# दुर्खीम के आत्महत्या का सिद्धांत (आत्महत्या के सामाजिक सिद्धान्त) | Durkheim’s Theory of Suicide

दुर्खीम ने 1897 में आत्महत्या (The Suicide) नामक एक अनुपम पुस्तक की रचना की थी। दुर्खीम के समाजशास्त्रीय चिन्तन के क्षेत्र में यह पुस्तक अत्यन्त महत्वपूर्ण थी इन्होंने आत्महत्या से सम्बन्धित अनेक आँकड़ों को एकत्रित करके यह प्रमाणित किया है कि आत्महत्या एक सामाजिक घटना है। अतः सामाजिक घटनाओं या कारणों के आधार पर आत्महत्या की विवेचना की गई है।

आत्महत्या का अर्थ :

आत्महत्या का सामान्य अर्थ आत्म विनाश एवं अपने जीवन का अन्त करना है। अनेक विचारकों ने आत्महत्या को एक वैयक्तिक घटना माना है जो निर्धनता, निराशा एवं उदासीनता की अवस्था में होता है जिसमें स्वयं के द्वारा घटित मृत्यु ही आत्महत्या है परन्तु दुर्खीम आत्महत्या को एक सामाजिक घटना मानते हैं। इन्होंने आत्महत्या की समाजशास्त्रीय परिभाषा में कहा है कि “आत्महत्या का प्रयोग उन सभी मृत्युओं के लिए किया जाता है जो कि स्वयं मृत व्यक्ति के किसी सकारात्मक या नकारात्मक ऐसे कार्य के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष परिणाम होते हैं जिनके बारे में वह जानता है कि वह कार्य इसी परिणाम (मृत्यु) को उत्पन्न करेगा।”

आत्महत्या व्यक्तिगत कारणों की उपज नहीं :

दुर्खीम ने आत्महत्या को व्यक्तिगत घटना नहीं माना है अपितु सामाजिक घटना माना है। अनेक विचारकों का कथन है कि आत्महत्या का कारण पागलपन एवं एकोन्माद होता है जबकि अनेक विचारकों का कथन है कि आत्महत्या के कारण मनोवैज्ञानिक, जैवकीय, प्रजातीय, वंशानुक्रमण, भौगोलिक, मद्यपान, निर्धनता, दुखान्त प्रेम और अनुकरण हैं। दुर्खीम ने आत्महत्या के सम्बन्ध में दिये गये उपर्युक्त कारणों को अस्वीकार किया है क्योंकि इसके आधार पर आत्महत्या की वास्तविक व्याख्या करना असम्भव है क्योंकि ये सभी आत्महत्या के वैयक्तिक कारण हैं जबकि दुर्खीम ने कहा है कि आत्महत्या मूल रूप से एक सामाजिक घटना है अतः आत्महत्या की व्याख्या इस आधार पर नहीं की जा सकती है। आत्महत्या की व्याख्या सामाजिक सन्दर्भ में ही की जा सकती है।

आत्महत्या का सामाजिक तत्व या कारक :

दुर्खीम ने आत्महत्या के व्यक्तिगत कारण का विरोध किया है। इनके अनुसार आत्महत्या के लिए सामाजिक कारक ही उत्तरदायी है। दुर्खीम ने कहा है कि “सामाजिक पर्यावरण की कुछ अवस्थाओं का आत्महत्या के साथ सम्बन्ध अत्यधिक प्रत्यक्ष तथा स्थायी है जबकि आत्महत्या का प्राणिशास्त्रीय तथा भौतिक कारकों के साथ सम्बन्ध उतना ही अनिश्चित तथा अस्पष्ट होता है।” दुर्खीम ने कहा है कि सामाजिक या समाजशास्त्रीय कारणों में ही भौतिक कारण आ जाते हैं इसलिए आत्महत्या का मुख्य तत्व सामाजिक है।

इस सन्दर्भ में उन्होंने कहा है कि स्त्रियां पुरुषों की अपेक्षा कम आत्महत्याएं करती हैं। इसका वास्तविक कारण यह है कि स्त्रियां सामूहिक जीवन में कम भाग लेती हैं जिससे उन्हें समाज के अच्छे-बुरे प्रभाव का अनुभव कम होता है। इसी प्रकार अधिक आयु के व्यक्ति और बालकों के बीच होता है जिसमें बालकों में आत्महत्या की प्रवृत्ति कम होती है यद्यपि इन पर सामूहिक जीवन का प्रभाव कुछ अन्य कारणों से पड़ता है।

दुर्खीम ने कहा है कि जनवरी से जून तक आत्महत्याओं की दर बढ़ती है और उसके बाद घटने लगती है तो इसका कारण यह है कि सामाजिक क्रियाओं में भी इसी के अनुरूप मौसम में उतार-चढ़ाव आता है। अतः स्वाभाविक है कि सामाजिक क्रियाओं के विभिन्न प्रभाव भी ऋतु परिवर्तन के साथ-साथ परिवर्तित होते हैं जिसके कारण प्रथम काल में सामाजिक प्रभाव अधिक होता है जबकि दूसरे काल में प्रभाव कम होता है। अतः आत्महत्या सामाजिक प्रभावों के कारण उत्पन्न होता है। इस प्रकार दुर्खीम के अनुसार आत्महत्या की व्याख्या सामाजिक प्रभावों या समाजशास्त्रीय आधार पर की जा सकती है। ऐच्छिक निश्चित समय पर समाज का नैतिक विधान आत्महत्या के लिए अनुकूल परिस्थिति उत्पन्न करता है। इसलिए जब सामूहिक शक्ति का दबाव पड़ता है तो व्यक्तियों में आत्मविनाश की सम्भावना बढ़ती है। आत्महत्या करने वाले के कार्य जो प्राथमिक अवस्था में उसके वैयक्तिक स्वभाव को व्यक्त करते हुए प्रतीत होते हैं, वास्तव में ये सामाजिक अवस्था के पूरक और विस्तारक होते हैं जिसकी अभिव्यक्ति आत्महत्या के रूप में होती है। दुर्खीम ने इसके सम्बन्ध में कहा है कि “आत्महत्या सामूहिक समूहों के, व्यक्ति जिसका एक भाग है, संश्लेषण के अंग के विपरीत घटित होती है।”

आत्महत्या का सामाजिक सिद्धान्त :

दुर्खीम ने आत्महत्या का आधार समाजशास्त्रीय बताया है। यद्यपि आत्महत्या का कारण वैयक्तिक दिखाई पड़ता है परन्तु वास्तविक रूप में वह सामाजिक अवस्था का परिणाम है। दुर्खीम के अनुसार प्रत्येक सामाजिक समूह में आत्महत्या के लिए अनेक तरीके की एक सामूहिक प्रवृत्ति पायी जाती है जिससे व्यक्तिगत प्रवृत्तियों का उदय होता है। अतः आत्महत्या व्यक्तिगत प्रवृत्तियों का परिणाम न होकर सामूहिक प्रवृत्तियों का परिणाम है। समस्त सामाजिक समूह की ये प्रवृत्तियाँ व्यक्तियों को प्रभावित करती हैं जिसके कारण व्यक्ति आत्महत्या करता है। दुर्खीम ने आत्महत्या के इस आधार को नैतिक एवं पारस्परिक प्रवृत्तियों के आधार पर प्रमाणित किया है।

दुर्खीम के अनुसार सामूहिक नैतिक प्रवृत्तियों के अलावा व्यक्ति की उदासीनता का कारण चारों ओर की तत्कालीन परिस्थितियाँ भी हैं जिनके कारण वह दुःखी होता है। ये परिस्थितियाँ वास्तव में उसका वह समूह है जिसमें वह रहता है और उस समूह का वह एक अंग है। इस प्रकार समाज की परिस्थितियाँ व्यक्ति को आत्महत्या के लिए प्रेरित करती हैं। दुर्खीम का कहना है कि सामाजिक परिस्थितियों में उन प्रवृत्तियों का अत्यधिक महत्व है, जिससे अत्यन्त तीव्रता के साथ मनुष्य प्रभावित होता है और जिसके कारण वह व्यक्ति आत्महत्या के लिए प्रेरित होता है। इस प्रकार आत्महत्या एक सामाजिक घटना है जो सामाजिक परिस्थितियों के द्वारा उत्पन्न की जाती है।

अनेक विचारकों का तर्क है कि यदि आत्महत्या का एक कारण सामाजिक परिस्थितियाँ हैं तो सामाजिक शक्तियाँ समाज में रहने वाले सभी व्यक्तियों को क्यों नहीं प्रभावित करती हैं ? दुर्खीम का इसके सम्बन्ध में जवाब है कि आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वाली शक्तियाँ समाज में क्रियाशील अवश्य रहती हैं परन्तु इनका प्रभाव किसी व्यक्ति पर तब तक नहीं होता है तब तक वह उसे ग्रहण न करे। समाज के अनेक व्यक्ति निर्धनता एवं असन्तुष्ट वैवाहिक जीवन की यातना या अन्य प्रतिकूल अवस्थाओं को सहन कर लेते हैं अर्थात् उसके साथ अपने को अनुकूल बना लेते हैं जबकि कुछ व्यक्तियों में यह असहनीय हो जाती है अर्थात् उसके साथ अनुकूलन नहीं कर पाते हैं जिससे वे अपने को असमर्थ समझकर आत्महत्या का चुनाव कर लेते हैं। इसी प्रकार कुछ व्यक्ति अपने आपको सामाजिक कर्तव्य के प्रति उदासीन कर लेते हैं जबकि कुछ व्यक्ति सामाजिक कर्त्तव्यों के प्रति निष्ठावान होकर अपने प्राणों की आहुति दे देते हैं। अतः आत्महत्या के लिए केवल सामूहिक प्रवृत्ति ही उत्तरदायी नहीं है अपितु उसके प्रति व्यक्ति का व्यक्तिगत प्रत्युत्तर भी आवश्यक है। दुर्खीम ने इस सम्बन्ध में लिखा है, “यह निश्चित ही प्रतीत होता है कि कोई भी सामूहिक भावना व्यक्तियों की प्रभावित नहीं कर सकती है, यदि ये उसके प्रति पूर्णतया विमुख रहें।”

आत्महत्या सम्बन्धी दुर्खीम के निष्कर्ष या आत्महत्या की दर :

दुर्खीम ने सामाजिक दृष्टि से आत्महत्या के सम्बन्ध में विचार किया था। इस विषय पर उन्होंने प्रचुर आँकड़ा एकत्र किया और सांख्यिकी के आधार पर आत्महत्या सम्बन्धी कुछ सामाजिक महत्व के परिणाम व निष्कर्ष निकाले जिसे आत्महत्या की दर कहा जाता है। आँकड़ों के निष्कर्ष के आधार पर उनका विश्लेषण अग्रलिखित है –

1. आत्महत्या की दर जनसंख्या की दृष्टि से प्रत्येक वर्ष लगभग एक-सी रहती है।

2. आत्महत्या शीत ऋतु की अपेक्षा ग्रीष्म ऋतु में अधिक होती है।

3. स्त्रियों की अपेक्षा पुरुष अधिक आत्महत्याएँ करते हैं।

4. आत्महत्याएँ कम आयु की अपेक्षा अधिक आयु वाले व्यक्तियों में अधिक होती हैं।

5. गाँवों की अपेक्षा शहरों में आत्महत्याएँ अधिक होती हैं।

6. सैनिकों में आम जनता की अपेक्षा आत्महत्याएँ अधिक होती हैं।

7. कैथोलिकों की अपेक्षा प्रोटेस्टेण्टों में आत्महत्याएँ अधिक पायी जाती हैं।

8. विवाहितों की अपेक्षा अविवाहितों, विवाह विच्छेद से पृथक् व्यक्तियों में, विधवाओं, और विधुरों में आत्महत्याओं की दर अधिक पायी जाती है।

9. विवाहितों में भी सन्तानहीन व्यक्तियों में सन्तानयुक्त व्यक्तियों की अपेक्षा आत्महत्या की दर अधिक होती है।

दुर्खीम के अनुसार अविवाहित, तलाकशुदा व्यक्ति, विधवा, विधुर एवं ऐसे लोगों में जिनका वैवाहिक जीवन सुखी नहीं रहता है, आत्महत्याएँ ये लोग अधिक करते हैं जिन पर परिवार एवं समूह या समाज का प्रभाव उपेक्षित रहता है। स्वस्थ एवं सुखी पारिवारिक जीवन के लिए पारिवारिक एवं सामाजिक प्रेम, स्नेह, एवं सहयोग की आवश्यकता होती है जिससे आत्महत्या की प्रवृत्ति विकसित नहीं होती है। दुर्खीम का कहना है कि परिवार या समाज से जब व्यक्तियों को अनुकूल परिस्थितियाँ मिलती हैं तब आत्महत्या की ओर उसका ध्यान नहीं जाता है। धार्मिक दृष्टिकोण से भी आत्महत्या नैतिक आदर्शों पर आधारित होती है इसीलिए कैथोलिकों में प्रोटेस्टेण्टों की अपेक्षा आत्महत्या की प्रवृत्ति कम होती है। इसके बारे में दुर्खीम का कहना है कि प्रोटेस्टेण्ट धर्म में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर अधिक बल दिया गया है। इस धर्म में प्रत्येक विषय एवं क्षेत्र में स्वतन्त्रतापूर्वक विचार करने, अर्थ लगाने और तर्क करने के बाद निर्णय लेने की प्रवृत्ति होती है। व्यक्तिगत प्रयत्नों में सफलता एवं असफलता दोनों प्राप्त होती है। असफलता प्राप्त होने पर व्यक्तिगत विघटन के कारण व्यक्तियों में आत्महत्या की प्रवृत्ति का विकास होता है।

दुर्खीम का विचार है कि प्रोटेस्टेण्ट विचारकों के कारण वैज्ञानिक आविष्कार अवश्य होता है परन्तु व्यक्तियों में अनिश्चितता एवं असफलता के कारण आत्महत्या की दर का विकास होता है क्योंकि वे सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल होने में असमर्थ हो जाते हैं। इस प्रकार दुर्खीम के अनुसार जब व्यक्ति सामाजिक परिस्थितियों से अपना अनुकूलन नहीं कर पाता है तो उसमें आत्महत्या की प्रवृत्ति का विकास होता है। इन्होंने आत्महत्या के जो आँकड़े प्रस्तुत किये हैं उसमें उन्होंने यहीं दिखाया है कि जिसमें आत्महत्या की प्रवृत्ति अधिक होती है, वे सामाजिक परिस्थितियों के प्रतिकूल होकर ऐसा कदम उठाते हैं।

दुर्खीम के अनुसार आत्महत्या के प्रकार :

दुर्खीम के अनुसार आत्महत्या एक सामाजिक घटना है जिसके लिए सामाजिक कारक ही उत्तरदायी है। अतः आत्महत्या मनोवैकारिकीय, मनोवैज्ञानिक एवं प्राकृतिक कारणों से उत्पन्न नहीं होती है। दुर्खीम ने आत्महत्या के सामाजिक कारकों को सिद्ध करने के लिए आत्महत्याओं के तीन सामाजिक प्रारूपों को निश्चित किया है, जो निम्न हैं-

  1. अहमवादी आत्महत्या (Egoistic Suicide),
  2. अस्वाभाविक आत्महत्या (Anomie Suicide),
  3. परार्थवादी आत्महत्या ( Altruistic Suicide)।

1. अहमवादी आत्महत्या

दुर्खीम के अनुसार जब व्यक्ति यह एहसास करता है कि उसका समूह या समाज उसकी अवहेलना, तिरस्कार, घृणा एवं बहिष्कार करता है और उसके आत्म-सम्मान को आघात पहुँचाता है तो ऐसी अवस्था में वह आत्महत्या के लिए प्रेरित होता है। इसे अहमवादी आत्महत्या कहा जाता है क्योंकि इसमें मान-सम्मान की रक्षा के उद्देश्य से आत्महत्या की जाती है। दुर्खीम के अनुसार जब व्यक्ति और समाज का सम्बन्ध कटु हो जाता है तो व्यक्ति को यह महसूस होता है कि उसका समाज में कोई नहीं है ऐसी स्थिति में व्यक्ति आत्महत्या करता है। इस प्रकार अहमवादी आत्महत्या व्यक्ति और समाज के अव्यवस्थित सम्बन्ध के कारण होती है जिसमें व्यक्ति के सम्मान को ठेस पहुँचती है जिसके निराकरण के लिए व्यक्ति आत्महत्या का सहारा लेता है। अहमवादी आत्महत्या के लिए परिवार, धर्म एवं राजनीतिक समाज उत्तरदायी है।

दुर्खीम ने परिवार के सम्बन्ध में कहा है कि जब परिवार में एकता एवं संगठन पाया जाता है तो परिवार के सदस्यों में आत्महत्या की प्रवृत्ति बहुत कम होती है परन्तु जब व्यक्ति परिवार के लगाव से वंचित हो जाता है या व्यक्ति परिवार से उपेक्षित हो जाता है तो वह अपने को अकेला महसूस करता है ऐसी स्थिति में अहमवादी प्रवृत्ति का विकास होता है। इस सम्बन्ध में दुर्खीम का कथन है कि “परिवार आत्महत्या के विरुद्ध एक शक्तिशाली बचाव है, इसी कारण इसका संगठन जितना दृढ़ होगा, उतना ही आत्महत्या से हमारा अधिक बचाव सम्भव होगा।”

2. अस्वाभाविक आत्महत्या

दुर्खीम के अनुसार अस्वाभाविक आत्महत्या व्यक्ति के जीवन में आये एकाएक परिवर्तन से अस्वाभाविक परिस्थितियों के कारण उत्पन्न होता है। जब व्यक्ति के सामने एकाएक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है जिससे वह अनुकूलन नहीं कर पाता है तो मानसिक तनाव की अवस्था उपस्थित हो जाती है जिससे वह आत्महत्या करता है। जैसे एकाएक दिवालिया होने, बड़ी लाटरी आने, अत्यधिक प्रसन्नता एवं दुःख होने पर व्यक्ति द्वारा आत्महत्या करना अस्वाभाविक आत्महत्या है। इस प्रकार की आत्महत्या उस समय होती है जब व्यक्ति के सामाजिक या सामूहिक जीवन में अस्वाभाविक परिवर्तन के कारण उसके कष्टों में वृद्धि होती है और वह उन्हें सहन नहीं कर पाता है तो आत्महत्या की ओर प्रेरित होता है। इस प्रकार समाज में अस्वाभाविक परिस्थितियाँ आत्महत्या के लिए उत्तरदायी हैं। इन्होंने तीन प्रकार की अस्वाभाविकता का वर्णन किया है- आर्थिक अस्वाभाविकता, पारिवारिक अस्वाभाविकता और यौन अस्वाभाविकता।

3. परार्थवादी आत्महत्या

परार्थवादी आत्महत्या में व्यक्ति दूसरों के लिए आत्महत्या करता है। दुर्खीम के अनुसार जब व्यक्ति का समाज के साथ अत्यधिक घनिष्ठ सम्बन्ध हो जाता है तो व्यक्ति अपने समाज के लिए आत्महत्या या आत्मबलि करता है। इस अवस्था में समाज में अत्यधिक एकता देखने को मिलती है। इसमें आत्महत्या को एक कर्तव्य के रूप में स्वीकार किया जाता है। जैसे—भारत की राजपूत रानियाँ राजपूत गौरव को बनाये रखने के लिए आग में कूदकर सामूहिक आत्महत्या (जौहर) करती थीं। दुर्खीम इस सम्बन्ध में कहते हैं—“घोर परमार्थ के कारण घटित आत्महत्या को ही हम परमार्थी आत्महत्या कहते हैं।” इसके तीन प्रकारों का उल्लेख दुर्खीम ने किया है— १. अनिवार्य परमार्थ, २. ऐच्छिक परमार्थ, ३. उग्र परमार्थ।

१. अनिवार्य परमार्थ – दुर्खीम के अनुसार अनिवार्य परमार्थ आत्महत्या में व्यक्ति सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्यों के लिए आत्महत्या करता है। इसमें व्यक्ति का सम्बन्ध समाज एवं धर्म से इतना अटूट होता है कि वह उसके लिए अपने जीवन को समाप्त कर देता है। ऐसे समाज में व्यक्ति की अपनी इच्छा का कोई महत्व नहीं होता है। समाज और धर्म भी उसे आत्महत्या के लिए मजबूर कर सकता है।

२. ऐच्छिक परमार्थ – ऐच्छिक परमार्थ आत्महत्या में व्यक्ति की इच्छा इस बात पर निर्णय करती है कि वह आत्महत्या करे या न करे। जब व्यक्ति परमार्थ के लिए आत्महत्या अपनी इच्छा से करता है तो ऐच्छिक परमार्थ आत्महत्या होती है, इसमें व्यक्ति कुछ विशेष परिस्थितियों एवं नैतिक दृष्टि से आत्महत्या करता है। इस आत्महत्या के साथ सामाजिक प्रतिष्ठा जुड़ी रहती है। जैसे – किसी व्यक्ति ने कोई निन्दनीय काम किया है जिससे उसका एवं उसके परिवार का सिर शर्म से झुक जाता है तो उसके अन्दर यह भावना उत्पन्न होती है कि परिवार एवं समाज उससे आत्महत्या की माँग कर रहा है। ऐसी स्थिति में वह अपनी इच्छा से आत्महत्या करने के लिए प्रवृत्त होता है जिससे उसका एवं परिवार की खोई हुई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त हो जाए।

३. उग्र परमार्थ – दुर्खीम के अनुसार उग्र परमार्थ आत्महत्या में व्यक्ति बलिदान का सम्पूर्ण सुख या आनन्द प्राप्त करने के लिए अपने को मार डालते हैं। जब व्यक्ति का यह उद्देश्य होता है कि मृत्यु ही मोक्ष है तो वह आत्महत्या करके मोक्ष को पाना चाहता है। उग्र परमार्थ का सार तत्व है अपने जीवन को समाप्त करना। दुर्खीम ने भारतीय सन्दर्भ में इस आत्महत्या का उल्लेख किया है। क्योंकि भारतीय दर्शन के अनुसार जीवन का अन्तिम सत्य मोक्ष है और मोक्ष की प्राप्ति मृत्यु से ही हो सकती है। अतः बहुत से लोग स्वेच्छा से अपने शरीर को समाप्त कर देते थे।

आत्महत्या को कम करने के उपाय :

दुर्खीम ने आत्महत्या को कम करने का उपाय भी बताया है। इनका कहना है कि प्रत्येक समाज में आत्महत्याओं का कुछ होना स्वाभाविक है परन्तु आत्महत्या की घटना अधिक हो रही है तो इसे एक व्याधिकीय घटना के रूप में लेना चाहिए। आधुनिक युग में आत्महत्याओं की घटनाएँ अधिक हो रही हैं अतः इनको कम करने का प्रयास करना चाहिए। दुर्खीम ने इस सन्दर्भ में रचनात्मक सुझाव दिया है कि परिवार, समाज, राजनीति, धर्म में शिक्षा के माध्यम से इसको कम किया जा सकता है। पति-पत्नी के वैवाहिक सम्बन्धों में मधुरता का वातावरण उपस्थित करना चाहिए। इन्होंने कहा कि व्यावसायिक समूह एवं निगम आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। अतः इनमें ऐसा वातावरण बनाना है जिससे एक सामंजस्य बना रहे और आत्महत्या की प्रवृत्ति को कम किया जा सकता है।

मूल्यांकन :

दुर्खीम के आत्महत्या सम्बन्धी सिद्धान्तों की अनेक विचारकों ने कटु आलोचना की है। इन आलोचकों का कहना है कि दुर्खीम ने समाज, सामाजिक जीवन और सामूहिक वातावरण को ही सब कुछ मान लिया जिसके कारण आत्महत्याएँ होती हैं जबकि आत्महत्याओं के लिए वैयक्तिक कारण उत्तरदायी होते हैं। दुर्खीम ने व्यक्तिगत कारणों की अवहेलना करके अपने आत्महत्या सिद्धान्त को एकांकी एवं अतार्किक बना दिया।

बोगार्ड्स का कथन है कि “आत्महत्या की पिछली व्याख्याओं को संशोधित करने के प्रयास में दुर्खीम सामाजिक कारकों को ही सब कुछ मान लेने की भूल कर बैठे हैं। उन्होंने सामाजिक कारक के अलावा किसी अन्य कारक के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ा।”

दुर्खीम के आत्महत्या के सिद्धान्त को पूर्णतः सत्य अवश्य नहीं माना जा सकता है क्योंकि अन्य विचारकों के सिद्धान्तों के समान इनके आत्महत्या के विचारों में त्रुटियाँ अवश्य हैं परन्तु आत्महत्या के सम्बन्ध में दुर्खीम ने जिस सिद्धान्त की स्थापना की है उससे प्राप्त होने वाले ज्ञान के महत्व को अस्वीकार करने का साहस कोई अच्छा विचारक या आलोचक नहीं कर पाया है। आज का समाजशास्त्र दुर्खीम के आत्महत्या के समाजशास्त्रीय सिद्धान्त का ऋणी है। उनका आत्महत्या को सामाजिक घटना मानना और सामाजिक कारणों के आधार पर आत्महत्या को सिद्ध करना अतुलनीय सिद्धान्त है। इन्होंने कहा है कि व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है, व्यक्ति का सामाजिक जीवन जितना असंगठित होगा उसके लिए आत्महत्या करने की सम्भावना उतनी ही अधिक होगी। अतः आत्महत्या को रोकने के लिए सामाजिक संगठन एवं एकता का मजबूत होना अत्यन्त आवश्यक है।

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