बस्तर क्षेत्र के पारंपरिक पर्व : लक्ष्मी जगार
लक्ष्मी जगार विभिन्न संस्कारों से आबद्ध अनुष्ठानिक पर्व है, जिसमें महिलाओं की विशेष भूमिका होती है साथ ही इस पर्व के आयोजन में पुरुष भी सहभागी होते हैं। यह आयोजन प्रायः धान फसल कटने के बाद शीत ऋृतु में किसी भी समय आरंभ होकर अधिकतम 11 दिनों तक चल सकता है। किन्तु समाप्ति गुरूवार को ही होती है। जगार शब्द हिन्दी के ‘जागरण’ शब्द से प्रादुर्भूत है। देवताओं को निद्रा से जगाना और अन्न की उपज इसके मूलभूत अभिप्राय हैं। किन्तु इसके साथ ही यह आयोजन उत्सवधर्मी भी होता है। विशेष रूप से अंतिम दिन जब अनुष्ठान अपने चरम पर होता है उस दिन ‘महालखी’ (महालक्ष्मी) और नारायण जी का विवाह सांकेतिकता के साथ ही वास्तविक रूप में सम्पन्न कराया जाता है। लक्ष्मी जगार का आयोजन के विषय में लोगों का कहना है कि यह प्रायः सुख-समृद्धि की कामना से आयोजित किया जाता है।
लक्ष्मी जगार का आयोजन छत्तीसगढ़ राज्य के अंतर्गत जगदलपुर, कोण्डागाँव, नारायणपुर, दंतेवाड़ा और बीजापुर में होता है। लक्ष्मी जगार लोक महाकाव्य का गायन मुख्यतः महिलाओं द्वारा किया जाता है। प्रमुख गायिका ‘पाट गुरूमाय’ कहलाती है। जिनकी एक या दो सहायिकाएँ होती है, जिन्हें ‘चेली गुरूमाय’ कहा जाता है। यहाँ यह उल्लेख अनिवार्य है कि जगार गायन में किसी जाति या समुदाय विशेष की विशेषज्ञता नहीं होती। ये गायिकाएँ किसी भी जाति या समुदाय से हो सकती है, उदाहरणार्थ जगदलपुर क्षेत्र मे धांकड़, मरार, केंवट, बैरागी, कोण्डागांव क्षेत्र में गांडा, घड़वा, बैरागी, मरार, आदि जाति की गुरूमाएँ जगार गायन करती हुई दिखाई पड़ती है। इन गुरूमाएँ को इनके गायन के लिए कोई धनराशि नहीं दी जाती, अपितु उसकी जगह आयोजक द्वारा जगार की समाप्ति पर सामर्थ्यानुसार ससम्मान भेंट दी जाती है। गुरूमाय ‘धनकुल’ नामक वाद्य बजाते हुए कथा सुनाती हैं। धनकुल वाद्य जिसे “तीजा जगार” में भी बजाया जाता है।
कोण्डागाँव एवं इसके आसपास धनकुल वाद्ययंत्र के विभिन्न उपकरणों यथा धनुष को ‘धनकुल डांडी’, रस्सी को ‘झिकन डोरी’, बाँस की कमची को ‘छिरनी काड़ी’, मटका को ‘घुमरा हाँडी’, मटके के मुँह पर ढंके जाने वाले सूप को ‘ढाकन सूपा’, मटके के आसन को ‘आंयरा’ या ‘बेडंरी’ तथा मचिया को ‘माची’ कहा जाता है। घुमरा हांडी आंयरा के उपर तिरछी रखी जाती है। आंयरा धान की पुआल से बनी होती है। मटके के मुख को ढाकन सूपा से ढंक दिया जाता है। इसी ढाकन सूपा के उपर धनकुल डांडी का एक सिरा टिका होता है तथा दूसरा सिरा जमीन पर होता है। धनकुल डांडी की लंबाई लगभग 2 मीटर होती है। इसके दाहिने भाग में लगभग 1.5 मीटर पर 8 इंच की लंबाई में हल्के खाँचे बने होते हैं। गुरूमाएं दाहिने हाथ में छिरनी कड़ी से धनकुल डांडी के इस खाँचे वाले भाग में घर्षण करती है तथा बांये हाथ से झिकन डोरी को हल्के-हल्के खींचती है। घर्षण से जहाँ छर-छर-छर की ध्वनि निःसृत होती है वहीं डोरी को खीचने पर धुम्म-धुम्म की ध्वनि घुमरा हांडी से निकलती है। इस तरह ताल वाद्य और तत वाद्य का सम्मिलित संगीत इस अद्भुत लोक वाद्य से प्रादुर्भूत होता है।
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