समाजशास्त्र एक नवीन सामाजिक विज्ञान है जो समाज का समग्र रूप से वैज्ञानिक अध्ययन करता है। समाज का अस्तित्व मानव के अस्तित्व के साथ जुड़ा हुआ है, क्योंकि जब से मानव की उत्पत्ति हुई है, तभी से समाज का जन्म हुआ है और समाज के विषय में अध्ययन मानव चिन्तन के साथ ही प्रारम्भ हो गया था। सामाजिक संस्था, परिवार, विवाह, नातेदारी, राज्य, शिक्षा, संस्कृति, धर्म आदि का विकास एक ओर होता रहा है तो दूसरी ओर मानव इनकी उत्पत्ति, संरचना, प्रकार्य और विकास को समझने का निरन्तर प्रयत्न करता रहा। वास्तव में समाजशास्त्र के उत्पत्ति के पहले समाज को धार्मिक, दार्शनिक, ऐतिहासिक, आर्थिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास किया जाता रहा है।
भारत में समाजशास्त्र का विकास :
भारत में समाजशास्त्र के विकास को तीन युगों में बाँटा जा सकता है
1. प्राचीन भारत में समाजशास्त्र का विकास
प्राचीन भारतीय ग्रन्थों- वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता, स्मृतियों, आदि में सामाजिक चिन्तन का व्यवस्थित रूप देखने को मिलता है। इन ग्रन्थों के सूक्ष्म अवलोकन से ज्ञात होता है कि यहाँ उस समय सामाजिक व्यवस्था काफी उन्नत प्रकार की थी और जीवन के आवश्यक मूल्यों पर गहन चिन्तन प्रारम्भ हो चुका था। साथ ही उस समय सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने वाले आवश्यक तत्वों पर भी गम्भीरता से विचार चल रहा था। उस काल के ग्रन्थों के अध्ययन से पता चलता है कि उस समय वर्णाश्रम व्यवस्था व्यक्ति और समाज के जीवन को किस प्रकार संचालित कर रही थी। यह व्यवस्था व्यक्ति और समाज के बीच सुन्दर समन्वय का एक उत्तम उदाहरण है।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरुषार्थ जीवन के चार प्रमुख उद्देश्य थे, जिन्हें प्राप्त करने के लिए व्यक्ति प्रयत्नशील रहता था और अपने व्यक्तित्व का विकास करते हुए समाजिक-जीवन को उन्नत बनाने में योगदान देता था। उस समय व्यक्ति को इतना महत्व नहीं दिया गया कि वह समाज पर हावी हो जाए और साथ ही समाज को भी इतना शक्तिशाली नहीं माना गया कि व्यक्ति का व्यक्तित्व दबकर रह जाए और वह (समाज) व्यक्ति को निगल जाए।
उस समय के चिन्तक इस बात से परिचित थे कि केवल भौतिकता और व्यक्तिवादिता के आधार पर व्यक्ति के जीवन को पूर्णता प्रदान नहीं की जा सकती। अतः उन्होंने अध्यात्मवाद का सहारा लिया, धर्म के आधार पर व्यक्ति के आचरण को निश्चित करने का प्रयत्न किया। यह सम्पूर्ण सामाजिक चिन्तन समाजशास्त्र के विकास की दृष्टि से अमूल्य सामग्री है।
कौटिल्य (चाणक्य) के अर्थशास्त्र, शुक्राचार्य के नीतिशास्त्र, मनु की मनुस्मृति, मुगल काल में लिखी गयी आईन-ए-अकबरी, आदि ग्रन्थों से पता चलता है कि उस समय सामाजिक व्यवस्था कैसी थी, किस प्रकार के रीति-रिवाज, सामाजिक प्रथाएँ, परम्पराएँ और आचरण सम्बन्धी आदर्श-नियम प्रचलित थे। इन ग्रन्थों के अध्ययन से उस समय की समाज-व्यवस्था को समझने और उसमें समय-समय पर होने वाले परिवर्तनों को जानने में सहायता मिलती है। उदाहरण के रूप में, मनुस्मृति में सामाजिक ज्ञान भरा पड़ा है। इसमें वर्ण, जाति, विवाह, परिवार, राज्य, धर्म, आदि पर गम्भीरता से विचार किया गया है। इस ग्रन्थ ने समाज के भावी स्वरूप को निर्धारित करने में काफी योग दिया।
वर्तमान में आवश्यकता इस बात की है कि प्राचीन भारतीय विचारों पर समाजशास्त्रीय दृष्टि से चिन्तन और मनन किया जाए। यहाँ हमें इतना अवश्य ध्यान में रखना है कि उस समय की समाज-व्यवस्था एवं सामाजिक चिन्तन पर धर्म का काफी प्रभाव था। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि वैदिककाल से ही भारत में समाजशास्त्र के विकास की परम्परा प्रारम्भ हो चुकी थी, यद्यपि मध्यकाल में यहाँ सामाजिक व्यवस्थाओं के अध्ययन पर ध्यान दिया गया।
2. भारत में समाजशास्त्र का औपचारिक प्रतिस्थापन युग
भारत में समाजशास्त्र एक नवीन विज्ञान है। यद्यपि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यूरोप में समाजशास्त्र का एक व्यवस्थित विषय के रूप में विकास प्रारम्भ हो चुका था, परन्तु भारत में बीसवीं शताब्दी के पहले तक ऐसा कोई विज्ञान नहीं था जो समाज का सम्पूर्णता में अध्ययन करे। पश्चिम के देशों में समाजशास्त्र का विकास तेजी से होता जा रहा था। ऐसी दशा में भारतीयों का ध्यान भी भारत में समाजशास्त्र को एक विषय के रूप में विकसित करने की ओर गया। परिणामस्वरूप यहाँ समाजशास्त्र के अध्ययन-अध्यापन का कार्य प्रारम्भ हुआ। सन् 1914 से 1947 तक का काल भारत में समाजशास्त्र का औपचारिक प्रतिस्थापन युग कहा जा सकता है।
- यहाँ सर्वप्रथम सन् 1914 में बम्बई विश्वविद्यालय में स्नातक स्तर पर समाजशास्त्र का अध्ययन-कार्य प्रारम्भ हुआ। यहीं सन् 1919 में ब्रिटिश समाजशास्त्री प्रो. पैट्रिक गेडिस की अध्यक्षता में समाजशास्त्र विभाग की स्थापना हुई और समाजशास्त्र की स्नातकोत्तर कक्षाएं शुरू की गयीं।
- सन् 1924 में प्रो. पैट्रिक गेडिस के बाद उन्हीं के शिष्य और देश-विदेश में जाने-माने समाजशास्त्री डॉ. जी. एस. घुरिये को बम्बई विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के विभागाध्यक्ष का पद सुशोभित करने का अवसर मिला।
- प्रो. राधाकमल मुकर्जी और डॉ. जी. एस. घुरिये का भारत में समाजशास्त्र के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
- सन् 1917 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रो. बृजेन्द्रनाथ शील के प्रयत्नों से अर्थशास्त्र विषय के साथ समाजशास्त्र का अध्ययन-कार्य चालू किया गया।
- सन् 1921 में लखनऊ विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग के अन्तर्गत समाजशास्त्र को मान्यता अवश्य दी गयी, परन्तु इस विषय का अध्ययन अर्थशास्त्र विषय के अन्तर्गत किया जाने लगा। यहाँ देश के प्रमुख विद्वान डॉ. राधाकमल मुकर्जी को समाजशास्त्र का विभागाध्यक्ष नियुक्त किया गया।
- मैसूर विश्वविद्यालय में सन् 1923 में स्नातक कक्षाओं में इस विषय को पढ़ाया जाने लगा। इस वर्ष आन्ध्र विश्वविद्यालय में भी समाजशास्त्र को एक विषय के रूप में मान्यता प्रदान की गयी।
- सन् 1930 में पूना विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग प्रारम्भ हुआ और श्रीमती इरावती कर्वे ने विभागाध्यक्ष का पद सम्भाला। धीरे-धीरे देश के कुछ अन्य विश्वविद्यालयों में भी समाजशास्त्र को बी. ए. तथा एम. ए. के पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर लिया गया।
- सन् 1947 के पूर्व तक देश में समाजशास्त्र के विकास की गति काफी धीमी रही, परन्तु इस काल में यहाँ समाजशास्त्र की नींव अवश्य पड़ चुकी थी।
इतना अवश्य है कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पूर्व तक कहीं समाजशास्त्र अर्थशास्त्र के साथ, तो कहीं मानवशास्त्र या दर्शनशास्त्र के साथ जुड़ा रहा और एक स्वतन्त्र विषय के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं कर सका।
3. स्वतन्त्र भारत में समाजशास्त्र का व्यापक प्रसार युग
सन् 1947 में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से यह युग प्रारम्भ होता है। इस युग में समाजशास्त्र को देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में एक व्यवस्थित स्वतन्त्र विषय के रूप में मान्यता प्राप्त हुई तथा इसके अध्ययन-अध्यापन की ओर लोगों का ध्यान गया। वर्तमान में देश में आधे से अधिक विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र विभाग की स्थापना हो चुकी है।
वर्तमान में बम्बई, कलकत्ता, मैसूर, आन्ध्र, पूना, बड़ौदा, गुजरात, पटना, भागलपुर, गोरखपुर, दिल्ली, जबलपुर, पंजाब, नागपुर, राजस्थान, जोधपुर, उदयपुर, अजमेर, इन्दौर, भोपाल, रायपुर, रांची, काशी विद्यापीठ, कुमाऊँ, रुहेलखण्ड, बुन्देलखण्ड, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, रविशंकर, मेरठ, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, मद्रास, कानपुर, आदि विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र विभागों की स्थापना हो चुकी है।
इनके अतिरिक्त देश के अनेक राजकीय एवं अराजकीय महाविद्यालयों में भी बी. ए. और एम. ए. स्तर पर समाजशास्त्र का अध्यापन कार्य चल रहा है। वर्तमान में इस विषय की लोकप्रियता एवं उपयोगिता तेजी के साथ बढ़ती जा रही है। अब तो अनेक विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र से सम्बन्धित शोध-कार्य भी चल रहे हैं। साथ ही समाजशास्त्र के विकास की दृष्टि से कुछ शोध संस्थान भी स्थापित किए गए हैं।