# सिद्धान्त निर्माण का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, महत्व | सिद्धान्त निर्माण के प्रकार | Siddhant Nirman

सिद्धान्त निर्माण :

सिद्धान्त वैज्ञानिक अनुसन्धान का एक महत्वपूर्ण चरण है। गुडे तथा हॉट ने सिद्धान्त को विज्ञान का उपकरण माना है क्योंकि इससे हमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण का पता चलता है, तथ्यों को सुव्यवस्थित करने, वर्गीकृत करने तथा परस्पर सम्बन्धित करने के लिए इससे अवधारणात्मक प्रारूप प्राप्त होता है। इससे तथ्यों का सामान्यीकरण के रूप में संक्षिप्तीकरण होता है तथा इससे तथ्यों के बारे में भविष्यवाणी करने एवं ज्ञान में पाई जाने वाली त्रुटियों का पता चलता है।

सिद्धान्त की परिभाषा :

(1) राज के अनुसार, “एक सिद्धान्त में एक विषय की विषय-वस्तु की वास्तविकता का प्रतिबिम्ब होता है।”

(2) फेयरचाइल्ड के अनुसार, “सामाजिक घटना के बारे में एक ऐसा सामान्यीकरण जो पर्याप्त रूप में वैज्ञानिकतापूर्वक स्थापित हो चुका है तथा समाजशास्त्रीय व्याख्या के लिए एक विश्वसनीय आधार बन सकता है।”

(3) मर्टन के शब्दों में, “एक वैज्ञानिक द्वारा अपने प्रेक्षणों के आधार पर तर्क वाक्यों के रूप में सुझाए गए तार्किक परस्पर सम्बन्धित प्रत्यय ही एक सिद्धान्त को बनाते हैं।”

(4) गुडे तथा हॉट के अनुसार, “सिद्धान्त तथ्यों के परस्पर सम्बन्धों अथवा उनको किसी अर्थपूर्ण विधि से व्यवस्थित करने का नाम ही होता है।”

(5) पारसन्स के शब्दों में, “एक वैज्ञानिक सिद्धान्त को अनुभवाश्रित के सन्दर्भ में तार्किक रूप में परस्पर सम्बन्धित सामान्य अवधारणाओं के समूह के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।”

इस प्रकार सिद्धान्त तथ्यों की वह तार्किक संरचना (Logical structure) है, जिसमें वास्तविकता प्रतिबिम्बित होती है।

सिद्धान्त की विशेषताएँ :

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर सिद्धान्त की निम्नलिखित विशेषताएँ निर्धारित की जा सकती है-

(1) सिद्धान्त का पहला मौलिक तत्व तथ्य (Fact) है। तथ्य के द्वारा ही सिद्धान्त का निर्माण होता है। इस प्रकार सिद्धान्त तथ्यों का ही व्यवस्थित स्वरूप है

(2) जब तथ्यों में तार्किक अनुक्रम को जोड़कर इसे व्यवस्थित कर दिया जाता है, तो सिद्धान्त का निर्माण हो जाता है।

(3) सिद्धान्त एक प्रकार का सामान्यीकरण (Generalization) होता है, जो तथ्यों के आधार पर बनाया जाता है।

(4) सिद्धान्त को निर्मित करने में अनेक विचारों (Ideas) और अवधारणाओं (Concepts) का स्थान होता है।

(5) सिद्धान्त का स्वरूप अमूर्त होता है।

(6) सिद्धान्त का कार्य सामाजिक घटना या क्रिया को समझाने में व्यक्ति की मदद करना होता है। इसलिए यह तो एक साधन (Means) मात्र है, साध्य (Ends) नहीं।

(7) सिद्धान्त अनेक विस्तृत तथ्यों का संक्षिप्त स्वरूप है।

(8) तथ्यों की सहायता से जिन सिद्धान्तों का निर्माण होता है, वह विचारक के हाथ में है। वह अपनी इच्छा और क्रिया के आधार पर जैसा चाहे, वैसा सिद्धान्त बनाये। वह अच्छा और उपयोगी सिद्धान्त भी बना सकता है और गलत तथा निरर्थक भी।

(9) सिद्धान्तों का निर्माण करने में अनुसंधानों (Research) का महत्वपूर्ण स्थान होता है। अनुसंधान के द्वारा नवीन तथ्यों का ज्ञान होता है, जिससे नवीन सिद्धान्त निर्मित हो जाते हैं।

(10) जैसा कि ऊपर कहा गया है कि सिद्धान्तों का निर्माण तथ्यों की सहायता से होता है। फिर भी ऐसे अनेक सिद्धान्त हैं, जिनका निर्माण तथ्यों के अभाव में भी हो सकता है।

सिद्धान्त का महत्व :

वैज्ञानिक कार्यों को सम्पादित करने और नवीन ज्ञान को प्राप्त करने की दृष्टि से सिद्धान्तों का अत्यन्त ही महत्व है। निम्नलिखित कारण सिद्धान्त के महत्व को प्रदर्शित करते हैं-

(1) सिद्धान्तों की सहायता से व्यक्ति जिन तथ्यों का संकलन करता है, उनके सत्यापन की जाँच करने में समर्थ होता है।

(2) सिद्धान्तों की सहायता से व्यक्ति का अधिक समय नष्ट नहीं होता है और उसे अधिक प्रयास भी नहीं करना पड़ता है।

(3) सिद्धान्त वे आधार हैं जिनकी सहायता से सामग्री को संकलित, वर्गीकृत और सामान्यीकृत करने में मदद मिलती है।

(4) सिद्धान्तों की सहायता से मानव अपने विस्तृत अनुभव को अत्यन्त ही संक्षेप में प्रस्तुत करने में समर्थ होता है।

(5) सिद्धान्तों की सहायता से किसी वस्तु या घटना की समीक्षा करने में सुविधा होती है। सिद्धान्त की सहायता से किसी वस्तु या घटना में विद्यमान कमियों को जानने में मदद मिलती है।

(6) सिद्धान्त के आधार हैं, जिनकी सहायता से तथ्यों की व्याख्या की जाती है।

(7) सिद्धान्त मानव ज्ञान में तो वृद्धि करते ही हैं, इसके साथ ही नवीन ज्ञान को प्रोत्साहित भी करते हैं।

(8) सिद्धान्तों की सहायता से सामाजिक जीवन और घटनाओं के बारे में भविष्यवाणी करने में मदद मिलती है।

सिद्धान्तों के प्रकार :

परसी एस. कोहेन के अनुसार सिद्धान्त अग्र चार प्रकार के होते हैं

1. विश्लेषणात्मक सिद्धान्त (Analytic theories)

विश्लेषणात्मक सिद्धान्त वास्तविक दुनिया के सम्बंध में कुछ नहीं कहते अपितु कुछ ऐसे स्वयंसिद्ध कथनों (Axiomatic Statement) से बजते हैं। जोकि परिभाषा से बनते हैं तथा जिनसे दूसरे कथनों को निकाला जाता है, जैसे- तर्कशास्त्र तथा गणित के सिद्धान्त।

2. आदर्शात्मक सिद्धान्त (Normative theories)

आदर्शात्मक सिद्धान्त ऐसे आदर्श अवस्थाओं के समूह का विस्तार करते हैं, जिनकी हम आकांक्षा करते हैं। इस प्रकार सिद्धान्त जैसा कि नीतिशास्त्र के एवं सौंदर्यबोधी (aesthetics) सिद्धान्त, अक्सर गैर-आदर्शात्मक प्रकृति के सिद्धान्तों के साथ जुड़ जाते हैं और कलात्मक सिद्धान्तों (artistic principles) एवं वैचारिकियों (ideologies) आदि के रुप में सामने आते हैं।

3. वैज्ञानिक सिद्धान्त (Scientific theories)

आदर्श रूप में एक सर्वव्यापी आनुभविक कथन (Empirical statement) होता है, जो कि घटना के दो या अधिक प्रकारों के बीच एक कारणात्मक सम्बन्ध (Causal connection) को बतलाता है। वैज्ञानिक सिद्धान्त सार्वभौमिक एवं सर्वव्यापी होते हैं। वैज्ञानिक सिद्धान्त निश्चय ही आनुभविक या प्रयोग सिद्ध भी होते हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वे केवल मात्र आनुभविक निरीक्षण के परिणाम हैं। आनुभविक निरीक्षण किन्हीं विशिष्ट घटनाओं का होता है, पर चूँकि सिद्धान्त सर्वव्यापी होते हैं, इस कारण वे किन्हीं विशिष्ट घटनाओं के बारे में कथन नहीं हो सकते। वैज्ञानिक सिद्धान्त इस अर्थ में आनुभविक होते हैं कि उनसे ऐसे कथनों का निर्गमन किया जा सकता है जोकि किन्हीं विशिष्ट घटनाओं के बारे में हैं और जिनकी जाँच-पड़ताल निरीक्षण के द्वारा ही की जा सकती है।

4. तात्विक सिद्धान्त (Metaphysical theories)

यह चौथा एवं अन्तिम प्रकार का सिद्धान्त है। तात्विक एंव वैज्ञानिक सिद्धान्तों में मुख्य भेद या अन्तर यह है कि तात्विक सिद्धान्त वस्तुतः परीक्षण योग्य नहीं होते यद्यपि उनका तात्विक मूल्यांकन किया जा सकता है।

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