# वर्ण व्यवस्था का अर्थ, महत्व, उत्पत्ति सिद्धान्त, कर्तव्य या वर्णधर्म (Varn Vyavastha)

वर्ण‘ वह है जिसको व्यक्ति अपने कर्म और स्वभाव के अनुसार चुनता है। प्रतिस्पर्द्धा का अभाव हिन्दू संस्कृति का ध्येय है और इसी के एक उपाय-स्वरूप वर्ण-व्यवस्था का विधान है, जिसका तात्पर्य है- सांसारिक सम्पत्ति के लिए अपने वर्ण की अर्थात् पैतृक आजीविका को अपनाकर उससे सन्तुष्ट रहना। इसी वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति को रंग, गुण और कर्म के आधार पर समझाने का प्रयत्न किया गया है। पर साथ ही इस बात को भी स्वीकार किया गया है कि इस व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक वर्ण के कुछ कर्तव्य-कर्म होते हैं जिसे ‘वर्ण-धर्म‘ कहा जाता है।

भारतीय हिन्दू सामाजिक संगठन का एक प्रमुख आधार स्तम्भ चार वर्ण या वर्ण-व्यवस्था है। वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत समाज के सदस्यों को चार वर्णों– ब्राह्मण, छत्रिय, वैश्य और शूद्र में विभाजित किया गया था और प्रत्येक वर्ण के लिए कुछ नियमों व कर्तव्यों को निर्धारित कर दिया गया था।

वर्ण व्यवस्था का अर्थ :

प्रायः ‘जाति’ और ‘वर्ण’ इन दोनों संकल्पनाओं को लोग एक ही मान लेते हैं और एक ही अर्थ में इन दोनों का प्रयोग भी करते हैं। परन्तु वास्तव में ऐसा करना उचित नहीं है क्योंकि ‘वर्ण‘ शब्द का अर्थ ‘रंग’ लेते हैं। यदि साहित्यिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो कहा जा सकता है कि ‘वर्ण’ शब्द वृत्र वरणे या ‘वृ’ धातु से बना है, इसका अर्थ है वरण करना या चुनना। यह हो सकता है कि इस अर्थ से किसी व्यवसाय या पेशे के चुनाव का तात्पर्य और इस रूप में वर्ण का अर्थ उस समूह से हो सकता है जो एक विशेष प्रकार के पेशे का अपनाता था अथवा समाज द्वारा निर्धारित कुछ निश्चित कार्यों को करता था।

इस प्रकार वर्ण व्यवस्था भारतीय सामाजिक संगठन की आधारशिला के रूप में है। यहां आर्थिक आधार के स्थान पर व्यक्ति के गुण तथा स्वभाव के आधार पर समाज को चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) मे विभाजित किया है। वर्ण सामाजिक विभाजन की वह व्यवस्था है जिसका आधार पेशा, कर्म या गुण है। वास्तव में वर्ण-व्यवस्था का आधारभूत उद्देश्य समाज का कार्यात्मक विभाजन करना था।

और भी स्पष्ट शब्दों में, प्राचीन समय में सामाजिक व्यवस्थासंगठन को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक था कि समाज के कार्यों का एक सुनियोजित विभाजन किया जाए ताकि व्यक्ति या समूह एक दूसरे के कार्यों में अनावश्यक रूप से हस्तक्षेप न करें। इसी उद्देश्य से कर्मों और गुणों के आधार पर समाज के सदस्यों को चार विभिन्न समूहों में बाँट देने की योजना चालू की गई, उसी को वर्ण-व्यवस्था की संज्ञा दी गई। इस प्रकार स्पष्ट है कि सामाजिक कार्यों व कर्तव्यों के आधार पर समाज को विभिन्न समूहों में विभाजित करने की व्यवस्था को ही वर्ण-व्यवस्था कहा जाता है।

वर्ण के उत्पत्ति सम्बन्धित सिद्धान्त :

वर्ण की उत्पत्ति किस भाँति हुई, इस सम्बन्ध में अनेक सिद्धांत प्रचलित हैं। कुछ प्रमुख सिद्धान्तों का वर्णन निम्नलिखित हैं –

1. परम्परागत सिद्धान्त

वर्ण की उत्पत्ति के सम्बन्ध में परम्परागत सिद्धान्त सबसे प्राचीन सिद्धान्त है ऋग्वेद के पुरूसुक्त के अनुसार परमपुरूष अर्थात् ईश्वर ने ही समाज को चार वर्णों में विभाजित किया है, तथा विभिन्न वर्णों का जन्म उसी परमपुरूष के शरीर के विभिन्न अंगों से हुआ है ‘पुरुषसुक्त‘ में कहा गया है कि ईश्वर ने अपने मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जंघा से होने के कारण उन्हें व्यापार और वाणिज्य का कार्य करना होता है। अन्त में, चूँकि पैर का कार्य पूरे शरीर को गतिशील रखते हुए उसकी सेवा करना है और शूद्रों की उत्पत्ति से हुई है, अतः शूद्र का कार्य सम्पूर्ण समाज की सेवा करना है।

2. रंग का सिद्धान्त

भृगु ऋषि ने वर्णों की उत्पत्ति का दूसरा सिद्धान्त प्रस्तुत किया। उनके अनुसार परम पुरूष अर्थात् ब्रह्मा ने पहले पहल केवल ब्राह्मणों की ही रचना की थी। लेकिन बाद में मानव जाति के चार वर्ण– ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र विकसित हुए। वास्तव में जैसे कि भृगु ऋषि का विचार है। इनका विभाजन शरीर के रंग के आधार पर हुआ। ब्राह्मणों का रंग सफेद (श्वेत), क्षत्रियों का लाल (लोहित), वैश्य का पीला (पीत) तथा शूद्र का काला (श्याम) था। शरीर के इन विभिन्न रंगों के आधार पर ही मानव-समाज को चार वर्णों में विभाजित किया गया।

3. कर्म का सिद्धान्त

वर्ण उत्पत्ति को समझाने के लिए कर्म के सिद्धान्त का भी सहारा लिया जाता है। कुछ विद्वानों का कथन है कि वैदिक युग में वर्ण की उत्पत्ति समाज की मूलभूत आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर की गयी थी। उस समय समाज की चार आधारभूत आवश्कताएँ – (अ) पठन पाठन, धार्मिक तथा बौद्धिक कार्यों की पूर्ति, (ब) राज्य का संचालन तथा समाज की रक्षा, (स) आर्थिक क्रियाओं की पूर्ति तथा (द) सेवा थीं।

समाज व्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए यह आवश्यक था कि समाज को कुछ निश्चित श्रेणियों में बाँटकर लोगों के कार्यों का नियमन व सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती। इस उद्देश्य से चार वर्णों की रचना की गयी। चारों वर्णों को उपयुक्त चारों कार्य सौंप दिये गये और इन कार्यों को उन वर्णों का धर्म या कर्तव्य माना गया। सभी वर्णों के सदस्यों में यह बात कूट-कूटकर भर दी गई कि कुछ विशेष कार्यों को करना उनका धर्म है और उनका उन्हें पालन करना है। अतः कर्म के सिद्धान्त के अनुसार, समाज-व्यवस्था को स्थिर रखने के लिए धार्मिक कर्तव्य के रूप में कर्मों के विभाजन के फलस्वरूप ही वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति हुई।

वर्गों के कर्तव्य या वर्णधर्म :

हिन्दू शास्त्रकारों ने विभिन्न वर्णों के कुछ निश्चित कर्तव्यों या ‘धर्म‘ का भी निर्धारण किया है। शास्त्रों के अनुसार चारों वर्गों के कुछ सर्वसामान्य ‘धर्म’ या कर्तव्य भी होते हैं, जैसे- जीवित प्राणियों को हानि न पहुँचाना, सत्य की खोज करना, चरित्र एवं जीवन की पवित्रता को बनाये रखना, इन्द्रियों पर नियन्त्रण, आत्म संयम, क्षमा, ईमानदारी, दान आदि सद्गुणों का अभ्यास करना आदि। परन्तु इसके अतिरिक्त प्रत्येक वर्ण के कुछ अलग-अलग कर्तव्य या धर्म भी हैं, इन्हीं को वर्ण-धर्म कहते है।

1. ब्राह्मण

पुरुश्सुत्र‘ में ब्राह्मण को समाज का मस्तिष्क माना गया है। ज्ञानार्जन और ज्ञान वितरण करना ब्राह्मण का प्रमुख का प्रमुख कर्तव्य है। वेद पढ़ना तथा पढ़ाना, इन्द्रियों का दमन कर त्याग और तपस्या के द्वारा समाज के सम्मुख उच्चादर्शों को प्रस्तुत करना ब्राह्मण का प्रमुख ‘धर्म’ (कर्तव्य) बताया गया है। ‘मनुस्मृति के अनुसार ब्राह्मणों का कर्तव्य स्वाध्याय, वृत, होम तथा यज्ञ है। क्षमा, शील, धैर्य तथा निर्मलता ब्राह्मण के प्रधान गुण हैं। वेद-ज्ञान या ब्रह्मज्ञान का सच्चा अधिकारी होने के कारण ही ब्राह्मण सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ है और मोक्ष का भी प्रथम अधिकारी है।

2. क्षत्रिय

पुरूषसूक्त‘ में क्षत्रिय को समाजरूपी मनुष्य की भुजा (हाथ) अर्थात् शक्ति व संरक्षण का प्रतीक माना गया है। जिस प्रकार भुजाएँ शरीर की रक्षा करती हैं उसी प्रकार क्षत्रिय भी समाज की रक्षा करता है। वेदाध्यायन, यज्ञ करना तथा लोगों की रक्षा करना ही क्षत्रियों का कर्तव्य है। शासन तथा सुव्यवस्था का उत्तरदायित्व क्षत्रियों पर ही होता है। मनुस्मृति के अनुसार भी क्षत्रिय का कार्य प्रजा की रक्षा करना, अध्ययन, दान तथा यज्ञ आदि करना है।

3. वैश्य

जिस प्रकार जाँघ का काम सम्पूर्ण शरीर के भार को सँभाले रखना होता है, उसी प्रकार समाज के भरण-पोषण का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेकर समाज के अस्तित्व को बनाए रखना ही वैश्यों पर ही रहता है। वेदाध्ययन करना, व्यापार तथा कृषि कार्य में संलग्न रहना, पशुओं का पालन करना तथा दान देना वैश्य के प्रमुख कर्तव्य हैं। ‘मनुस्मृति के अनुसार वैश्य के कार्य पशुओं का पालना तथा उसकी रक्षा करना, दान, अध्ययन, यज्ञ, वाणिज्य तथा कृषि हैं। वैश्य का कार्य ऋण देना भी है और वे उस ऋण पर ब्याज भी ले सकते हैं।

4. शूद्र

शूद्रों की उत्पत्ति ब्रह्मा के चरणों से बतायी गयी है जिन चरणों से गंगा की धारा निकली, जिन चरणों के स्पर्श से अहिल्य तर गयी, उन्हीं चरणों से उत्पन्न होने के कारण शूद्र महान तथा पवित्र हैं। यह समाजरूपी पुरूष का चरण माना गया है। जिस प्रकार चरणों की सहायता से शरीर गतिशील होता है अर्थात् चलता-फिरता है उसी प्रकार सामाजिक जीवन में गतिशीलता शूद्रों के कारण ही सम्भव होती है। जिस प्रकार चरण सहिष्णुता की साक्षात् मूर्ति है उसी प्रकार शूद्र भी सहिष्णुता व सहनशीलता की प्रतिमूर्ति होता है। अन्य वर्णों की सेवा करना शूद्र का परम ‘धर्म’ या कर्तव्य है।

मनुस्मृति‘ के अनुसार शूद्रों का कार्य द्विज वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, व वैश्य) की सेवा करना है। ‘मनुस्मृति‘ के विधान के अनुसार ब्राह्मण का यह कर्तव्य है कि वह अपने शूद्र सेवक की जीविका की उचित व्यवस्था करे। यदि किसी शूद्र को अन्य वर्णों के यहाँ कार्य नही मिलता है तो वह हस्त-कौशल से अपनी जीविका का निर्वाह कर सकता है।

वर्ण व्यवस्था का समाजशास्त्रीय महत्व या भारतीय सामाजिक संगठन में वर्ण व्यवस्था का महत्व :

कुछ विद्वान वर्ण-व्यवस्था को अव्यवहारिक तथा समाज में असमानता उत्पन्न करने वाली संस्था कहते हैं। परन्तु वास्तव में उन्होंने वर्ण-व्यवस्था के ऊपरी रूप को ही देखा है। भारतीय सामाजिक संगठन में वर्ण-व्यवस्था के निम्नलिखित महत्व का उल्लेख किया जा सकता है:

1. समाज में सरल श्रम विभाजन

वर्ण व्यवस्था समाज में सरल श्रम विभाजन लागू करती है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति को परम्परागत रूप में अपने पिता के पेशे को अपनाना पड़ता है। इसमें व्यक्ति इच्छा और अनिच्छा का कोई प्रश्न नही उठता। इसका कारण भी स्पष्ट है और वह यह है कि प्रत्येक वर्ण से यह आशा की जाती है कि वह अपने परम्परागत पेशे को अपनायेगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि वर्ण-व्यवस्था ने समाज में सरल श्रम विभाजन लागू किया है।

2. सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति

वर्ण-व्यवस्था का उद्देश्य तत्कालीन समाज की कुछ मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति सुचारू रूप से करना था। उस समय समाज की कुछ मूलभूत आवश्यकताएँ थी-

  • (अ) पठन-पाठन, धार्मिक तथा बौद्धिक कार्यों व आवश्यकताओं की पूर्ति, यह उत्तरदायित्व ब्राह्मणों पर लादा गया।
  • (ब) राजनीतिक सुरक्षा तथा सुव्यवस्था का संचालन व नियमन, इस कार्य को शौर्य-वीर्ययुक्त क्षत्रिय को सौंपा गया,
  • (स) आर्थिक सुव्यवस्थाओं की पूर्ति, अर्थात् कृषि-कार्य, अन्य प्रकार के भौतिक उत्पादन कार्य, पशु-पालन, व्यापार तथा वाणिज्य सम्बन्धित कार्यों के लिए वैश्यों को चुना गया,
  • (द) सामाजिक जीवन से सम्ब० सेवा कार्य। सामाजिक जीवन की वास्तविक नींव इन्हीं सेवा कार्यों को करने का उत्तरदायित्व शूद्रों को सौंपा गया।

इस रूप से यह स्पष्ट है कि सभी सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था चातुर्य के अन्तर्गत की गयी।

3. सामाजिक संगठन में दृढ़ता प्रदान करना

वर्ण-व्यवस्था सामाजिक संगठन को सुदृढ़ता प्रदान करने में भी अत्यधिक सहायक सिद्ध हुई है। वर्ण-धर्म के आधार पर समाज के सभी व्यक्ति पारस्परिक अधिकार तथा कर्तव्य के एक सुदृढ़ सूत्र में एक-दूसरे से संबद्ध हो जाते हैं जो एक अधिकार है, वहीं दूसरे का कर्तव्य है। साथ ही, बिना अपने कर्तव्यों का पालन किये, कोई भी वयक्ति अपने अधिकारों का उपभोग नहीं कर सकता है।

उदाहरणार्थ, ब्राह्मण अपने वर्ण-धर्म का पालन किये बिना, अर्थात् समाज के बौद्धिक तथा आध्यात्मिक विकास में योगदान दिये बिना, अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता क्योंकि उनके लिए उसे विशेष रूप से वैश्य वर्ण पर आधारित रहना पड़ता है और चूँकि ब्राह्मण यह जानता है कि अन्य वर्णों द्वारा उसकी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति हो जायेगी, इस कारण इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने को चिन्तित किये बिना ही ब्राह्मण अपने वर्ण-धर्म का पालन निष्ठापूर्वक करता रहता है। यही बात दूसरे वर्णों पर भी लागू होती है।

4. समाज में समानता बनाए रखना

कुछ विद्वान वर्ण-व्यवस्था को समानता के लिए घातक मानते हैं। परन्तु यह उनका भ्रम है। वर्ण-व्यवस्था समाज को चार वर्णों में अवश्य विभाजित करती है परन्तु साथ ही इन चारों वर्गों को आपस में कोई उच्चता या निरन्तरता का स्तर निर्धारित नहीं करती है। इस व्यवस्था के अर्न्तगत सभी वर्गों का महत्व समान है, यद्यपि सबके धर्म, कर्म या कर्तव्य पृथक-पृथक हैं।

5. रक्त की शुद्धता बनाए रखना

वर्ण-व्यवस्था का एक महत्व यह भी है कि यह रक्त की शुद्धता को बनाये रखती है। वास्तव में वर्ण-व्यवस्था के अन्य उद्देश्यों में एक उद्देश्य यह भी था कि आर्य लोग अपने समूह के रक्त की शुद्धता को बनाए रखें। वास्तव में, प्रत्येक वर्ण में आपस में विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्ध होते हैं और इस कारण वर्णों में रक्त की शुद्धता बनी रहती है।

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