छत्तीसगढ़ के क्षेत्रीय/स्थानीय राजवंश :
आधुनिक छत्तीसगढ़ प्राचीनकाल में दक्षिण कोसल के नाम से जाना जाता था। प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में दक्षिण कोसल के शासकों का नाम वर्णित है।
छत्तीसगढ़ भू-भाग किसी समय सभ्यता एवं संस्कृति का पुनीत केन्द्र था, इस बात का प्रमाण यहाँ की विभिन्न गुफाओं, शैलचित्रों एवं पाषाण युगीन प्राप्त शवाधोना आदि से मिलता है। प्राचीन इतिहास के आधार पर यहाँ जिन वंशों के शासकों ने शासन किया उनमें से कुछ वंश निम्नलिखित हैं –
बस्तर का नलवंश-
छत्तीसगढ़ में कुछ क्षेत्रीय राजवंशों ने भी शासन किया, उसमें से एक था नलवंश, जिसका पुराण में भी वर्णन है। नलवंश के शासकों की सत्ता विशेषकर बस्तर क्षेत्र में स्थापित होने की जानकारी प्राप्त होती है। इस वंश के राजाओं के चार उत्कीर्ण लेख प्राप्त हुए हैं, जिसमें से दो लेख उड़ीसा के जैपुर राज्य में एक अमरावती व एक रायपुर जिले में मिले हैं। उत्कीर्ण लेखों से विदित होता है कि नलवंश के प्रमुख राजा भवदत्त वर्मन था। कांकेर जिले में अर्डेगा में नल राजाओं के सिक्के प्राप्त हुए हैं।
इतिहासकारों की मान्यता है कि विलासतुंग (राजिम अभिलेख) नलवंश का महत्वपूर्ण शासक था। विलासतुंग पांडुवंशीय महाशिवगुप्त बालार्जुन का समकालीन था, उसने राजिम के राजीव लोचन मंदिर का निर्माण करवाया।
नलवंशी नरेश बस्तर और दक्षिण कोसल में काफी समय तक राज्य करते रहे, संभवतः उनका राज्य सोमवंशियों द्वारा पराजित होने के बाद समाप्त हो गया।
राजर्षितुल्य कुल वंश-
प्राचीन छत्तीसगढ़ में राजर्षितुल्य कुल वंश या सुर शासकों का शासन था, रायपुर जिले के आरंग में प्राप्त ताम्रलेख (610 ई.) से ज्ञात होता है कि इन्होंने 5 वीं से 6 वीं शताब्दी के लगभग तक दक्षिण कोसल में शासन किया, यह ताम्रलेख भीमसेन द्वितीय द्वारा सुवर्ण नदी से प्राप्त किया गया। इस ताम्रलेख के अनुसार राजर्षितुल्य कुल में सबसे पहले सुर नामक राजा हुआ फिर दयित, विभीषण, भीमसेन प्रथम, दयितवर्मन द्वितीय और अन्त में भीमसेन द्वितीय राजा हुए।
शरभपुरीय वंश-
पांचवीं सदी के अन्त में एवं छठवीं सदी के प्रारंभ में दक्षिण कोसल पर एक नये राजवंश की अधिसत्ता स्थापित हुईं थी, जिसे शरभपुरीय वंश के नाम से जाना जाता है इस वंश का सम्बन्ध अमरार्य कुल से माना जाता है। इस वंश का संस्थापक शरभ नाम का राजा था और इसी के नाम पर इसकी राजधानी का नाम शरभपुर पड़ा। इस वंश के प्रमुख शासक नरेंद्र, प्रसन्नमात्र, जयराज, मनमात्र, दुर्गराज, सुदेवराज, प्रवरराज, प्रवरराज द्वितीय थे। छठवीं शताब्दी में शरभपुरीय शासकों के पश्चात् दक्षिण कोसल में पांडुवंश का राज्य स्थापित हुआ।
पाण्डुवंश-
शरभपुरीय वंश की समाप्ति के बाद पाण्डुवंशियों ने दक्षिण कोसल में अपने वर्चस्व की स्थापना की। उन्होंने सिरपुर को अपनी राजधानी बनाया। ये अपने को सोमवंशी पाण्डव कहते थे। पाण्डुवंश की स्थापना उदयन ने की जबकि वास्तविक संस्थापक इंद्रबल था। इस वंश का प्रतापी राजा महाशिवतीवरदेव था, इसके काल में पाण्डुवंशियों की स्थिति काफी सुदृढ़ हुई। महाशिवतीवरदेव ने कोसल, उत्कल और अन्य राज्यों तक अपने राज्य का विस्तार कर “सकल कोसलाधिपति” की उपाधि धारण की, राजिम एवं बालोद से इस राजा के तीन ताम्रलेख भी प्राप्त हुए हैं।
इस वंश के शासक महाशिवगुप्त बालार्जुन के शासनकाल में हर्षगुप्त की मृत्योपरांत हर्ष की रानी वासटा ने अपनी पति की स्मृति में सिरपुर में प्रख्यात लक्ष्मण मंदिर का निर्माण कराया, जो एक विष्णु मंदिर है। महाशिवगुप्त बालार्जुन के शासनकाल को दक्षिण कोसल के इतिहास का स्वर्णकाल माना जाता है।
महाशिवगुप्त बालार्जुन के पश्चात् संभवतः पांडुवंशियों का पतन हो गया।
इस वंश के शासक उदयन, ईशानदेव, नन्नराज/नन्नदेव, महाशिवतिवरदेव, नन्नदेव द्वितीय, चंद्रगुप्त, हर्षगुप्त, महाशिवगुप्त बालार्जुन थे।
बस्तर के छिंदक नागवंश-
ग्यारहवीं सदी के प्रारंभ में दक्षिण कोसल या छत्तीसगढ़ से सम्बद्ध बस्तर क्षेत्र में रतनपुर के कलचुरियों का प्रतिद्वंद्वी नागवंश भी शासन कर रहा था। ये चक्रकोट (आधुनिक चित्रकुट) के छिंदक (कुल का नाम) नाग के नाम से प्रख्यात हुआ। इनकी सत्ता लगभग 400 वर्षों तक कायम रही। इस वंश के बारे में जानकारी कुरुसपाल अभिलेख (सोमेश्वर देव प्रथम) और एर्राकोट अभिलेख (तेलुगु) से प्राप्त होती है। छिंदक नागवंशों में सर्वाधिक प्रसिद्ध राजा सोमेश्वरदेव था, उसने अपने पराक्रम के बल पर एक विशाल राज्य की स्थापना की, उसने उद्र, वेंगी, लंगी, रतनपुर आदि के शासकों को पराजित किया परंतु स्वयं जाजवल्यदेव से पराजित हुआ।
1324 ई. के तोमर अभिलेख में चक्रकोट के छिन्दक नागवंश के राजा हरिश्चन्द्र का उल्लेख है और उसके बाद का कोई उल्लेख नहीं मिलता।
कवर्धा के फणिनागवंश-
छत्तीसगढ़ के कवर्धा क्षेत्र में एक और नागवंश शासन कर रहा था जो फणिनागवंश के नाम से विख्यात था। इस वंश के शासक रतनपुर के कल्चुरि शासकों के अधीन शासन कर रहे थे। इस वंश के संस्थापक अहिराज को माना जाता है।
इस वंश के कुछ राजाओं के अभिलेखों में कल्चुरि संवत का प्रयोग हुआ है।
इस वंश से संबंधित शिलालेख मड़वा महल मंदिर के पास से प्राप्त हुआ है। संप्रतीक यह लेख महंत घासीदास संग्रहालय रायपुर में सुरक्षित है। इस लेख में तिथि विक्रम (जय) संवत् 1460 (ई.सन् 1349) दी हुई है।
कांकेर के सोमवंश-
कांकेर क्षेत्र पर शासन करने वाला एक प्राचीन राजवंश सोमवंश था। कांकेर और उसके आस-पास के स्थानों से प्राप्त अभिलेखों से इस वंश के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। सोमवंशीय राजा भानुदेव का अभिलेख कांकेर से प्राप्त हुआ है। यह अभिलेख शक-संवत् 1242 ई. का है इसमें वंशावली दी गई है।
अभिलेखीय साक्ष्य के अनुसार सोमवंश का प्रथम शासक सिंहराज ज्ञात होता है, सिंहराज के पश्चात् व्याप्रराज, बोपदेव, कर्णराज, कृष्ण, जैतराज, सोमराज व भानुदेव गद्दी पर आसीन हुए।
बाणवंश-
इस वंश का प्रभाव मुख्यतः कोरबा जिला के पाली क्षेत्र में रहा, इसके संस्थापक मल्लदेव थे, इस वंश के प्रमुख शासक विक्रमादित्य ने पाली के शिव मंदिर का निर्माण कराया, पाली में प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि से भव्य मेला का आयोजन होता है। कल्चुरी शासक शंकरगण द्वितीय ने बाणवंशियों को पराजित किया।.