# सांस्कृतिक विलम्बना : अर्थ, परिभाषा | सांस्कृतिक विलम्बना के कारण | Sanskritik Vilambana

समाजशास्त्री डब्ल्यू. एफ. आगबर्न ने अपनी पुस्तक ‘Social Change‘ में सर्वप्रथम ‘Cultural lag‘ शब्द का प्रयोग किया। इन्होंने संस्कृति के दो पहलू भौतिक (Material) तथा अभौतिक (Nonmaterial) को माना है। प्रायः यह देखा जाता है कि अभौतिक अंश भौतिक से पिछड़ जाता है। इसे ही सांस्कृतिक विलम्बना या ‘पश्चायन’ कहते हैं।

आगबर्न तथा निमकॉफ ने ‘Hand Book of Sociology‘ में विलम्बना की परिभाषा इन शब्दों में दी है- “असमान गति से परिवर्तित होने वाले संस्कृति के दो सम्बद्ध भागों में उपस्थित तनाव की व्याख्या उस भाव में एक विलम्बना के रूप में की जा सकती है जो कि न्यूनतम गति से परिवर्तित हो रहा है, क्योंकि एक-दूसरे से पिछड़ा रहता है।”

सांस्कृतिक विलम्बना : अर्थ, परिभाषा

सांस्कृतिक विलम्बना को स्पष्ट करते हुए फेयर चाइल्ड लिखते हैं, “संस्कृति के अन्तःसम्बन्धित अथवा अन्योन्याश्रित दो भागों के परिवर्तन की गति में समकालीनता के अभाव को ‘सांस्कृतिक पिछड़न‘ कहा जाएगा जिससे संस्कृति में अव्यवस्था या कुसमायोजन उत्पन्न हो जाता है।”

इस परिभाषा से स्पष्ट है कि भौतिक संस्कृति का आगे बढ़ जाना व अभौतिक का पीछे रह जाना ही सांस्कृतिक पिछड़ापन या ‘सांस्कृतिक विलम्बना‘ कहलाता है। यह दशा संस्कृति में असन्तुलन की दशा है। इस असन्तुलन को समाप्त करने के लिए सामंजस्य तथा अनुकूलन का प्रयत्न किया जाता है, इस दौरान समाज में भी परिवर्तन होते हैं। इसी प्रकार से जब इन दो संस्कृतियों में असन्तुलन पैदा होता है तो समाज पर उसका प्रभाव पड़ता है, उसमें भी परिवर्तन आते हैं।

ऑगबर्न के अनुसार “आधुनिक संस्कृति के विभिन्न भागों में समान गति से परिवर्तन नहीं हो रहे हैं। कुछ भागों में दूसरों की अपेक्षा अधिक तीव्र गति से परिवर्तन हो रहे हैं और चूँकि संस्कृति के सभी भाग एक-दूसरे पर निर्भर और एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं, अतः संस्कृति के एक भाग में होने वाले तीव्र परिवर्तन से दूसरे भागों में भी अभियोजन (readjustment) की आवश्यकता होती है।”

                  स्पष्ट है कि भौतिक संस्कृति अभौतिक संस्कृति की तुलना में शीघ्र परिवर्तित होती है। इससे एक संस्कृति (भौतिक) आगे बढ़ जाती है तथा दूसरी (अभौतिक) पिछड़ जाती है। उदाहरण के रूप में, वर्तमान समय में मशीनों एवं कलपुर्जा का विकास तो खूब हुआ, किन्तु उसी गति से अभौतिक संस्कृति के तत्वों जैसे धर्म, साहित्य, दर्शन व कला का विकास नहीं हुआ है। परिणामस्वरूप अभौतिक संस्कृति पिछड़ गयी है।

सांस्कृतिक पिछड़ेपन को स्पष्ट करने के लिए ऑगबर्न ने कई उदाहरण दिये हैं जैसे वर्तमान समय वैज्ञानिक प्रगति के कारण मशीनीकरण एवं औद्योगीकरण में प्रगति हुई है, अनेक नये व्यवसाय पनपे हैं, किन्तु उनकी तुलना में श्रम-कल्याण के नियमों एवं संस्थाओं का विकास धीमी गति से हुआ है। इसी प्रकार से सड़क यातायात तो बढ़ा है, किन्तु सड़क के नियम बाद में बने, कृषि करने के नवीन यन्त्रों एवं साधनों का विकास तो हुआ है पर भूमि सुधार के कानून तो देर से बने हैं। इस प्रकार भौतिक और अभौतिक संस्कृति में असन्तुलन पैदा हो गया है और उनमें अनुकूलन नहीं हो पाया है।

लम्ले सांस्कृतिक पिछड़ेपन को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि ऐसा मालूम पड़ता है कि बहुत से पैदल चलने वाले व्यक्ति या सेना की एक टुकड़ी कदम मिलाकर नहीं चल रही हो या एक संगृहीत समूह में कुछ लोग पिछले वर्ष का और कुछ पिछली शताब्दी का अथवा और अधिक प्राचीन काल का सांस्कृतिक संगीत बजा रही हों।

सांस्कृतिक विलम्बना के कारण –

इस सन्दर्भ में यह प्रश्न उठता है कि सांस्कृतिक विलम्बना क्यों उत्पन्न होती है ? ऐसा क्या होता है कि संस्कृति का भौतिक पक्ष. तीव्रता से परिवर्तित हो जाता है, किन्तु अभौतिक पक्ष मन्द गति से या बिल्कुल ही परिवर्तित नहीं होता ? ऑगबर्न ने सांस्कृतिक विलम्बना की स्थिति के लिए उत्तरदायी कुछ कारणों का भी उल्लेख किया है-

1. रूढ़िवादिता

लगभग सभी समाजों में लोगों में परम्परा एवं रूढ़ियों के प्रति लगाव पाया जाता है। नवीन भौतिक वस्तुओं को चाहे वे शीघ्र ही स्वीकार कर लें, किन्तु परम्परा से चले आ रहे विश्वासों, रीति-रिवाजों, व्यवहारों, विचारों, मूल्यों और आदर्शों में नवीन परिवर्तनों को बहुत कम ही स्वीकार किया जाता है।

2. नवीनता के प्रति भय

मानव की यह प्रवृत्ति है कि वह नवीनता को एकदम स्वीकार नहीं करता, उसे शंका की दृष्टि से देखता है। जब तक समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों द्वारा उनका परीक्षण कर उसकी उपादेयता को सिद्ध नहीं कर दिया जाता तब तक सामान्य व्यक्ति परिवर्तनों एवं नवीनता के प्रति उपेक्षा ही बरतता है।

3. अतीत के प्रति निष्ठा

भौतिक संस्कृति की तुलना में अभौतिक संस्कृति में मन्द गति से परिवर्तन आने का एक कारण लोगों की अतीत के विचारों एवं परम्पराओं के प्रतिनिष्ठा भी है। वे यह सोचते हैं कि ये हमारे पूर्वजों की देन हैं, इन्हें मानना हमारा नैतिक कर्त्तव्य तथा पूर्वजों के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करना है। सदियों से प्रचलित होने के कारण उनमें पीढ़ियों का अनुभव जुड़ा हुआ है और समाज में उनकी उपयोगिता सिद्ध हो चुकी है। भारत जैसे देश में नवीनता के प्रति कोई सम्मान नहीं पाया जाता। इसके स्थान पर अतीत के गौरव को बनाये रखना प्रतिष्ठा प्रदान करने वाला माना जाता है।

4. निहित स्वार्थ

निहित स्वार्थों के कारण भी कई बार परिवर्तन का विरोध किया जाता है। सामन्तों ने भारत में प्रजातन्त्र का और पूँजीपतियों ने समाजवाद का विरोध अपने निहित स्वार्थों के कारण ही किया है। मजदूर लोग ऐसी मशीनों का विरोध करते हैं जिनसे मजदूरों की छंटनी होती है क्योंकि इससे उनमें बेकारी पनपती है। इस प्रकार प्रत्येक वर्ग के अपने स्वार्थ हैं जिनकी रक्षा के लिए वे सदैव भौतिक और अभौतिक परिवर्तनों का विरोध करते हैं।

5. नवीन विचारों की जाँच में कठिनाई

सांस्कृतिक विलम्बना का एक कारण यह भी है कि समाज में आने वाले नवीन विचारों की परीक्षा कहाँ और कैसे की जाए। प्राचीन विचारों की उपयोगिता से तो सभी व्यक्ति परिचित होते हैं, किन्तु नवीन विचार भी उनके लिए लाभदायक सिद्ध होंगे, यह जानना कठिन होता है।

6. परिवर्तन के प्रति विचारों में भिन्नता

समाज में परिवर्तन के प्रति विभिन्न लोगों की धारणा में भी अन्तर पाया जाता है। कुछ व्यक्ति परिवर्तनों का उत्साहपूर्वक स्वागत करते हैं, कुछ उनके प्रति उदासीन होते हैं, तो कुछ उनका विरोध करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि संस्कृति में असन्तुलन पैदा हो जाता है।

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