मिनर्वा मिल्स लि० बनाम भारत संघ वाद :
मिनर्वा मिल्स लि० बनाम भारत संघ वाद भी अधिकारों एवं निदेशक सिद्धान्तों के साथ संशोधनीयता के प्रश्न से सम्बन्धित है। इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष 42वें संशोधन अधिनियम 1976 की धारा 4 की वैधता को याचीकर्ताओं ने चुनौती दी। इस अधिनियम की धारा 4 द्वारा सभी या किन्हीं निदेशक तत्वों को कार्यान्वित करने के लिए पारित किसी विधि को न्यायिक पुनर्विलोकन से पृथक रखा था, तथा तद्नुरूप अनुच्छेद 31 (C) को संशोधित किया था। सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त अनुच्छेद 31 (C) को जैसा 42वें संविधान संशोधन द्वारा संशोधित किया गया था, असंवैधानिक घोषित कर दिया, कारण कि उक्त संशोधन संविधान के मूलभूत ढांचे को समाप्त करता है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मिनर्वा मिल वाद पांच सदस्यीय पूर्ण पीठ द्वारा सुना गया। न्यायालय ने 4:1 के बहुमत से (न्यायमूर्ति श्री भगवती का मत असहमति में था) निर्णय देते हुए अभिनिर्धारित किया कि –
“42वें संशोधन अधिनियम 1976 की धारा 4 असंवैधानिक है यह आधारभूत ढांचे के विरूद्ध है एवं उसे नष्ट करता है… भाग-4 के निदेशक तत्वों के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु भाग-3 में प्रत्याभूत स्वतंत्रताओं को नष्ट करना, संविधान को और उसके आधारभूत ढांचे को नष्ट करना है…
इस संशोधित धारा-4 की प्रकृति और स्वरूप आधारभूत मौलिक स्वतन्त्रताओं के हृदय को ही चीर देती है….”
– मुख्य न्यायाधीश चन्द्रचूड़
पुनः न्यायालय के मत में –
‘‘संविधान के तीनों अनुच्छेद, 14, 19, एवं 21 स्वतन्त्रता के लिए अपरिहार्य हैं, इस संशोधन ने इनमें से दो को हटा दिया है, जिनके द्वारा ही देश के लोगों को उद्देशिका में दिये गये आश्वासन पूरे हो सकते हैं, साथ ही इस स्वतन्त्रता और समानता के अधिकारों से ही व्यक्ति की गरिमा भी सुरक्षित रह सकती है…।”
न्यायालय की दृष्टि में, संविधान संशोधन द्वारा अनु० 31 में की गयी व्यवस्थायें – “समानता के अधिकार (अनु० 14) एवं मौलिक स्वतन्त्रताओं (अनु० 19) के विरूद्ध हैं जिनका लोकतन्त्र में अस्तित्व आवश्यक है।”
इस वाद में संविधान पीठ के न्यायाधीशों का स्पष्ट मत था कि भाग 4 में निहित निदेशक सिद्धान्तों की प्राप्ति भाग-3 में दिये गये मौलिक अधिकारों के अतिक्रमण के बगैर भी सम्भव है। अधिकारों और निदेशक सिद्धान्तों के बीच कोई संघर्ष नहीं हैं – “एक दूसरे के पूरक हैं।
ये निर्णय संविधान में निहित मूल भावना के भी अनुरूप है, चूंकि भारतीय संस्कृति भी इसी विचारधारा से अनुप्राणित है, अर्थात् किसी साध्य की प्राप्ति के लिए उचित साधन भी होने चाहिए।
सारांशतः मिनर्वा मिल वाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निम्नलिखित संविधान के आधारभूत ढांचे अभिनिर्धारित किये गये –
- संसद की संविधान संशोधन की सीमित शक्ति।
- मौलिक अधिकार एवं निदेशक तत्वों के बीच एकरूपता एवं संतुलन।
- कुछ निश्चित वादों में मौलिक अधिकार एवं
- कुछ मामलों में न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति।
दूसरे, इस मिनर्वा मिल वाद द्वारा “न्यायिक पुनर्विलोकन” शक्ति को आधारभूत ढाँचा स्वीकार किया गया एवं मौलिक अधिकारों और निदेशक सिद्धान्तों के बीच संतुलन और एकरूपता को देश के सभी लोगों के लिए आवश्यक माना गया। न्यायालय ने इस वाद में स्पष्टतः अभिनिर्धारित किया कि “संविधान सर्वोच्च है, संविधान निर्माताओं ने देश के लिए एक लिखित संविधान अंगीकृत किया, इस की लिखित व्यवस्था में संसद की सामान्य विधायी शक्ति और संशोधन शक्ति में स्पष्ट अन्तर है। संसद संविधान संशोधन की असीमित शक्ति नहीं रखती, कि वह पूरे संविधान को ही नष्ट कर सकें, कारण कि संसद उसी संविधान से अस्तित्व में आती है और वही उसकी शक्तियों का स्रोत है।
इसी वाद द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने 42 वें संविधान संशोधन द्वारा अनु० 368 में जो नयी उपधारायें (4), एवं (5) जोड़ी गयी थीं, जिसके द्वारा उपबन्धित किया गया कि अनु० 368 के अधीन किये गये संविधान संशोधन को (चाहें वे 42 वें संशोधन के पूर्व या पश्चात किये गये हैं) न्यायालय में इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है कि इस अनु० में विहित प्रक्रिया का अनुसरण नहीं किया गया। सारांशतः, ये नवीन व्यवस्था एक नयी स्थिति को जन्म देती थी जिसके आधार पर – “किसी भी संवैधानिक विधि मान्यता को किसी भी न्यायालय में किसी भी आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती थी।”
न्यायालय ने मिनर्वा मिल वाद में सर्वसम्मति से अनु० 368 में जोड़ी 42वें संशोधन के उपधारा 55 से जोड़ी गयी धारा (4) एवं (5) को इस आधार पर अवैध घोषित कर दिया कि ये धाराएं “संविधान के आधारभूत ढांचे को नष्ट करती है।” याचिका रखने वालों की ओर से वर्क रखते हुए पालकीवाला ने कहा था – “ये व्यवस्था मौलिक अधिकारों पर निदेशक तत्वों को महत्व देकर आधारभूत संरचना को नष्ट करती है…”
इस दृष्टि से इस वाद में दो बातें पूर्णतः स्पष्ट होती है –
- संसद स्वयं को संशोधन की सीमित शक्ति नहीं दे सकती, संशोधन की सीमित शक्ति आधारभूत ढांचा है।
- दूसरे, न्यायिक पुनर्विलोकन एक आधारभूत तत्व है जिसे संशोधन कर समाप्त नहीं किया जा सकता है।
डा० जयनारायण पाण्डे के भी शब्दों में –
“संविधान संशोधन की सीमित शक्ति और न्यायिक पुनर्विलोकन संविधान के आधारभूत ढांचे के आवश्यक तत्व है।”
सारांशतः सर्वोच्च न्यायालय ने मिनर्वा मिल के इस वाद के पश्चात् व्यक्तिगत स्वतन्त्रता एवं व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को प्रभावित करने के विषय पर पुनर्विलोकन के क्षितिज को और विस्तृत कर दिया, एवं केशवानंद भारती वाद में प्रतिपादित संविधान की आधारभूत संरचना सिद्धान्त को पुनर्जीवित कर दिया।
देश के प्रख्यात विधिवेत्ता पालकीवाला के शब्दों में –
“It has rekindled the light of the constitution of India.”