स्तर की पुलिस की संरचना को लिया जा सकता है, जिसमें सबसे ऊँचा स्तर पुलिस महानिदेशक (I.G.), फिर पुलिस उपमहानिरीक्षक (D.I.G.), फिर पुलिस अधीक्षक (S.P.), फिर पुलिस सहायक अधीक्षक (A.S.P.), फिर थाना प्रभारी या टाउन इन्सपेक्टर (S.O.), फिर इन्सपेक्टर (S.L), फिर सहायक इन्सपेक्टर (A.S.L.), फिर हवलदार व अन्तिम व सबसे निम्न स्थिति सिपाही की होती है।

इसी प्रकार विश्वविद्यालय स्तर पर विश्वविद्यालय का प्रमुख कुलपति होता है। कुलपति के नीचे कुल सचिव, उपकुल सचिव, सहायक उपकुल सचिव, ऑफिस सुपरिण्टेण्डेण्ट, सहायक सुपरिण्टेण्डेण्ट, लिपिक वर्ग अ, लिपिक वर्ग ब, लिपिक वर्ग स तथा सबसे निम्न स्तर पर चपरासी रहते हैं। इस प्रकार के स्तरीकरण से विश्वविद्यालय की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाया जाता है। विभागीय स्तर पर विभागाध्यक्ष विभाग का मुखिया होता है, फिर प्रोफेसर, रीडर, लेक्चरर, लिपिक व चपरासी होते हैं।

सामाजिक स्तरीकरण की विशेषताएं :

ट्यूमिन ने सामाजिक स्तरीकरण की अग्रांकित विशेषताओं का उल्लेख किया है।

1. सामाजिक स्तरीकरण की प्रकृति सामाजिक है

सामाजिक स्तरीकरण कुछ व्यक्तियों तक ही सीमित नहीं है वरन् सम्पूर्ण समाज में व्याप्त है। समाज के सभी लोग समान मूल्यों एवं व्यवहार के समान प्रतिमानों को स्वीकार करते हैं। सामाजिक स्तरीकरण को आयु, रंग एवं यौन भेद के आधार पर ही नहीं वरन् समाज में व्यक्तियों को प्राप्त विभिन्न पदों एवं प्रस्थितियों के आधार पर ही समझा जा सकता है। समाजीकरण के द्वारा व्यक्ति सामाजिक मानदण्डों को सीखता है और अचेतन रूप में स्तरीकरण को स्वीकार करता है। सामाजिक संस्थाएँ; जैसे-धर्म, शिक्षा, परिवार, विवाह एवं राजनीति आदि भी समाज में स्तरीकरण उत्पन्न करती हैं।

2. सामाजिक स्तरीकरण पुरातन है

स्तरीकरण समाज में अति प्राचीन काल से ही विद्यमान रहा है। प्राचीन समय में इसके आधार आयु, लिंग, शारीरिक शक्ति, जन्म, आदि प्रदत्त गुण थे वर्तमान समय में अर्जित गुणों का अधिक महत्व है। मार्क्स की मान्यता है कि में समाज में दो वर्ग रहे हैं – एक श्रमिक और दूसरा पूँजीपति। इस प्रकार वर्ग स्तरीकरण प्रत्येक समाज में सदैव ही विद्यमान रहा है।

3. सामाजिक स्तरीकरण प्रत्येक समाज में पाया जाता है

आदिकाल से लेकर आज तक कोई ऐसा समाज नहीं पाया गया जिसमें स्तरीकरण न हो। इसके आधारों एवं स्वरूपों में अन्तर हो सकता है, किन्तु सामाजिक स्तरीकरण सर्वत्र ही विद्यमान रहा है। बोटोमोर लिखते हैं, “समाजों का वर्गों अथवा स्तरों में विभाजन जिससे प्रतिष्ठा एवं शक्ति का सोपान बनता है, सामाजिक संरचना का एक सार्वभौमिक तत्व है।”

4. सामाजिक स्तरीकरण के विभिन्न स्वरूप है

विश्व के सभी समाजों और सभी कालों में सामाजिक स्तरीकरण का समान स्वरूप नहीं रहा है वरन् देश एवं काल के अनुसार इसके अनेक स्वरूप देखे जा सकते हैं। अति प्राचीन काल में सामाजिक स्तरीकरण का सरलतम आधार यौन-भेद, आयु-भेद और शारीरिक शक्ति था। भारत में जाति-प्रथा के आधार पर स्तरीकरण पाया जाता है तो यूरोप में वर्ग व्यवस्था एवं अर्जित गुणों को अधिक महत्व दिया गया है। मध्य युग में दास एवं स्वामी स्तरीकरण के दो प्रमुख स्वरूप रहे हैं। अफ्रीका एवं अमेरिका में प्रजाति भेदभाव का लम्बे समय से प्रचलन रहा है। इस प्रकार सभी समाजों में स्तरीकरण का प्रचलन किन्हीं सामान्य नियमों द्वारा न होकर स्थान, परिस्थिति एवं संस्कृति द्वारा प्रभावित रहा है।

5. सामाजिक स्तरीकरण परिणामिक है

ट्यूमिन कहते हैं कि सामाजिक स्तरीकरण परिणामिक (Consequential) है। यह समाज में असमानता उत्पन्न करता है। इस असमानता को हम जीवन जीने के अवसर (Life chances) तथा जीवन शैली (Life style) में देख सकते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन जीने के अवसर एवं शैली स्तरीकरण के स्वरूपों के आधार पर भिन्न-भिन्न होते हैं।

किसी व्यक्ति को कितनी शक्ति, सम्पत्ति एवं मानसिक सन्तोष प्राप्त होगा, यह समाज में उसके स्तर पर निर्भर है। विभिन्न स्तरों में मृत्यु-दर, लम्बी आयु, शारीरिक एवं मानसिक रोग, सन्तानों की संख्या, वैवाहिक संघर्ष, तलाक, पृथकता, आदि की मात्रा में भिन्नता पायी जाती है। एक व्यक्ति किस प्रकार के मकान एवं पड़ोस में रहेगा किस प्रकार के मनोरंजन के साधन अपनायेगा, माता-पिता से उसके सम्बन्ध कैसे होंगे, किस प्रकार की शिक्षा एवं पुस्तकों का वह प्रयोग करेगा, यह उसके सामाजिक स्तर पर निर्भर करता है। प्रत्येक स्तर के जीवन अवसर एवं शैली में भिन्नता पायी जाती है।

ट्यूमिन की मान्यता है कि ये पाँच विशेषताएँ ऐसी हैं जिनके आधार पर समाज में स्तरीकरण के अध्ययन के महत्व को सिद्ध किया जा सकता है।

सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार्य/महत्व :

अधिकांश विद्वानों का विचार है कि सामाजिक स्तरीकरण प्रत्येक समाज में अनिवार्य रुप से पाया जाता है, अतः इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यह व्यक्ति और समाज के लिए उपयोगी होता है। ट्यूमिन (Tumin) ने अपनी पुस्तक “Social Stratification” में लिखा है कि सामाजिक असमानता की एक संस्थागत पद्धति के बिना कोई समाज कठिनता से ही जीवित रह सकता है। इस दृष्टिकोण से व्यक्ति और समाज के लिए सामाजिक स्तरीकरण के कार्यों अथवा महत्व को समझना आवश्यक है –

1. आवश्यकताओं की पूर्ति- वर्तमान युग में मनुष्य की आवश्यकताएँ इतनी अधिक हैं कि वह उन्हें अकेले ही पूरा नहीं कर सकता। व्यक्ति और समाज की आवश्यकताएँ तभी पूरी हो सकती हैं जब समाज में श्रम-विभाजन, विशेषीकरण और उत्पादन के साधन उन्नत अवस्था में हों। सामाजिक स्तरीकरण व्यक्ति को अपनी योग्यता में वृद्धि करने की प्रेरणा देकर नये-नये आविष्कारों और व्यवहार के ढंगों को काम में लाने का प्रोत्साहन देता है। इसी से सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो पाती है ।

2. अधिक कार्य का प्रोत्साहन- स्तरीकरण की व्यवस्था व्यक्ति को इस बात का विश्वास दिलाती है कि वह अपनी योग्यता और कुशलता में जितनी अधिक वृद्धि करेगा तथा अपनी भूमिकाओं को जितने अच्छे ढंग से पूरा करेगा, उसे उतना ही अधिक पुरस्कार और सम्मान प्राप्त होगा। वास्तव में, सभी व्यक्तियों में प्रसिद्धि पाने और बड़ा बनने की एक स्वाभाविक इच्छा होती है। इस प्रकार स्तरीकरण की व्यवस्था प्रत्येक व्यक्ति को अधिक से अधिक कार्य करने का प्रोत्साहन देती है।

3. सामाजिक संघर्षों से रक्षा- सामाजिक स्तरीकरण व्यक्तियों को संघर्षों से बचाकर उन्हें एक-दूसरे का सहयोगी बनाता है। समाज में यदि सभी व्यक्तियों की प्रस्थिति और अधिकार समान हो जायें तो व्यक्ति अपनी योग्यता और कुशलता को देखे बिना उन अधिकारों को पाने के लिए संघर्ष कर सकते हैं जिनके लिए वे बिल्कुल योग्य न हों। इसके विपरीत, स्तरीकरण की व्यवस्था व्यक्ति की योग्यता और कुशलता के आधार पर उनके बीच विभिन्न अधिकारों और पुरस्कारों का वितरण इस तरह करती है जिससे पारस्परिक सहयोग में वृद्धि हो सके।

4. मनोवृत्तियों का निर्धारण- ओल्सेन (Olsen) ने लिखा है कि सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था प्रत्येक व्यक्ति को यह बताती है कि समाज में उसकी प्रस्थिति, अधिकार और कर्त्तव्य क्या है? इसी से व्यक्ति के विचारों, मनोवृत्तियों और व्यवहारों का निर्धारण होता है। यह मनोवृत्तियाँ ही व्यक्ति का इस बात का निर्देश देती हैं कि वह दूसरे व्यक्तियों के साथ किस तरह के सम्बन्ध स्थापित करे तथा उनके प्रति किन-किन कर्त्तव्यों का पालन करे? इससे भी पारस्परिक सहयोग को प्रोत्साहन मिलता है।

5. शक्ति का सन्तुलन- सामाजिक स्तरीकरण का एक प्रमुख कार्य समाज के सभी व्यक्तियों और समूहों के बीच शक्ति के सन्तुलन को बनाये रखना है। यह कार्य सामाजिक नियन्त्रण के द्वारा किया जाता है। जिन व्यक्तियों के पास प्रशासनिक, राजनीतिक अथवा आर्थिक अधिकार अधिक होते हैं, वे अपनी योग्यता और कुशलता से उन व्यक्तियों के जीवन को नियमित रखते हैं जो स्वतन्त्र रूप से कोई कार्य करने का निर्णय नहीं ले पाते। दूसरी ओर, निम्न स्तर के व्यक्तियों की संख्या-शक्ति अधिक होने के कारण वे उच्च प्रस्थिति के लोगों को अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने से रोके रखते हैं। इसके फलस्वरूप समाज में शक्ति का सन्तुलन बना रहता है।

6. गतिशीलता में वृद्धि- सामाजिक प्रगति के लिए समाज में गतिशीलता का होना आवश्यक है। जिस तरह ठहरा हुआ पानी गन्दा हो जाता है, उसी तरह समाज में परिवर्तन न होने से विघटन के तथ्य प्रभावपूर्ण बनने लगते हैं। स्तरीकरण की व्यवस्था प्रत्येक व्यक्ति को यह विश्वास दिलाती है यदि वे अपनी योग्यता और कुशलता को बढ़ाकर सामाजिक रूप से उपयोगी कार्य करेंगे तो उन्हें अधिक अधिकार और पुरस्कार प्राप्त होंगे। इसके फलस्वरूप जो व्यक्ति अपनी योग्यता में वृद्धि कर लेते हैं, उन्हें पहले से अधिक अधिकार मिल जाते हैं, जबकि मेहनत के प्रति उदासीन रहने वाले व्यक्तियों का सामाजिक स्तर गिर जाता है। इस प्रकार सामाजिक स्तरीकरण के फलस्वरूप सामाजिक संगठन में गतिशीलता बनी रहती है।

7. सामाजिक एकीकरण में वृद्धि- सामाजिक स्तरीकरण होने से समाज में श्रम-विभाजन और विशेषीकरण को प्रोत्साहन मिलता है। इसके फलस्वरूप सभी व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एक-दूसरे की आवश्यकताओं को पूरा योगदान करते हैं तो इससे सामाजिक एकीकरण को प्रोत्साहन मिलने लगता है। दुर्खीम (Durkheim) के अनुसार ऐसी एकता को हम ‘सावयवी एकता’ (Organic Solidarity) कहते हैं जो वर्तमान युग की एक मुख्य विशेषता है।

8. स्वस्थ प्रतियोगिता में वृद्धि कोई भी समाज प्रतिस्पर्धा के बिना आगे नहीं बढ़ सकता। इसके बाद भी प्रतिस्पर्धा यदि मनमाने और अनियन्त्रित ढंग से होने लगे तो समाज में अव्यवस्था फैल जाती है। सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था प्रत्येक व्यक्ति की सामाजिक स्थिति का निर्धारण करके उनके लिए व्यवहार के कुछ निश्चित नियम निर्धारित करती है। यह नियम इस तरह के होते हैं जिनका पालन करते हुए ही व्यक्ति एक-दूसरे से प्रतियोगिता करके अपनी योग्यता और कुशलता को बढ़ा सकें। इसके फलस्वरूप प्रतियोगिता कुछ आदर्श नियमों से बंधी रहती है। यह दशा समाज को संघर्षों बचाकर प्रगति की ओर ले जाती है।

9. सम्बन्धों की प्रकृति का निर्धारण- सामाजिक स्तरीकरण के अन्तर्गत समाज जिन प्रमुख स्तरों में विभाजित होता है, उनके सदस्य अपने-अपने स्तर के प्रति विशेष रूप से जागरूक रहते हैं। उदाहरण के लिए, एक-एक वर्ग के रूप में सभी उद्योगपति, व्यवसायी, कर्मचारी तथा श्रमिक यह जानते हैं कि उनके हित और आवश्यकताएँ समान हैं। इसके फलस्वरुप दूसरे स्तरों के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने के बाद भी वे इस तरह संगठित रहते हैं जिससे उनका शोषण न किया जा सके।

सामाजिक स्तरीकरण के आधार :

स्तरीकरण प्रत्येक समाज में पाया जाता है, किन्तु उसके आधार समान नहीं हैं, फिर भी विद्वानों ने कुछ सामान्य आधारों का उल्लेख किया है। पारसन्स ने व्यक्ति की प्रस्थिति निर्धारित करने वाले छः कारकों का उल्लेख किया है जो स्तरीकरण को भी तय करते हैं। वे हैं- नातेदारी समूह की सदस्यता, व्यक्तिगत विशेषताएँ, अर्जित उपलब्धियाँ, द्रव्यजात (Possession), सत्ता तथा शक्ति।

सोरोकिन तथा वेबर स्तरीकरण के प्रमुख तीन आधारों (1) आर्थिक, (2) राजनीतिक एवं (3) व्यावसायिक का उल्लेख करते हैं, जबकि कार्ल मार्क्स केवल आर्थिक आधार को ही महत्वपूर्ण मानते हैं। इस आधार पर समाज में दो प्रकार के वर्ग पनपते हैं- पूँजीपति एवं श्रमिक।

सामाजिक स्तरीकरण के सभी आधारों को हम प्रमुख रूप से दो भागों में बाँट सकते हैं-

1. प्राणिशास्त्रीय आधार, एवं
2. सामाजिक-सांस्कृतिक आधार।

1. प्राणिशास्त्रीय आधार (Biological Basis)

समाज में व्यक्तियों एवं समूहों की उच्चता एवं निम्नता का निर्धारण प्राणिशास्त्रीय आधारों पर भी किया जाता है। प्रमुख प्राणिशास्त्रीय आधारों में हम लिंग, आयु, प्रजाति एवं जन्म आदि को ले सकते हैं।

(i) लिंग– लिंग के आधार पर स्त्री और पुरुषों के रूप में समाज का स्तरीकरण सबसे प्राचीन है। लगभग सभी समाजों में पुरुषों की स्थिति स्त्रियों से ऊँची मानी जाती रही है। कई पद ऐसे हैं जो केवल पुरुषों के लिए ही निर्धारित हैं; जैसे- सेना में स्त्रियों को नहीं लिया जाता, परम्परा के अनुसार अमेरिका का राष्ट्रपति कोई भी स्त्री नहीं बन सकती यद्यपि संवैधानिक रूप से ऐसी कोई अड़चन नहीं है।

(ii) आयु– प्रत्येक समाज में कई पद ऐसे होते हैं जो एक निश्चित आयु के व्यक्तियों को ही प्रदान किये जाते हैं। आयु के आधार पर समाज में प्रमुख चार स्तर- शिशु, किशोर, प्रौढ़ और वृद्ध पाये जाते हैं। सामान्यतः महत्वपूर्ण पद बड़ी आयु के लोगों को प्रदान किये जाते हैं। भारत में परिवार, जाति एवं ग्राम पंचायत के मुखिया का पद वयोवृद्ध व्यक्ति को प्रदान किया जाता रहा है। यह माना जाता है कि आयु और अनुभव का घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसलिए उत्तरदायित्व के कार्य अनुभवी एवं वयोवृद्ध व्यक्तियों को सौंपे जाते हैं।

(iii) प्रजाति– प्रजाति के आधार पर सामाजिक स्तरीकरण वहाँ देखा जा सकता है जहाँ एकाधिक प्रजातियाँ साथ-साथ रहती हैं। जिस प्रजाति के लोग शासन एवं सत्ता में होते हैं तथा सम्पन्न होते हैं, वह प्रजाति अपने को दूसरी प्रजातियों से श्रेष्ठ मानती है। अमेरिका व अफ्रीका में गोरी प्रजाति ने काली प्रजाति से अपने को श्रेष्ठ घोषित किया है और उसे अनेक सुविधाएँ एवं विशेषाधिकार प्राप्त हैं। अमेरिका का राष्ट्रपति नीग्रो प्रजाति का कोई व्यक्ति नहीं बन सकता है।

(iv) जन्म– जन्म भी सामाजिक स्तरीकरण उत्पन्न करता है। जो लोग उच्चडल, वंश एवं जाति में जन्म लेते हैं, वे अपने को दूसरों से श्रेष्ठ मानते हैं।

(v) शारीरिक व बौद्धिक कुशलता– वर्तमान समय में व्यक्ति की प्रस्थिति एवं स्तर का निर्धारण उसकी शारीरिक एवं मानसिक कुशलता, योग्यता एवं क्षमता के आधार पर होने लगा है। जो लोग अकुशल, पागल, क्षीणकाय, आलसी एवं अयोग्य होते हैं, उनका स्तर उन लोगों से नीचा होता है जो बुद्धिमान, परिश्रमी, हृष्ट-पुष्ट एवं कुशल होते हैं। साम्यवादी देशों में भी इन गुणों के आधार पर स्तरीकरण देखा जा सकता है।

2. सामाजिक-सांस्कृतिक आधार (Socio-Cultural Basis)

सामाजिक स्तरीकरण प्राणिशास्त्रीय आधारों पर ही नहीं, वरन् अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक आधारों पर भी पाया जाता है। उनमें से प्रमुख निम्न प्रकार हैं।

(i) सम्पत्ति– सम्पत्ति के आधार पर भी समाज में स्तरीकरण किया जाता है। आधुनिक समाजों में ही नहीं वरन् आदिम समाजों में भी सम्पत्ति के आधार पर ऊँच-नीच का भेद पाया जाता है। समाज में वे लोग ऊँचे माने जाते हैं जिनके पास अधिक सम्पत्ति होती है। वे सभी प्रकार की विलासिता एवं सुख-सुविधाओं की वस्तुएँ खरीदने की क्षमता रखते हैं। इसके विपरीत, गरीब तथा सम्पत्तिहीन की स्थिति निम्न होती है। सम्पत्ति के घटने एवं बढ़ने के साथ-साथ समाज में व्यक्ति का स्तर भी घटता-बढ़ता रहता है।

(ii) व्यवसाय– व्यवसाय भी सामाजिक स्तरीकरण का प्रमुख आधार है। समाज में कुछ व्यवसाय सम्मानजनक एवं ऊँचे माने जाते हैं तो कुछ निम्न एवं घृणित। डॉक्टर, इंजीनियर, प्रशासक, प्राध्यापक आदि का पेशा, बाल काटने, कपड़े धोने और चमड़े का काम करने वालों के पेशों से श्रेष्ठ एवं सम्मानीय माना जाता है। अतः इन पेशों को करने वालों की स्थिति भी सामाजिक संस्तरण में ऊँची होती है।

(iii) धार्मिक ज्ञान– धर्म प्रधान समाजों में धर्म भी स्तरीकरण उत्पन्न करता है। जो लोग धार्मिक कर्मकाण्डों में संलग्न होते हैं, धार्मिक उपदेश देते हैं एवं धर्म के अध्ययन में मस्त रहते हैं, उन्हें सामान्य लोगों से ऊँचा माना जाता है। भारत में पण्डे-पुजारियों, धार्मिक गुरूओं, साधु-सन्तों एवं ब्राह्मणों की सामाजिक स्थिति उनके धार्मिक ज्ञान और धर्म से सम्बन्धित होने के कारण ही ऊँची रही है। वर्तमान में धर्म के महत्व के घटने के साथ-साथ स्तर निर्धारण में इसका प्रभाव भी कमजोर होता जा रहा है।

(iv) राजनीतिक शक्ति– सत्ता एवं अधिकारों के आधार पर भी समाज में संस्तरण पाया जाता है। जिन लोगों के पास सैनिक शक्ति, सत्ता और शासन की बागडोर होती है, उनकी स्थिति उन लोगों में ऊँची होती है जो सत्ता एवं शक्तिविहीन होते हैं। शासन और शासित का भेद सभी समाजों में पाया जाता है।।

The premier library of general studies, current affairs, educational news with also competitive examination related syllabus.

Related Posts

# मुक्त (खुली) एवं बन्द गतिशीलता : सामाजिक गतिशीलता | Open and Closed Mobility

सोरोकिन के शब्दों में, “एक व्यक्ति या सामाजिक वस्तु अथवा मूल्य अर्थात् मानव क्रियाकलाप द्वारा बनायी या रूपान्तरित किसी भी चीज में एक सामाजिक स्थिति से दूसरी…

# सांस्कृतिक विलम्बना : अर्थ, परिभाषा | सांस्कृतिक विलम्बना के कारण | Sanskritik Vilambana

समाजशास्त्री डब्ल्यू. एफ. आगबर्न ने अपनी पुस्तक ‘Social Change‘ में सर्वप्रथम ‘Cultural lag‘ शब्द का प्रयोग किया। इन्होंने संस्कृति के दो पहलू भौतिक (Material) तथा अभौतिक (Nonmaterial)…

Importance of sociology | benefit of studying sociology

Human is a social being, who is non-existent without society and society cannot stand without its foundation. The relationship between society and man is unbreakable and scholars…

Definition and importance of applied sociology | What is applied sociology

Proponents of applied sociology give priority to applied research in sociology. This research focuses less on acquiring knowledge and more on applying the knowledge in life. Its…

Sociology of values by dr. radhakamal mukerjee

Sociology of values : Dr. Radhakamal Mukerjee is a leading figure in the field of sociology. He created an unprecedented balance between mythological Indian and Western ideas….

What is sociology (meaning and definition of sociology)

Meaning of sociology : The word sociology is made up of the Latin word “Socius” and the Greek word “Logos”. Its literal meaning is “science of society”…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *