# दुर्खीम के प्रकार्यवाद का सिद्धांत (Durkheim Ke PrakaryaVaad Ka Siddhant)

दुर्खीम के प्रकार्यवाद का सिद्धांत :

समाजशास्त्र में प्रत्यक्षवाद के साथ ही साथ प्रकार्यवादी सोच का एक विशेष स्थान रहा है। प्रकार्यवादी सोच को विकसित करने वाले समाजशास्त्रियों में जिन दो विचारों को महत्वपूर्ण माना जाता है उसमें इमाईल दुर्खीम (1858-1917) तथा टालकाट पार्सन्स (1902-1979) प्रमुख रहे हैं। अमेरीकी समाजशास्त्र में प्रकार्यवादी सिद्धान्त का एक खास स्थान रहा है। प्रकार्यवादी सिद्धान्त के समर्थक यह मानते हैं कि समाज की क्रियाएँ व्यवस्थित तरीके से चलती है और इसलिए वह समाज को एक व्यवस्था के रूप में देखते हैं।

सामाजिक व्यवस्था को व्यवस्थित रूप से चलाए रखने में विभिन्न तत्वों के बीच आत्मनिर्भरता पाई जाती है। समाज के इन विभिन्न तत्वों के बीच आत्मनिर्भरता पाई जाती है। समाज के यह विभिन्न तत्व एक सम्पूर्ण व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं। अतः समाज एक सम्पूर्ण व्यवस्था है जिसके व्यवस्थित स्वरूप बनाए रखने में विभिन्न समूहों तथा संस्थाओं का महत्वपूर्ण योगदान होता है। समाजशास्त्र में प्रकार्यवादी सिद्धान्त के जनक इमाइल दुर्खीम को माना जाता है जिन्होंने यह बताया था कि समाज में एकता बनाए रखने के लिए धर्म; नैतिक आधार प्रदान करता है। धर्म के आधार पर समाज के नैतिक मूल्य समाज के एकाकी स्वरूप को पुष्ट करते हैं।

इमाइल दुर्खीम ने निम्न चार प्रमुख पुस्तक लिखी :

  1. The Division of Labour in Society (1893)
  2. The Rules of Sociological Method (1895 )
  3. Suicide (1897)
  4. Elemenary Forms of the Religions Life (1912)

इन लिखित पुस्तकों में दुर्खीम ने व्यवस्थित तरीके से अपने विचारों को प्रतिपादित किया है। दुर्खीम द्वारा प्रतिपादित सामाजिक तथ्य की अवधारणा उनकी पुस्तक ‘The Rules of Sociological Method‘ में विस्तार से की है। दुर्खीम के सामाजिक तथ्य का विचार हर्बट स्पेन्सर द्वारा व्यक्तिवादी विचारों से बिल्कुल भिन्न हैं। उनका मत था कि जितनी भी सामाजिक क्रियाएं हैं, उसका विश्लेषण सामाजिक संदर्भ के अधीन ही किया जाना चाहिए, अर्थात् सामाजिक क्रियाओं को समझने का आधार समाज है। इसलिए व्यक्ति या मनोविज्ञान को आधार मानकर जो समाजशास्त्री अध्ययन किए जाते है, उसे सदा अवैज्ञानिक मानते हैं। समाजशास्त्र की परिभाषा देते हुए उन्होंने समाजशास्त्र को “सामाजिक तथ्यों का अध्ययन बताया है।”

उनका यह कहना था कि जिस प्रकार सभी विषय अपने-अपने अध्ययन विषय का चयन करते हैं, उसी प्रकार समाजशास्त्रियों को भी सामाजिक तथ्य का अध्ययन विशेष रूप से करना पड़ता है। अब प्रश्न उठता है कि सामाजिक तथ्य क्या है? उन्होंने सामाजिक तथ्य का विश्लेषण विस्तार से किया है उनका कहना था कि सामाजिक तथ्य ही समाजशास्त्रीय अध्ययन का प्रमुख अध्ययन क्षेत्र है। सामाजिक तथ्य को एक ऐसा तथ्य मानते हैं, जो वस्तुनिष्ठ होता है, और इसका निरिक्षण हम सभी वस्तु के रूप में कर सकते हैं। इसलिए सामाजिक तथ्य को एक वस्तु, एक चीज, एक भौतिक पदार्थ के रूप में देखा है और जिस प्रकार एक भौतिक पदार्थ का अध्ययन भौतिकी विज्ञान में किया जाता है, उसी प्रकार का अध्ययन सामाजशास्त्री सामाजिक तथ्य का अध्ययन करते हैं।

दुर्खीम के द्वारा सामाजिक तथ्यों का जो विश्लेषण किया गया है, उसके आधार पर “सोशल फैक्ट्स” की निम्न विशेषताओं का उल्लेख किया जाता है –

  1. बाह्यपन (Externality)
  2. आन्तरिक (Internality or Constraint)
  3. सार्वभौमिक (Universality)
  4. वस्तुनिष्ठ (Objective)

1. बाह्यपन

दुर्खीम ने ‘सोशल फैक्टस‘ सामाजिक तत्व की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए यह बताया की सामाजिक तथ्य मनुष्य के बाहर रहता है मनुष्य के बाहर रहते हुए भी यह उसके विचारों को प्रभावित करता है। चूँकि सामाजिक तथ्य मनुष्य के बाहर रहता है इसलिए इसे समझना आसान हो जाता है।

2. आन्तरिक

यद्यपि सामाजिक तथ्य मनुष्य के बाहर रहता है परन्तु यह व्यक्ति को प्रभावित करता है। इसके प्रभाव तथा महत्व को सभी अपने अन्दर महसूस कर सकते हैं। उदाहरणस्वरूप समाज के जो अनुमोदन (Sanction) हैं, उसका मनुष्य के ऊपर उसके व्यवहार को नियंत्रित करने में एक प्रकार का दबाव होता है। जिसके कारण व्यक्ति अपने व्यवहार को नियंत्रित करता है।

3. सार्वभौमिकता

सामाजिक तथ्यों का स्वरूप सार्वभौमिक होता है, अर्थात् यह सभी व्यक्ति के चेतन अवस्था को समान रूप से प्रभावित करता है। इस रूप में यह कहा जा सकता है कि सामाजिक तथ्य, सामाज के सभी व्यक्तियों को प्रभावित करते हैं, इसलिए यह मनुष्य के सामूहिक जीवन में समान रूप से अपना प्रभाव बनाकर रहता है। उदाहरण के लिए यह कहा जा सकता है कि जब हम धर्म की बात करते हैं तब यह स्वीकार करते हैं कि धार्मिक विश्वास तथा उसके अनुरूप उपासना करना सभी व्यक्ति के सामूहिक जीवन का एक अंग होता है। अर्थात् यह कहा जा सकता है कि तथ्यों के दो स्वरूप होते हैं- एक स्वरूप वह है जो व्यक्ति तक ही सीमित रहता है और दूसरा स्वरूप उसका सामाजिक स्वरूप है जो उसके कार्य करने की पद्धति, सोचने की पद्धति को व्यक्तिगत रूप से भी प्रभावित करता है। इसके साथ तथ्य का एक दूसरा सामाजिक स्वरूप भी होता है, जिसके कारण व्यक्ति के बजाय पूरा समाज उससे प्रभावित रहता है।

जहाँ तक दुर्खीम द्वारा दिए गए सामाजिक तथ्य की अवधारणा का प्रश्न है, दुर्खीम ने सामाजिक तथ्य के सामाजिक स्वरूप का विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने आत्महत्या के विवेचन में इस बात का विस्तार से वर्णन किया है कि आत्महत्या यद्यपि एक व्यक्ति के व्यक्तिगत सोच से जुड़ी होती है, परन्तु जब यह व्यक्तिगत सोच सामाजिक सोच का रूप ले लेती है, तब इसका एक सामूहिक स्वरूप भी हो जाता है जिसके कारण समाज भी प्रभावित होता है। इसलिए उन्होंने आत्महत्या को एक सामाजिक तथ्य के रूप में समाजशास्त्रीय अध्ययन किए जाने पर बल दिया।

4. वस्तुनिष्ठ

जब सामाजिक तथ्य को वस्तुनिष्ठ कहा जाता तो इससे अभिप्राय यह होता है कि कैसे इस तथ्य का अध्ययन बिना किसी पूर्वाग्रह के किया जा सके। आत्महत्या के अध्ययन में उन्होंने यह पाया की आत्महत्या के बारे में पहले से ही कुछ मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किए गए थे। उनकी यह मान्यता थी कि आत्महत्या का विश्लेषण न तो जैविकीय आधार पर किया जाना चाहिए और न ही मनोवैज्ञानिक आधार पर। उन्होंने इन दोनों सिद्धांतों का खंडन करते हुए यह बताया कि आत्महत्या की वारदातों का एक सामाजशास्त्रीय अध्ययन किया जाना चाहिए, और इसलिए उन्होंने पूर्वनिर्धारित सोच की आलोचना करते हुए आत्महत्या का एक नए सोच के तहत सामाजशास्त्रीय विश्लेषण प्रस्तुत किया। उन्होंने पाया कि जब व्यक्ति सामाज के साथ अपने आपको अलग महसूस करने लगता है तब आत्महत्या करने की संभावना बढ़ जाती है। धर्म में आस्था रखने वाले व्यक्ति में आत्महत्या करने की संभावना अपेक्षाकत कम होती है। इसी प्रकार उनका मानना था कि विवाहित व्यक्ति के बजाय अविवाहित व्यक्ति में आत्महत्या करने की प्रवति ज्यादा पाई जाती है। इस प्रकार दुर्खीम ने आत्महत्या को एक सामाजिक तथ्य मानकर उसके सामाजिक संदर्भ में विश्लेषण करने पर ज्यादा महत्व दिया।

इसके अतिरिक्त सामाजिक तथ्य की विशेषता को बताते हुए उन्होंने सामाजिक तथ्य को एक स्वतंत्र इकाई के रूप में देखा। उन्होंने सामाजिक तथ्य को सुई जेनिरिस (Sui Generis) कहा है। सुई जेनेरिस से तात्पर्य, सामाजिक तथ्य का एक स्वतंत्र रूप से अपना अस्तित्व बनाकर रखना है। सामाजिक तत्व को उन्होंने एक वस्तु माना है। अर्थात सामाजिक तथ्य उतना ही मूर्त्त है जितना एक वस्तु या चीज होती है। इन्हें किसी और तत्व की आवश्यकता नहीं होती इसलिए यह स्वतंत्र होते हैं।

इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि दुर्खीम द्वारा प्रतिपादित सामाजिक तथ्य की अवधारणा एक वैज्ञानिक अवधारणा है जिसके द्वारा उन्होंने समाजशास्त्र में तथ्यों का सामाजिक विश्लेषण के आधार को वैज्ञानिक कसौटी पर स्थापित करने की कोशिश की है। जिस प्रकार का विश्लेषण दुर्खीम ने प्रस्तुत किया है वह वास्तव में अगस्त कॉन्ट द्वारा दिए गए प्रत्यक्षवाद के सिद्धांत को ही पुष्ट करता है।

The premier library of general studies, current affairs, educational news with also competitive examination related syllabus.

Related Posts

# सांस्कृतिक विलम्बना : अर्थ, परिभाषा | सांस्कृतिक विलम्बना के कारण | Sanskritik Vilambana

समाजशास्त्री डब्ल्यू. एफ. आगबर्न ने अपनी पुस्तक ‘Social Change‘ में सर्वप्रथम ‘Cultural lag‘ शब्द का प्रयोग किया। इन्होंने संस्कृति के दो पहलू भौतिक (Material) तथा अभौतिक (Nonmaterial)…

Importance of sociology | benefit of studying sociology

Human is a social being, who is non-existent without society and society cannot stand without its foundation. The relationship between society and man is unbreakable and scholars…

Definition and importance of applied sociology | What is applied sociology

Proponents of applied sociology give priority to applied research in sociology. This research focuses less on acquiring knowledge and more on applying the knowledge in life. Its…

Sociology of values by dr. radhakamal mukerjee

Sociology of values : Dr. Radhakamal Mukerjee is a leading figure in the field of sociology. He created an unprecedented balance between mythological Indian and Western ideas….

What is sociology (meaning and definition of sociology)

Meaning of sociology : The word sociology is made up of the Latin word “Socius” and the Greek word “Logos”. Its literal meaning is “science of society”…

# सिद्धान्त निर्माण का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, महत्व | सिद्धान्त निर्माण के प्रकार | Siddhant Nirman

सिद्धान्त निर्माण : सिद्धान्त वैज्ञानिक अनुसन्धान का एक महत्वपूर्ण चरण है। गुडे तथा हॉट ने सिद्धान्त को विज्ञान का उपकरण माना है क्योंकि इससे हमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *