छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक पृष्ठभुमि/धरोहर :
लगभगग 700 वर्षों (ई. 6वीं सदी से 14वीं सदी) का काल छत्तीसगढ़ के इतिहास का एक ऐसा चरण रहा है, जब इस अंचल में अनेक राजवंशों ने शासन किया, यथा – शरभपुरीय, पाण्डुवंशी, नलवंश, नागवंश, राजर्षितुल्य कुल आदि राजवंशों ने अपने विविध भूमिकाएं प्रस्तुत की। इन राजवंशों द्वारा अपनी पृथक पृथक परंपराओं और कला-शैलियों को अपनी व्यक्तिगत अभिरुचि के आधार पर विकसित किया गया। उन्होंने गुप्तयुगीन कला की शास्त्रीय परंपराओं को अपने संस्कारों के आधार पर पल्लवित किया। जिसके फलस्वरूप आज छत्तीसगढ़ में अद्भुत देवालय तथा देव प्रतिमाओं के नयनाभिराम दृश्यों का अवलोकन किया जा सकता है। इन राजवंशों के प्रसिद्ध कला केंद्र के रूप में मल्हार, अड़भार, सिरपुर, राजिम आदि स्थल है।
कल्चुरियों के इस क्षेत्र में आगमन के साथ ही कला और संस्कृति में और भी विकास हुआ, इन्होंने रतनपुर को अपना केंद्र बनाया। शैव, वैष्णव, शाक्त, बौद्ध, जैन धर्मों के विकास होने का पूर्ण, अवसर तथा प्रोत्साहन कल्चुरी नरेशों जैसे – जाजल्लदेव तथा पृथ्वीदेव, आदि से मिला।
अनेक प्रमुख धर्मों के प्रचलन के साथ साथ अनेक धार्मिक मठों एवम् विहारों का भी अस्तित्व यहां रहा है तथा समाज के द्वारा इनकी ग्राह्यनीतियों को समर्थन भी मिला। कल्चिरियों के सिक्कों में गरुड़, नंदी तथा गजलक्ष्मी और मंदिरों पर शाक्त, वैष्णव, बौद्ध, जैन आदि संप्रदायों के अभिप्राय स्वतंत्र रूप से अंकित एवम् उत्कीर्ण किए गए जिससे उनके “परम शैव” या परम माहेश्वर होते हुए भी अन्य संप्रदायों के प्रतीकों को स्थान दिए जाने का प्रमाण मिलता है। इसी तरह सिरपुर के पाण्डुवंशी शासक वैष्णव होते हुए भी बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को मानते थे जिसका प्रमाण वहां से मिलने वाले बौद्ध स्मारक मूर्तियां है।
प्राचीन छत्तीसगढ़ में गौण धर्म तथा देवालयों जैसे- सूर्य, गणेश, ब्रह्मा, कार्तिकेय आदि की पूजा का प्रचार था तथा वे मध्यकालीन भारत की सुप्रसिद्ध पंचायतन पूजा के प्रतिनिधि के रूप में भी प्रतिष्ठित थे।
संस्कृति :-
छत्तीसगढ़ की संस्कृति के संबंध में अनेक विद्वानों का मत है कि यहां की संस्कृति मिश्रित संस्कृति की श्रेणी में आती है।
मिश्रित संस्कृति से अभिप्राय है कि यहां किसी संस्कृति की विशिष्टता नहीं पाई जाती है। अनेक जनजातियां विशिष्टताओं को समेटे हुए संपूर्ण छत्तीसगढ़ की संस्कृति को एक अनोखा स्वरूप प्रदान करती है, जिसकी कुछ शब्दों में व्याख्या करना संभव नहीं है। भारत के मध्य में अवस्थित होने के कारण सैकड़ों वर्षो से अनेक वर्ण, जाति और संप्रदाय के लोग यहां आकर बसते रहते हैं। भौगोलिक कारणों से यहां अरण्यक जनजातियों का भी बाहुल्य रहा है। छत्तीसगढ़ की संस्कृति आंचलिक अथवा प्रादेशिक संस्कृति की ही एक उपधारा है। जिस तरह से भारतीय संस्कृति एक मिश्रित संस्कृति है आर्य तथा आर्योत्तर दोनों प्रकार की सभ्यताओं ने मिलकर इसका निर्माण किया है तथा दोनों के प्रभाव को ग्रहण करते हुई यह अपने वर्तमान रूप में पहुंची।
संस्कृति की पहचान मुख्य रूप से धार्मिक मान्यताओं के रूप में होती है, तत्पश्चात लोगों के रहन-सहन, खानपान और बोलचाल भाषा आदि पर दृष्टिपात किया जा सकता है। छत्तीसगढ़ में भी स्पष्ट रूप से यहां की संस्कृति का अध्ययन करने के लिए सर्वप्रथम छत्तीसगढ़ के धार्मिक विचार धाराओं का अवलोकन करना होगा।
धर्म वह है जो शास्त्रों द्वारा निर्देशित हो, शास्त्रों के अनुसार धर्म को अदृश्य अलौकिक कहा जाता है। छत्तीसगढ़ की धार्मिक परंपरा का अवलोकन करने से यह दृष्टिगोचर होता है कि इस क्षेत्र में धर्म का अस्तित्व किंवदंतियों के उस युग से आरंभ होता है जहां इतिहासविद दृष्टिपात करने का साहस नहीं करते है।
वर्तमान छत्तीसगढ़ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से ज्ञात होता है कि यह रामायणकालीन दंडकारण्य को अपने में समेटे हुए हैं तथा महाकांतर का ही एक भाग है। यह भू-भाग सहस्त्रार्जुन का कर्मक्षेत्र रहा है। भगवान श्री रामचंद्र ने अपने वनवास काल के अधिकतम समय यही व्यतीत किया था।
छत्तीसगढ़ में प्राचीन काल से ही अनेक धार्मिक मतों का प्रचलन था। वैष्णव, शैव, बौद्ध आदि मत यहां के निवासियों के द्वारा अपनाए जाने के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं।
कलचुरी कालीन प्राचीन शासक यहां कट्टर शैव मतावलंबी थे जिसका प्रमाण उनकी पदवियों द्वारा मिलता है जिसमें उन्होंने स्वयं को “परम माहेश्वर” आदि पदवियों से विभूषित किया है।
वैष्णव धर्म का अस्तित्व छत्तीसगढ़ में रामायण काल से माना जाता है, यहां बौद्ध धर्म के प्राचीन प्रमाण पांचवी सदी से मिलते हैं।