# वर्ग-संघर्ष के कारक/कारण : कार्ल मार्क्स | Factors/Causes of Class Struggle

वर्ग-संघर्ष (Class Struggle) :

वर्ग-संघर्ष की अवधारणा मार्क्स के महत्वपूर्ण विचारों में एक है। मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष की अवधारणा ऑगस्टिन थोरे से ली थी, किन्तु इसकी पूर्ण विवेचना मार्क्स ने ही की। मार्क्स यह मानते हैं कि इतिहास के प्रत्येक युग और प्रत्येक समाज में सदैव दो विरोधी वर्ग रहे हैं- शोषक और शोषित वर्ग और ये दोनों वर्ग परस्पर संघर्षरत रहे हैं। इनके संघर्ष से ही समाज के विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ती रही है और समाज का एक युग या अवस्था समाप्त होकर उनका स्थान दूसरा युग या अवस्था लेती रही है।

कार्ल मार्क्स ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र‘ में लिखा है, “अब तक के सभी समाजों का इतिहास वर्ग संघर्ष का ही इतिहास है। स्वतन्त्र व्यक्ति तथा दास, कुलीन वर्ग तथा साधारण जनता, सामन्त तथा अर्द्धदास किसान, श्रेणीपति तथा दस्तकार, एक शब्द में शोषक तथा शोषित, सदा एक-दूसरे के विरोधी होकर कभी प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष किन्तु अनवरत युद्ध करते रहे हैं। इस संघर्ष का अन्त हर बार या तो समाज के क्रान्तिकारी पुनर्निर्माण में या संघर्षरत वर्गों के सर्वनाश में हुआ है।”

इस कथन से स्पष्ट है कि मार्क्स सभी समाजों में वर्ग और वर्ग संघर्ष को एक ऐतिहासिक सत्य के में प्रस्तुत करते है।

कार्ल मार्क्स की वर्ग संघर्ष की धारणा अपने समय की इंग्लैण्ड की परिस्थितियों पर आधारित है। मार्क्स के समय में इंग्लैण्ड के कारखानों में भारी मात्रा में उत्पादन हो रहा था। पूँजीपति अधिक धनी होते जा रहे थे और निर्धन लोगों में निर्धनता बढ़ती जा रही थी। पूँजीपति श्रमिकों का खूब शोषण कर रहे थे। पूँजीपतियों का राजनीति और सरकार में भी पूर्ण प्रभुत्व था, वे अपने हितों की रक्षा से सम्बन्धित कानून बनवा रहे थे तथा सरकार को अपने इशारों पर चलाकर सर्वहारा वर्ग का शोषण कर रहे थे। इस शोषण को देखकर ही मार्क्स पूँजीवादी व्यवस्था के कट्टर शत्रु एवं साम्यवाद के पक्षधर बन गये थे.

वर्ग-संघर्ष के कारण/कारक :

वर्ग संघर्ष के आधार ही पर मार्क्स यह कहता है कि पूँजीवाद की प्रकृति आत्मनाशी है। लाभ की प्रवृत्ति, अतिरिक्त मूल्य को हड़प जाना, पूँजी का केन्द्रीयकरण श्रमिकों में बढ़ती हुई बेरोजगारी एवं निर्धनता, श्रमिकों का शोषण, पूँजीपतियों द्वारा श्रमिकों के प्रति अन्याय एवं अत्याचारपूर्ण व्यवहार, माँग से अधिक पूर्ति, अधिक उत्पादन, बाजार का माल से पट जाना, आर्थिक संकट, यातायात और संचार के साधनों का विकास, श्रमिक वर्ग में चेतना और सहयोग की भावना उत्पन्न होना, आदि ये सभी ऐसे कारक हैं जो मिलकर पूँजीवाद की कब्र तैयार करते हैं।

हम यहाँ उन कारकों का संक्षेप में उल्लेख करेंगे जो पूँजीवाद के विनाश तथा पूँजीवादी व्यवस्था में वर्ग-संघर्ष की तीव्रता के लिए उत्तरदायी हैं।

1. व्यक्ति गत लाभ के लिए उत्पादन

पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन समाज के हित और उपभोग को दृष्टि में रखकर नहीं किया जाता बल्कि व्यक्तिगत लाभ के लिए किया जाता है। परिणामस्वरूप समाज की माँग और उत्पादन में सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता है और पूँजीपति सिर्फ अपने लाभ के लिए सब कुछ करने को तत्पर रहते हैं।

2. विशाल उत्पादन, एकाधिकार एवं पूँजी का संचय

पूँजीवादी व्यवस्था में फैक्ट्री प्रणाली द्वारा तीव्र गति से और बड़ी मात्रा में उत्पादन किया जाता है जिस पर पूँजीपतियों का भी एकाधिकार होता है। अतः उनके हाथों में पूँजी का केन्द्रीकरण और एकाधिकार होता है, बड़े पूंजीपतियों द्वारा छोटे और मध्यवर्गीय पूँजीपतियों की सम्पत्ति का हरण आरम्भ हो जाता है। चूँकि छोटे-छोटे और मध्यवर्गीय पूँजीपतियों द्वारा उत्पादित वस्तुएँ बाजार में बड़े पूंजीपतियों द्वारा उत्पादित सस्ती वस्तुओं की प्रतिद्वन्द्विता में टिक नहीं सकती हैं। इसलिए उन्हें अपनी मिलें व कारखाने बन्द करने पड़ते हैं तथा उत्पादन कार्य बड़े-बड़े उद्योगपतियों के हाथ में केन्द्रित हो जाता है। ये छोटे और मध्यमवर्गीय पूँजीपति भी श्रमिकों की श्रेणी में आ जाते हैं और श्रमिकों की संख्या में वृद्धि होती जाती है।

मार्क्स कहता है कि जो पूँजीपति पूँजी का संचय करने में असफल रहते हैं, वे सर्वहारा वर्ग में शामिल हो जाते हैं। इस प्रकार पूँजीपति वर्ग अपने विनाश के लिए स्वयं श्रमजीवी वर्ग को बलशाली बनाता है।

3. आर्थिक संकटों एवं श्रमिकों के कष्टों में वृद्धि

पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली समय-समय पर अनेक आर्थिक संकटों तथा श्रमिकों के कष्टों में वृद्धि करती है। पूँजीपतियों के हाथों में धन का संचय होने से श्रमिकों की गरीबी में वृद्धि होती है, उनका व्यक्तित्व नष्ट हो जाता है, उनकी स्थिति यन्त्र में उपकरण जैसी हो जाती है और वे वस्तुमात्र बनकर रह जाते हैं। इस व्यवस्था में बेरोजगारी बढ़ जाती है, मजदूरी की दर कम हो जाती है, श्रमिकों का दमन और शोषण बढ़ता जाता है। इस व्यवस्था में उत्पादन श्रमिक वर्ग की क्रय शक्ति से अधिक होता है। बाजार में माल तो खूब होता है लेकिन उसे खरीदने के लिए श्रमिकों के पास पैसे नहीं होते हैं। बाजार में माल भर जाता है, किन्तु खरीद के अभाव में पूँजीपति को कारखाने बन्द करने पड़ते हैं, अथवा बने हुए माल को नष्ट करके कृत्रिम कमी पैदा करनी पड़ती है, इस तरह अस्थायी आर्थिक संकट जन्म लेते हैं।

पूँजीवाद की इन्हीं प्रवृत्तियों के कारण श्रमिक वर्ग एवं सामान्य जनता में घोर असन्तोष व्याप्त होता है। अन्त में वह समय आ जाता है जब श्रमिकों के पास सिवाय अपनी बेड़ियों को तोड़ने के कुछ भी शेष नहीं रहता है। सर्वहारा वर्ग का विद्रोह आरम्भ हो जाता है, वे संगठित होकर क्रान्ति करते हैं जिसमें सर्वहारा वर्ग की विजय अवश्यम्भावी है। व्यक्तिगत पूँजी जो इस सारी दुर्दशा के लिए उत्तरदायी होती है, उसकी मौत का बिगुल बज जाता है। सम्पत्ति के हरण करने वालों का ही हरण हो जाता है, इस प्रकार आर्थिक संकट और श्रमिक असन्तोष पूँजीवाद की मौत के लिए खुला आमन्त्रण है।

4. अतिरिक्त मूल्य को पूँजीपतियों द्वारा हड़प लेना

पूँजीवाद में उत्पादन सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नहीं वरन् व्यक्तिगत लाभ के लिए किया जाता है, अतः पूँजीपति अतिरिक्त मूल्य को अपने पास रख लेता है जबकि न्याय की दृष्टि से यह मूल्य श्रमिकों को मिलना चाहिए। अतिरिक्त मूल्य वह मूल्य है जो श्रमिक द्वारा उत्पादित माल की वास्तविक कीमत और उस वस्तु की बाजार की कीमत का अन्तर होता है। पूँजीपति यह अन्तर श्रमिकों से छीनकर स्वयं हड़प जाता है और उनका शोषण करता है।

5. व्यक्तिगत तत्व की समाप्ति

पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में श्रमिक का वैयक्तिक चरित्र समाप्त हो जाता है और एक प्रकार से उसका यन्त्रीकरण हो जाता है। इस प्रणाली में श्रमिक स्वाभिमान खोकर यन्त्रों का केवल दास मात्र बन जाता है और अपनी सृजनात्मक शक्ति को भी हानि पहुंचाता है। अपनी इस पतनावस्था से अन्ततः श्रमिक वर्ग में चेतना का उदय होता है और वह पूँजीवाद के विनाश हेतु कटिबद्ध हो जाता है।

6. श्रमिकों में एकता का उदय एवं वर्ग-चेतना का विकास

पूँजीवादी व्यवस्था में बड़े-बड़े कारखाने एक स्थान पर केन्द्रित हो जाते हैं। उद्योगों का स्थानीयकरण, श्रमजीवियों के संघर्ष के लिए वरदान सिद्ध होता है। असन्तुष्ट श्रमिक परस्पर मिलते हैं, एक-दूसरे के सुख-दुःख की चर्चा करते हैं तथा उनमें संगठन, अनुशासन और सहयोग की भावना पैदा होती है। जो संघर्ष पहले वे व्यक्तिगत स्तर पर कर रहे थे, अब वे स्थनीय, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर करने लगते हैं। उद्योगों का केन्द्रीकरण श्रम संगठनों को जन्म देता है, संगठित श्रमिक पहले हड़तालों द्वारा सामाजिक जीवन को ठप्प करने की कोशिश करते हैं और बाद में क्रान्ति द्वारा पूँजीवाद को उखाड़कर उसके स्थान पर साम्यवादी व्यवस्था को स्थापित करते हैं।

मार्क्स ने क्रान्ति की रणनीति (Strategy) का विस्तार से उल्लेख नहीं किया है फिर भी शक्ति और हिंसा इसके मुख्य आधार हैं जैसा कि मार्क्स ने कहा है कि “बल एक नये समाज को अपने गर्भ में धारण करने वाले प्रत्येक पुराने समाज की दाई है।”

7. अन्तर्राष्ट्रीय श्रमिक आन्दोलन का जन्मदाता

पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादित वस्तुओं की खपत के लिए राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों की खोज की जाती है। इसमें यातायात और संचार के साधनों का तीव्र विकास किया जाता है। यातायात और संचार के साधनों में वृद्धि का एक परिणाम यह होता है कि विभिन्न राष्ट्रों के श्रमिक समीप आते हैं, संगठित होते हैं। जो संघर्ष पहले राष्ट्रीय स्तर तक सीमित था, वह अब अन्तर्राष्ट्रीय बन जाता है।

मार्क्स का यह विश्वास था कि विश्व के सभी श्रमिक मिलकर पूँजीवाद के विरुद्ध एक ऐसी अन्तर्राष्ट्रीय क्रान्ति का श्रीगणेश करेंगे जो पूँजीवाद की जड़ें खोखली करके समाजवाद की स्थापना करेगा।

इस प्रकार उपर्युक्त कारणों से पूँजीवाद स्वतः अपने विनाश की ओर बढ़ता जाता है। मार्क्स कहते हैं कि बुर्जुआ स्वयं सर्वहारा वर्ग को उनसे लड़ने के यन्त्र प्रदान करता है। श्रमजीवी वर्ग की क्रान्ति के बाद श्रमजीवी वर्ग का अधिनायकतन्त्र स्थापित हो जायेगा जिसमें शनैः-शनैः पूँजीवादी वर्ग के अन्तिम अंश भी समाप्त कर दिये जायेंगे और उसके पश्चात् एक वर्गविहीन और राज्यविहीन समाज की स्थापना होगी।

पूँजीवाद के विनाश के लिए श्रमिक वर्ग किस प्रकार तैयार होगा और किस प्रकार समाजवाद की स्थापना होगी?, इसका उल्लेख कार्ल मार्क्स के “कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र” में मिलता है।

The premier library of general studies, current affairs, educational news with also competitive examination related syllabus.

Related Posts

# Importance of Sociology | Benefit of Studying Sociology

Human is a social being, who is non-existent without society and society cannot stand without its foundation. The relationship between society and man is unbreakable and scholars…

Sociology : Meaning And Definition of Sociology

Meaning of sociology : The word sociology is made up of the Latin word “Socius” and the Greek word “Logos”. Its literal meaning is “science of society”…

समाजशास्त्र का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं (Samajshastra ka arth paribhasha)

समाजशास्त्र का अर्थ : समाजशास्त्र (Sociology) शब्द लैटिन भाषा के “सोशियस” (Socius) और ग्रीक भाषा के “लोगस” (Logos) शब्द से मिलकर बना है। जिसका शाब्दिक अर्थ “समाज…

# मुक्त (खुली) एवं बन्द गतिशीलता : सामाजिक गतिशीलता | Open and Closed Mobility

सोरोकिन के शब्दों में, “एक व्यक्ति या सामाजिक वस्तु अथवा मूल्य अर्थात् मानव क्रियाकलाप द्वारा बनायी या रूपान्तरित किसी भी चीज में एक सामाजिक स्थिति से दूसरी…

सतत् विकास : एक संतुलित एवं दीर्घकालिक विकास की अवधारणा (Satat Vikas)

सतत् विकास : सतत् विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ-साथ भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं की पूर्ति का…

# सांस्कृतिक विलम्बना : अर्थ, परिभाषा | सांस्कृतिक विलम्बना के कारण | Sanskritik Vilambana

समाजशास्त्री डब्ल्यू. एफ. आगबर्न ने अपनी पुस्तक ‘Social Change‘ में सर्वप्रथम ‘Cultural lag‘ शब्द का प्रयोग किया। इन्होंने संस्कृति के दो पहलू भौतिक (Material) तथा अभौतिक (Nonmaterial)…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *