समाजशास्त्र की विषय-वस्तु का वर्णन
किसी भी विषय की विषय-वस्तु से तात्पर्य उन पहलुओं अथवा बातों से हैं जिनका अध्ययन उसमें किया जाता है। विषय-वस्तु का निर्धारण करना इसलिए अनिवार्य है क्योंकि किसी भी विषय में सभी पहलुओं या बातों का अध्ययन नहीं किया जा सकता। ऐसा किसी भी विषय-विशेष को अन्य विषयों से अलग करने के लिए भी अनिवार्य है।
सामान्यतयः समाजशास्त्र को समाज के वैज्ञानिक अध्ययन के रूप में परिभाषित किया जाता है, लेकिन इससे हम उसकी विषय-वस्तु के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट तथा निश्चित ज्ञान नहीं प्राप्त कर पाते। इसका मुख्य कारण यह है कि समाज का वैज्ञानिक अध्ययन तो राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, इतिहास, मानवशास्त्र इत्यादि अन्य सामाजिक विज्ञान भी करते हैं और ये सामाजिक विज्ञान समाजशास्त्र की अपेक्षा कहीं अधिक विकसित हैं। हमारे सामने मुख्य समस्या यह आती है कि जब समाजशास्त्र तथा अन्य सभी सामाजिक विज्ञान समाज के वैज्ञानिक अध्ययन का दावा करते हैं तो समाज से सम्बन्धित समस्त संयुक्त सामग्री का किस प्रकार ऐसा तर्क-संगत विभाजन किया जाये कि प्रत्येक सामाजिक विज्ञान को (जिसमें समाजशास्त्र भी है) अपना अपना हिस्सा मिल जाए। समस्त संयुक्त सामाजिक सामग्री के इस तर्कसंगत विभाजन के परिणामस्वरूप जो सामग्री समाजशास्त्र के हिस्से में आती है उसे हम दो प्रकारों में विभाजित कर सकते हैं।
- समाजशास्त्र की अविशिष्ट विषय-वस्तु
- समाजशास्त्र की विशिष्ट विषय-वस्तु
1. समाजशास्त्र की अविशिष्ट विषय वस्तु
एक पृथक विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र के जन्म से बहुत पहले से अन्य सामाजिक विज्ञान सामाजिक तथ्यों तथा घटनाओं का अध्ययन करते रहे। उदाहरणत: राजनीतिशास्त्र के अन्दर सत्ता, राज्य, राष्ट्र, सरकार तथा उनसे सम्बन्धित संस्थाओं का अध्ययन होता रहा है। अर्थशास्त्र के विद्यार्थी अर्थ-व्यवस्था, उत्पादन, वितरण, उपभोग तथा उनसे सम्बन्धित संस्थाओं, समूहों तथा समितियों का अध्ययन करते रहे हैं। इतिहास में अतीत के घटना-क्रमों की विवेचना तथा उनका विश्लेषण होता रहा है। परन्तु फिर भी कुछ सामाजिक घटनायें और तथ्य ऐसे रह गये जिनका अध्ययन पूर्व विकसित तथा प्रतिष्ठित इन सामाजिक विज्ञानों में अभी तक नहीं हुआ। परिवार, जाति, वर्ग, ग्रामीण-नगरीय समुदाय, अपराध, सामाजिक विघटन, बाल-अपराध, सामाजिकरण विवाह इत्यादि ऐसे ही विषय हैं जो अन्य सामाजिक विज्ञानों के अछूते रह गये या उन पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया। समाजशास्त्र की अविशिष्ट विषय-वस्तु में हम ऐसे ही सामाजिक तथ्यों तथा घटनाओं को सम्मिलित करते हैं। जिनका समाजशास्त्र में केवल इसलिए अध्ययन किया गया क्योंकि अन्य सामाजिक विज्ञानों ने या तो उनका बिल्कुल ही अध्ययन नहीं किया और अगर किया भी तो उनके महत्वपूर्ण न समझे जाने के कारण उन पर विशेष ध्यान नहीं दिया। इसीलिए इकलेस ने एक स्थान पर लिखा है कि “इस प्रकार एक सीमा तक समाजशास्त्र के अवशेष कोटि का सामाजिक विज्ञान बनाना पड़ा है।”
इस प्रकार सरल शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि समाजशास्त्र की विषय-वस्तु में उन सम्बद्ध तथ्यों तथा घटनाओं को सम्मिलित कर लिया गया जिन्हें अन्य सामाजिक विज्ञानों ने अपने लिए अनुपयुक्त तथा महत्वहीन समझकर छोड़ दिया था।
इस सम्बन्ध में एक आशंका यह व्यक्त की जाती है कि अगर समाजशास्त्र केवल अन्य सामाजिक विज्ञानों को बची हुई सामग्री पर निर्भर रहा तो कालान्तर में विशिष्टीकरण तथा विभेदीकरण के फलस्वरूप उसके पास अपने लिए कोई विषय सामग्री बचेगी ही नहीं। अन्य सामाजिक विज्ञानों से बची हुई सामग्री पर विशिष्ट अध्ययन होते रहने के कारण नए-नए सामाजिक विज्ञानों का उदय हो रहा है- जैसे अपराध शास्त्र, जनसंख्या शास्त्र इत्यादि और यदि विशिष्टीकरण की यह प्रक्रिया इसी प्रकार चलती रही तो अन्य सामाजिक विज्ञानों से बची-खुची जो सामग्री समाजशास्त्र के हिस्से में आई थी वह भी उसके हाथ से जाती रहेगी।
उपर्युक्त विवेचना के आधार पर हमको समाजशास्त्र की विषय-वस्तु तथा उसके भविष्य के विषय में कोई निराशाजनक धारणा नहीं बना लेनी चाहिए, क्योंकि जैसा कि इंकलेस तथा अन्य समाजशास्त्रियों का विचार है “समाजशास्त्र केवल अल्प सामाजिक विज्ञानों द्वारा छोड़ दिए गए तथ्यों का ही अध्ययन नहीं करता बल्कि उसका अपना एक विशेष पृथक् तथा स्वतन्त्र विषय-क्षेत्र भी है। जिसके कारण उसे अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए न तो उसे अन्य सामाजिक विज्ञानों से बची हुई सामग्री पर ही आश्रित रहना है और न ही विशिष्टीकरण के परिणामस्वरूप उसके समाजशास्त्र के क्षेत्र से बाहर निकल जाने की ही आशंका है। विषय-सामग्री को ही समाजशास्त्र की विशिष्ट विषय-वस्तु की संज्ञा दी गई है।
2. समाजशास्त्र की विशिष्ट विषय-वस्तु
समाजशास्त्र की विशिष्ट विषय-वस्तु की श्रेणी में हम इस प्रकार के तथ्यों तथा घटनाओं को सम्मिलित करते हैं- जैसे, ‘सम्पूर्ण समाज’ सामाजिक सम्बन्ध संस्थायें, सामाजिक अन्तः क्रियायें, संस्कृति इत्यादि।
A. समाजशास्त्र समाज के अध्ययन के रूप में
सामान्यतः समाजशास्त्र को समाज के वैज्ञानिक अध्ययन के रूप में देखा जाता है। इंकलेस के शब्दों में “समाजशास्त्र समाज के किसी एक भाग का नहीं बल्कि सम्पूर्ण समाज का एक समग्र के रूप में अध्ययन करता है।’ गिडिंग्स ने भी समाजशास्त्र की परिभाषा “समाज के वैज्ञानिक अध्ययन‘ के रूप में की है।
सोरोकिन के मतानुसार भी समाजशास्त्र के अन्दर समाज को एक सम्पूर्ण इकाई मान इन बातों का अध्ययन किया जाता है- (i) समाज अपने पर्यावरण के साथ अनुकूलन करने में किस प्रकार अपनी संरचना तथा अपने प्रकार्यों में परिवर्तन करता है, (ii) समाज के विभिन्न अंग किस प्रकार परस्पर सम्बद्ध होते हैं तथा उनके विभिन्न अंगों की सामान्य विशेषतायें क्या हैं। समाजशास्त्र के अन्दर ‘सम्पूर्ण समाज’ को इकाई मानकर जो भी अध्ययन हुए हैं उन के दो प्रकार हैं प्रथम, वे अध्ययन जिनमें समाज का संरचनात्मकप्रकार्यात्मक अध्ययन किया गया तथा द्वितीय, वे अध्ययन जिनमें किसी एक विशेष समाज को इकाई मानकर उसका अन्य समाजों से तुलना के आधार पर उनकी विशेषताओं को समझने के प्रयत्न किये गये तथा विभिन्न समाजों की उत्पत्ति तथा विकास तथा उनको प्रभावित करने वाले कारकों की विस्तृत व्याख्या की गई है। समाजशास्त्र में समाज को इकाई मानकर किये गये इन दोनों प्रकार के अध्ययनों की विस्तृत विवेचना इस प्रकार से है।
क. समाज के संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक अध्ययन
सर्वप्रथम एमील दरखाईम तथा मैक्स वैबर ने इस प्रकार के अध्ययन किये। इस कोटि के समाजशास्त्रियों अध्ययनों में समाज को आन्तरिक संरचना अर्थात् उसके विभिन्न अंगों को पारस्परिक सम्बन्धों को तथा उन अंगों के सम्पूर्ण के प्रति प्रकार्यों को समझने के प्रयास किये जाते हैं। समाज के विभिन्न अंग क्या हैं? वे परस्पर किस प्रकार सम्बद्ध हैं ? वे अंग सम्पूर्ण समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति में किस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर इस श्रेणी के सामाजिक अध्ययनों में पता लगाने के प्रयत्न किये जाते हैं।
ख. किसी विशेष समाज का अध्ययन
इस कोटि के अध्ययनों में किसी एक विशेष समाज का उसके बाह्य पर्यावरण से सम्बन्धों का पता लगाकर उसके विशिष्ट लक्षणों को समझने का प्रयास किया है। बाह्य पर्यावरण से हमारा तात्पर्य केवल भौगोलिक अथवा सांस्कृतिक पर्यावरण से नहीं बल्कि उन अन्य समाजों से भी है जिनके साथ कोई विशेष समाज अन्तः क्रियायें करता है। दूसरे शब्दों में हम इसे समाजों का ऐतिहासिक तुलनात्मक अध्ययन भी कह सकते हैं। इसके अतिरिक्त इस प्रकार के अध्ययनों का मुख्य दृष्टिकोण उद्विकासीय होता है। इस प्रकार के अध्ययनों के आधार पर ही समाजों का वर्गीकरण भी किया गया है। स्पेन्सर, हॉबहाउस तथा गिडिंग्स इस सम्प्रदाय के प्रमुख विद्वान हैं। स्पेन्सर ने तो स्पष्ट लिखा है कि “समाजशास्त्र उद्विकास की प्रक्रिया में समाज की उत्पत्ति, विकास, संरचना तथा क्रियाओं के अध्ययन का एक प्रयास है।”
उपर्युक्त दोनों प्रकार के अध्ययनों में ‘समाज’ शब्द का भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयोग किया गया है। प्रथम कोटि के अध्ययनों में ‘समाज’ का अर्थ ‘सामाजिक सम्बन्धों की व्यवस्था’ लगाया गया है, अर्थात् उसमें ‘समाज’ को एक अमूर्त धारणा मानकर उसकी व्याख्या की गई है। दूसरे प्रकार के अध्ययनों में ‘समाज’ शब्द का प्रयोग लोगों के समूह के रूप में किया गया है। वास्तव में यह अन्तर ‘समाज’ तथा ‘एक समाज’ का अन्तर है। जब हम केवल एक ‘समाज’ शब्द का प्रयोग करते हैं तो हमारा मतलब लोगों के संकलन से नहीं बल्कि व्यक्ति के मध्य सामाजिक सम्बन्धों की व्यवस्था से होता है और जब किसी ‘एक समाज’ की बात करते हैं तो उससे हमारा तात्पर्य व्यक्तियों के संकलन से होता है- जैसे भारतीय समाज आदि।
B. समाजशास्त्र : संस्थाओं के अध्ययन के रूप में
दरखाइम, मैक्स वैबर, वैस्टर मार्क तथा पारसन्स ने समाजशास्त्र के अन्दर विभिन्न प्रकार की संस्थाओं के अध्ययन पर विशेष बल दिया है। इंकलेस ने तो संस्थाओं के अध्ययन को समाजशास्त्र की विशिष्ट विषय-वस्तु माना है। इंकलेस के ही शब्दों में, यह तर्क दिया जा सकता है कि संस्थायें समाजशास्त्र के लिए अधिक विशिष्ट सामग्री है, क्योंकि एक समग्र के रूप में समाज का विश्लेषण तो पहले से ही इतिहास तथा मानव शास्त्र में होता रहा है।
आगबर्न तथा निमकौफ के शब्दों में संस्था का अर्थ “कुछ आधारभूत मानवीय आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिये संगठित तथा स्थापित प्रणालियाँ ही सामाजिक संस्थायें हैं।” मानव अपनी विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए अनेक प्रकार के समूहों का सदस्य होता है। इन समूहों में ही उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। किन्तु प्रत्येक के अन्दर उसके विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कुछ कार्य प्रणालियाँ भी स्थापित तथा संगठित हो जाती हैं। उन कार्यप्रणालियों (संस्था) के माध्यम से ही अथवा उनका अनुसरण करके ही उस समूह के सदस्य बनते हैं। अतः प्रत्येक समूह की एक विशिष्ट कार्य-प्रणाली, नियम आदि होते हैं। विवाह, धर्म, शिक्षा, चर्च, आदि संस्थाओं के प्रमुख उदाहरण हैं। ये संस्थायें एक दूसरे से पृथक नहीं बल्कि परस्पर अन्तः सम्बन्धित होती हैं और इसीलिए एक दूसरे को निरन्तर प्रभावित करती रहती हैं। समाजशास्त्र के अन्दर सम्पूर्ण समाज को एक इकाई मानकर तो उसका अध्ययन किया ही जाता है किन्तु इसके साथ-साथ विभिन्न अंगों अर्थात् संस्थाओं के अन्तःसम्बन्धों का भी अध्ययन होता है। वास्तव में ध्यानपूर्वक देखा जाये तो पाठकों को स्पष्ट हो जायेगा कि सम्पूर्ण समाज का एक इकाई के रूप में अध्ययन केवल उसके निर्मायक अंगों के अन्तःसम्बन्धों के अध्ययन के आधार पर सम्पूर्ण समाज का अध्ययन समाजशास्त्र की विशिष्ट विषय-सामग्री कही जा सकती है। दुरखाइम ने इसलिए लिखा भी है कि “समाजशास्त्र सामाजिक संस्थाओं, उनकी उत्पत्ति तथा विकास का विज्ञान है।”
C. समाजशास्त्र : सामाजिक सम्बन्धों के अध्ययन के रूप में
सामाजिक सम्बन्धों का संस्थाओं से वही सम्बन्ध है जो संस्थाओं का समाज से है। संस्थायें समाज की इकाइयाँ हैं तो सामाजिक सम्बन्ध संस्था की इकाइयां हैं। उदाहरणतः ‘विवाह’ एक सामाजिक संस्था है जो पति तथा पत्नी के सामाजिक सम्बन्धों को व्यक्त करती है। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि पति-पत्नी का सामाजिक सम्बन्ध ‘विवाह’ नामक सामाजिक संस्था की एक इकाई है जिस प्रकार ‘विवाह’ नामक संस्था का तो कोई अर्थ ही नहीं हो सकता।
इसी प्रकार जब हम ‘शिक्षा’ की संस्था की बात करते हैं तो उनमें अध्यापक-विद्यार्थी, अध्यापक-अध्यापक, विद्यार्थी विद्यार्थी, अध्यापक-प्रधानाचार्य, विद्यार्थी-प्रधानाचार्य, प्रधानाचार्य-प्रबन्धकों आदि के पारस्परिक सम्बन्धों की बात अनिवार्य रूप से निहित रहती है। इन विभिन्न प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों की व्यवस्था या संरचना को समझे बिना ‘शिक्षा’ नामक संस्था को समझा ही नहीं जा सकता। अतः अनेक प्रकार के समाजशास्त्रियों ने ‘सामाजिक सम्बन्धों’ को समाजशास्त्र की विषय-वस्तु बताया है।
मैकाइवर के शब्दों में, “समाजशास्त्र की विषय-सामग्री सामाजिक सम्बन्ध ही है।” जर्मन समाजशास्त्री बानवीज तथा सिमेल तो सामाजिक सम्बन्ध के अतिरिक्त अन्य किसी भी बात के अध्ययन को समाजशास्त्र के अन्दर सम्मिलित ही नहीं करना चाहते।
अमरीकी समाजशास्त्री पारसन्स ने भी सामाजिक सम्बन्धों उनके विभिन्न स्वरूपों, प्रकारों तथा प्रतिमानों को समाजशास्त्र की विषय-सामग्री बताया है। विषयसामग्री (वस्तु) को मानने के पश्चात् यह भी समझ लेना आवश्यक है कि वास्तव में सामाजिक सम्बन्ध का अर्थ क्या है? सामाजिक सम्बन्धों का अर्थ, उनकी प्रकृति तथा उनके विभिन्न स्वरूपों तथा प्रकारों को स्पष्ट रूप से समझ कर ही हम समाजशास्त्र की विषय-वस्तु को समझ सकते हैं।