अनुसूचित जाति एवं जनजाति के उत्थान हेतु संसद एवं विधान मंडल में आरक्षण की संवैधानिक प्रावधान :
प्राचीन काल से लेकर मध्यकाल तक राजनीतिक क्षेत्र में भी अस्पृश्यों को समस्त अधिकारों से वंचित रखा गया, इसका कारण हिन्दू स्मृतियाँ तथा धर्म शास्त्र हैं, जिन्होंने निर्ममतापूर्वक अछूत कही जाने वाली जातियों को इस अधिकार से वंचित कर दिया। ब्रिटिश काल में कम्यूनल अवार्ड के अनुसार दलितों को दो वोटों का अधिकार मिला था, राजनैतिक आरक्षण को आधार बनाकर विधायिका में इन लोगों के लिए 78 सीटें आरक्षित की गई थी। इन्हें विशेष चुनाव क्षेत्र कहा गया था, पर गाँधी जी के अथक प्रयास से वे पृथक निर्वाचन समाप्त हुआ और दलितों के लिए सामान्य निर्वाचन प्रक्रिया में ही स्थान सुरक्षित कर दिया गया।
भारतीय संविधान निर्मात्री सभा ने पृथक निर्वाचन के प्रश्न पर गंभीर विचार विमर्श किया और लंबी बहस के बाद अंततः पृथक निर्वाचन मण्डल का प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया गया। संविधान सभा ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सामाजिक निर्योग्यताओं को ध्यान में रखते हुए उनके लिए सामान्य निर्वाचन प्रक्रिया में ही स्थान आरक्षित किया। डॉ. अंबेडकर ने संविधान दलित वर्गों की समस्याओं पर विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था कि “दलित वर्ग की समस्याओं का निदान तब तक संभव नहीं है जब तक उनके हाथ में राजनीतिक सत्ता नहीं आएगी।”
संविधान के अनुच्छेद 330 और 332 के अनुसार लोकसभा और राज्यों के विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए जनसंख्या के अनुपात में स्थान आरक्षित किये गए हैं, पर विधान परिषद और राज्य सभा में सीटों के आरक्षण की व्यवस्था नहीं है। आरक्षण के लिए 1971 की जनगणना को आधार बनाया गया। शुरू में यह आरक्षण संविधान लागू होने के 10 वर्ष की अवधि के लिए था, लेकिन बाद में संविधान में 8 वाँ संशोधन करके इसको 20 वर्ष के लिए कर दिया गया और संविधान के 23 वें संशोधन अधिनियम, 1969 द्वारा बढ़ाकर 30 वर्ष के लिए कर दिया गया इसके बाद फिर संविधान में 45 वाँ संशोधन करके 10 वर्ष कर दिया गया। वर्तमान समय में 104 वाँ संविधान संशोधन 2019 के द्वारा आरक्षण की अवधि को 10 वर्ष बढ़ा कर 25 जनवरी 2030 तक किया गया है। यद्यपि इनके लिए स्थान आरक्षित है, किंतु वे चुनाव क्षेत्र के सभी मतदाताओं द्वारा निर्वाचित किए जाते हैं, इनके लिए कोई पृथक निर्वाचन मंडल नहीं है। अनु. 325 निर्वाचन के लिए एक साधारण निर्वाचन नामावली का उपबंध करता है, इसका अर्थ यह है कि इन जातियों के लोग सामान्य स्थानों के लिए भी निर्वाचित किये जा सकते हैं।
अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लोकसभा और विधानसभाओं में आरक्षण के बारे में डॉ. धर्मबीर लिखते हैं कि इन वर्गों के लिए राजनीतिक आरक्षण में सांसदों और विधायकों के लिए बढ़ाए जाते रहे हैं। आगे भी इनके काफी दिनों तक बढ़ते रहने की संभावना है। इस स्थिति का विश्लेषण यह स्पष्ट करता है कि अभी भी राजनीतिक दृष्टि से दलितों का प्रतिनिधित्व जनसंख्या के अनुपात में पूरा होने के बाद भी गुणात्मक रूप से परिपक्व अवस्था में नहीं आ सका है, इस सच की मुसलमानों के प्रतिनिधित्व से तुलना की जा सकती है। इस समय भारत में मुसलमानों की जनसंख्या अनुसूचित जातियों और जनजातियों की जनसंख्या से बहुत कम है, मुसलमानों के लिए ऐसे किसी राजनीतिक आरक्षण की व्यवस्था भी नहीं है फिर भी मुसलमान के प्रतिनिधि सामान्य सीटों से चुनाव जीत कर एक बड़ी संख्या में सांसद और विधायक बनते हैं, अगर अनुसूचित जातियों और जनजातियों का आरक्षण समाप्त कर दिया जाए तो इसकी पूरी-पूरी संभावना है कि इन वर्गों की मुसलमानों से अधिक जनसंख्या होने पर भी इन वर्गों के लिए आरक्षित सीटों के अलावा सामान्य सीटों में से कोई इक्का-दुक्का सांसद एवं विधायक चुनकर आ पाता है, हालांकि इन्हें लोक सभा की सारी 543 सीटों पर चुनाव लड़ने की मनाही नहीं है।
एक मूलभूत प्रश्न उठता है कि क्या विधानमंडलों में आरक्षण की सुविधा केवल उन्हीं लोगों को प्राप्त होगी जो हिन्दू धर्म से संबंधित दलित वर्ग से हैं या ऐसे दलितों को भी प्राप्त होगी जिन्होंने अपना धर्म परिवर्तन कर लिया है। इस प्रश्न का उत्तर उच्चतम न्यायालय ने चतुभुर्ज विठ्ठलदास जशानी बनाम मोरेश्वर परशराम के वाद में प्रदान किया। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अगर कोई दलित व्यक्ति अपना धर्म परिवर्तन कर देता है तो भी उसे आरक्षित सीटों से चुनाव लड़ने से मना नहीं किया जा सकता, क्योंकि मात्र धर्म परिवर्तन से उसकी जातिगत स्थिति में परिवर्तन नहीं होता है। न्यायालय ने आगे यह भी कहा कि ऐसी स्थिति में तीन बातों पर ध्यान देना चाहिए –
- 1. जिस समूह से धर्म परिवर्तन किया गया है, उसकी क्या प्रतिक्रिया है ?
- 2. जिस व्यक्ति ने धर्म परिवर्तन किया है, उसकी क्या मंशा है ?
- 3. स्वीकार किये गए नए धर्म के नियम क्या हैं ?
विद्वान न्यायमूर्ति ने स्वयं यह उत्तर दिया कि यदि पुराना समूह उस व्यक्ति को नया धर्म स्वीकार करने पर उसे जाति बहिष्कृत नहीं करता है तथा वह व्यक्ति जिसने धर्म परिवर्तन किया है, वह भी अपने पुराने समूह के साथ सामाजिक एवं राजनीतिक संबंध बनाये रखना चाहता है और धर्म परिवर्तन व्यवहारिक उद्देश्य के लिए केवल नाम मात्र का ही है, तो ऐसे व्यक्ति को आरक्षित सीटों से चुनाव लड़ने के दावे को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
एक अन्य वाद में उच्चतम न्यायालय ने हिन्दू शब्द का का निर्वचन बहुत ही सीमित अर्थों में किया है। इस वाद में न्यायालय ने बौद्ध धर्म को ग्रहण करने वाले दलितों को आरक्षित सीटों पर चुनाव लड़ने के अधिकार को अस्वीकार कर दिया। न्यायालय ने राष्ट्रपति के आदेश का सहारा लिया और बौद्ध धर्म का नाम उस आदेश में न होने के कारण हिन्दू धर्म के दलितों को मिलने वाली विधान मंडलों में आरक्षण की सुविधा से उनको वंचित कर दिया।
उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर भी बल दिया है कि अगर कोई अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजातिगत अपनी जातिगत स्थिति में परिवर्तन करता है, तो न्यायालय इस प्रश्न पर भी विचार करेगा कि क्या उच्च जाति के लोग उस व्यक्ति की नई सामाजिक स्थिति को स्वीकार करते हैं, यदि उत्तर सकारात्मक है तो ऐसे व्यक्तियों को विधान मंडलों में आरक्षण की सुविधा नहीं मिलेगी, अगर उत्तर नकारात्मक है तो ऐसे व्यक्ति विधान मंडलों में आरक्षण की सुविधा का लाभ उठा सकते हैं।
संविधान द्वारा आरक्षित चुनाव प्रणाली को इसलिए अपनाया गया ताकि अनुसूचित जाति एवं अन्य जातियों के बीच जो अंतर है, उसको कम किया जा सके। अनुसूचित जाति के सदस्य किसी सामान्य अनारक्षित सीट से भी चुनाव लड़ सकते हैं, इस पर किसी प्रकार रोक नहीं है, लेकिन यहाँ पर हम तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट कराना चाहेंगे कि संविधान निर्माताओं का आरक्षण देने के पीछे मंशा यह थी कि इसके माध्यम से दलित नेता उभरेंगे और दलितों को राष्ट्र की मुख्य धारा से जोड़ने का कार्य करेंगे, परंतु वे सिर्फ दलित राजनीति करके अपना वोट बैंक बढ़ाना चाहते हैं, तथा अपना भला करना चाहते हैं, वे सिर्फ जाति के नाम पर वोट माँग कर जातिय आक्रमकता और हिंसा के बीच आरोपित करते हैं जबकि वर्तमान समय में जरूरत यह है कि पृथकतावादी मनोवृत्तियों को त्याग कर सामाजिक एकता और सहिष्णुता का व्यवहार अपनाया जाय जिससे राष्ट्र की प्रगति हो सके।