प्रगति सामाजिक परिवर्तन का एक विशेष ढंग या प्रक्रिया है जिसमें वांछित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सचेत प्रयत्न किये जाते हैं। प्रगति के बारे में ऑगस्ट कॉम्टे से लेकर आधुनिक समाजशास्त्रियों ने अपने विभिन्न मत व्यक्त किये हैं, किन्तु इसकी कोई एक सर्वमान्य वैज्ञानिक व्याख्या नहीं की जा सकी है। विभिन्न गुणों में प्रगति को भिन्न-भिन्न रूपों में परिभाषित किया गया है।
प्राचीन समय में आध्यात्मिक लक्ष्यों को प्राप्त करने को प्रगति माना जाता था, किन्तु वर्तमान में भौतिक लक्ष्यों की प्राप्ति एवं सुख-सुविधाओं में वृद्धि को ही प्रगति माना गया है। प्रगति का सामाजिक मूल्यों से घनिष्ठ सम्बन्ध है और हर समाज के अपने-अपने मूल्य होते हैं। यही कारण है कि प्रगति की अवधारणा प्रत्येक समाज में अलग-अलग पायी जाती है।
सामाजिक प्रगति का अर्थ एवं परिभाषाएँ :
प्रगति में भी परिवर्तन निहित है, किन्तु यह परिवर्तन नियोजित एवं सामाजिक मूल्यों के अनुरूप होता है। अंग्रेजी का ‘Progress’ शब्द लैटिन भाषा के Progreditor से बना है जिसका अर्थ है ‘to step forward’ अर्थात् ‘आगे बढ़ना’। इस प्रकार वांछित लक्ष्य की ओर परिवर्तन पाया जाता है। एक समय में जिसे प्रगति कहा जाता है, दूसरे समय में उसी स्थिति को अवनति कहा जा सकता है।
प्रगति को विभिन्न विद्वानों ने निम्नांकित स्तर से परिभाषित किया है –
(1) लेस्टर वार्ड के अनुसार, “प्रगति वह है जो मानवीय सुख में वृद्धि करती है।”
(2) हॉर्नेल हार्ट के शब्दों में, “सामाजिक प्रगति सामाजिक ढाँचे में वे परिवर्तन हैं जो कि मानवीय कार्यों को मुक्त करें, प्रेरणा और सुविधा प्रदान करें तथा उसे संगठित करें।”
(3) ऑगबर्न एवं निमकॉफ के मतानुसार, “प्रगति का अर्थ होता है- अच्छाई के लिए परिवर्तन और इसीलिए प्रगति में मूल्य-निर्धारण होता है।”
(4) लम्ले के कथनानुसार, “प्रगति एक परिवर्तन है लेकिन यह इच्छित अथवा मान्यता प्राप्त दिशा में होने वाला परिवर्तन है, किसी भी दिशा में होने वाला परिवर्तन नहीं है।”
(5) हॉबहाउस के अनुसार, “प्रगति का तात्पर्य सामाजिक जीवन में ऐसे गुणों की वृद्धि होना है जिन्हें वे अपने में आत्मसात् कर सकें तथा उनके सामाजिक मूल्यों को विवेकपूर्ण बना सकें।”
(6) गुरविच तथा मूर ने कहा है कि “प्रगति स्वीकृत मूल्यों के सन्दर्भ में इच्छित मूल्यों की ओर बढ़ना है।”
(7) जिन्सबर्ग के अनुसार, “प्रगति का अर्थ उस दिशा में होने वाला विकास है जो सामाजिक मूल्यों का विवेकयुक्त हल प्रस्तुत करता हो।”
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि प्रगति समाज द्वारा स्वीकृत मूल्यों की ओर परिवर्तन है जिससे मानव सुख एवं कल्याण में वृद्धि होती है।
सामाजिक प्रगति की अवधारणा को और अधिक स्पष्टतः समझने के लिए हम यहाँ उसकी विशेषताओं का निम्न प्रकार से उल्लेख करेंगे-
(1) प्रगति वांछित दिशा में परिवर्तन है- किसी भी दिशा में परिवर्तन को प्रगति नहीं कहते हैं, वरन् सामाजिक मूल्यों के अनुरूप तथा वांछित लक्ष्यों की ओर होने वाला परिवर्तन ही प्रगति है।
(2) प्रगति तुलनात्मक है- प्रगति की अवधारणा तुलनात्मक है अर्थात् समय और स्थान के अनुसार यह बदलती रहती है। एक समाज में जनसंख्या की वृद्धि प्रगति मानी जा सकती है तो दूसरे समाज में नहीं।
(3) प्रगति सामूहिक जीवन से सम्बन्धित होती है- प्रगति का सम्बन्ध किसी व्यक्ति विशेष के मूल्य या लाभ से न होकर सामूहिक लाभ एवं मूल्यों से है।
(4) प्रगति स्वचालित नहीं होती है- प्रगति कभी स्वतः नहीं होती है, वरन् उसके लिए सचेत एवं नियोजित प्रयत्न करने पड़ते हैं। उदाहरणार्थ, ग्रामीण प्रगति के लिए समन्वित ग्रामीण विकास योजनाएँ बनायी गयीं।
(5) प्रगति का सम्बन्ध केवल मनुष्यों से है- प्रगति की चर्चा हम केवल मानव समाज में ही कर सकते हैं, क्योंकि मूल्य की अवधारणा उन्हीं में पायी जाती है, पशुओं में नहीं।
(6) प्रगति में लाभ अधिक एवं हानि कम होती है।
(7) प्रगति की धारणा परिवर्तनशील है- इसका सम्बन्ध सामाजिक मूल्यों से है और सामाजिक मूल्य स्थिर नहीं होते, वरन् समय के साथ परिवर्तित होते रहते हैं। भारत में ही कभी आध्यात्मिक लक्ष्यों की पूर्ति को प्रगति माना जाता था, जबकि वर्तमान में भौतिक लक्ष्यों की अधिकाधिक पूर्ति को प्रगति कहा जाता है।
(8) प्रगति मूल्यों पर आधारित है- सामाजिक प्रगति का घनिष्ठ सम्बन्ध सामाजिक मूल्यों से है। सामाजिक मूल्य ही किसी दशा को अच्छा या बुरा बताते हैं। अतः जिन लक्ष्यों को सामाजिक मूल्यों द्वारा उचित ठहराया जाता है, उसे सामाजिक प्रगति कहा जाता है।
सामाजिक प्रगति के मापदण्ड :
प्रश्न यह उठता है कि हम सामाजिक प्रगति को कैसे मापें और यह कहें कि अमुक परिवर्तन प्रगति है। इस सन्दर्भ में विभिन्न विचारकों ने सामाजिक प्रगति के विभिन्न मापदण्ड माने हैं। पीगू नामक अर्थशास्त्री आर्थिक कल्याण को, तो अन्य अर्थशास्त्री उद्योग, उत्पादन, व्यापार एवं वाणिज्य, जीवन-स्तर, आय आदि में वृद्धि को प्रगति मानते हैं। सुखवादी दार्शनिकों के अनुसार अधिकांश लोगों का अधिकांश सुख ही प्रगति है। धर्मशास्त्री एवं नीतिशास्त्रियों के अनुसार आध्यात्मिक उन्नति एवं नैतिक गुणों में वृद्धि ही प्रगति है। जीवशास्त्री रक्त की शुद्धता, दीर्घायु, स्वास्थ्य में वृद्धि आदि को प्रगति मानते हैं। साहित्यकार सुन्दर साहित्यिक रचनाओं को तो कलाकार कला की उन्नति को प्रगति मानते हैं। वैज्ञानिक विभिन्न प्रकार के नवीन आविष्कारों की वृद्धि को प्रगति की कसौटी मानते हैं। स्पष्ट है कि प्रगति के बारे में विद्वानों में कोई एकमत नहीं है।
बोगार्ड्स ने प्रगति के चौदह मापदण्डों का उल्लेख निम्न प्रकार से किया है-
(1) सार्वजनिक हित के लिए प्राकृतिक स्रोतों का लाभकारी उपयोग, (2) शारीरिक व मानसिक दृष्टि से अधिक स्वस्थ व्यक्तियों का होना, (3) स्वस्थ वातावरण में वृद्धि, (4) मनोरंजन के उपयोगी साधनों में वृद्धि, (5) पारिवारिक संगठन की मात्रा में वृद्धि, (6) रचनात्मक कार्यों के लिए व्यक्तियों को अधिक-से-अधिक अवसर प्राप्त होने की सुविधाएँ, (7) व्यापार और उद्योग में जनता के अधिकारों में वृद्धि, (8) सामाजिक दुर्घटनाओं, बीमारियों, बेकारी और मृत्यु के विरुद्ध सामाजिक बीमे से सुविधाओं में वृद्धि, (9) समाज में अधिकांश लोगों के जीवन-स्तर में वृद्धि, (10) सरकार और जनता के बीच पारस्परिक सहयोग की मात्रा में अधिकाधिक वृद्धि, (11) कला का अधिकाधिक प्रसार, (12) मानव में धार्मिक एवं आध्यात्मिक पक्षों का विशेष विकास, (13) व्यावसायिक, बौद्धिक और कल्याणकारी शिक्षा का विस्तार, (14) सहयोगी एवं सहकारी जीवन में वृद्धि।
डिवाइन ने सामाजिक प्रगति के निम्नांकित मापदण्डों का उल्लेख किया है –
(1) प्राकृतिक साधनों का संरक्षण और उनका सबकी भलाई के लिए उपयोग, (2) शारीरिक व मानसिक दृष्टि से दुर्बल लोगों की संख्या में कमी, (3) अस्वस्थ पर्यावरण; अस्वास्थ्यकर मकानों, असन्तोषजनक सफाई और संक्रामक रोगों का अभाव, (4) हानिकारक मनोरंजन में कमी व स्वस्थ मनोरंजन में वृद्धि, (5) स्वस्थ और सम्पन्न परिवारों एवं बच्चों की संख्या में वृद्धि, (6) रचनात्मक कार्यों के लिए अधिक अवसर, (7) उद्योग और व्यापार में मजदूर, पूँजीपति तथा जन-साधारण का मिला-जुला अधिकार, (8) सामाजिक बीमा का अधिकतम प्रसार, (9) अधिकतम लोगों के लिए अच्छी आमदनी, पौष्टिक भोजन, स्वास्थ्यप्रद मनोरंजन, आदि की व्यवस्था, (10) सरकार एवं जनता में अधिकाधिक सहयोग, (11) अच्छे संगीत, कविता, चित्रकारी और अन्य कलात्मक वस्तुओं की रूचि में वृद्धि, (12) व्यावसायिक बौद्धिक तथा कल्याणकारी शिक्षा का प्रसार, (13) अधिकांश लोगों के जीवन में धार्मिक एवं आध्यात्मिक पक्ष का विकास, (14) जनता में मिल-जुलकर काम करने की भावना में वृद्धि ।
हॉबहाउस ने समुदाय की प्रगति के लिए उचित जनसंख्या, कार्यकुशलता, स्वतन्त्रता तथा पारस्परिक सेवा की प्रवृत्ति को आवश्यक कसौटी माना है। विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रगति के अनेक मापदण्डों का उल्लेख किया गया है, किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि वे सभी एक साथ प्राप्त किये जाएँ। सभी मापदण्डों को प्राप्त करना भी कठिन है। अतः जो समाज इनमें से जितने मापदण्डों को प्राप्त कर लेता है वह उतना ही प्रगतिशील माना जाता है।
हॉर्नेट हार्ट के अनुसार सामाजिक प्रगति के मापदण्ड इस प्रकार हैं- (1) आयु का अधिक होना, (2) मानसिक स्वास्थ्य, (3) अवकाश का अधिक समय।
टॉड ने सम्पत्ति, स्वास्थ्य, जनसंख्या, व्यवस्था, स्थायित्व तथा अवसरों की वृद्धि को प्रगति के मापदण्ड माना है।
सामाजिक प्रगति में सहायक दशाएं/तत्व :
1. शिक्षा का उच्च स्तर
शिक्षा मानव के ज्ञान का द्वार खोलती है। शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को नवीन वस्तुओं तथा स्थितियों का ज्ञान होता है। शिक्षा के अभाव में न तो अविष्कार ही सम्भव है और न ही प्रगति। शिक्षा ही वैचारिक विकास के लिए उत्तरदायी है और वही लोगों में प्रगति के प्रति चेतना उत्पन्न करती है।
2. प्रौद्योगिकी एवं वैज्ञानिक प्रगति
सामाजिक प्रगति के लिए विज्ञान का विकास एवं प्रौद्योगिक उन्नति भी आवश्यक है। मशीनों के प्रयोग से बड़ी मात्रा में और तीव्र गति से उत्पादन होता है, वाणिज्य और व्यापार में भी वृद्धि होती है। इसके परिणामस्वरूप किसी समाज की आर्थिक दशा में सुधार होता है जो प्रगति के लिए आवश्यक पृष्ठभूमि है। यही नहीं, बल्कि किसी समाज की प्रगति के लिए यातायात एवं संचार के नवीन साधनों, रेल, मोटर, वायुयान, रेडियो, टेलीविजन, टेलीफोन, समाचार-पत्रों आदि का विकास भी आवश्यक है जिससे ज्ञान की वृद्धि होती है और सामाजिक प्रगति सम्भव हो पाती है।
3. नवीन आविष्कार
नवीन आविष्कार के सहारे मानवीय समस्याओं का समाधान किया जाता है और मानवीय सुख-सुविधाओं में वृद्धि की जाती है। इस प्रकार आविष्कार प्रगति की सम्भावनाओं में वृद्धि करते हैं।
4. आदर्श जनसंख्या और स्वाथ्य
कोई भी समाज ऐसी स्थिति में ही प्रगति कर सकता है जब उसके सदस्यों की संख्या आदर्श हो तथा वे शारीरिक और मानसिक दृष्टि से स्वस्थ हों। अधिक जनसंख्या बेकारी, गरीबी, भुखमरी, अकाल, महामारी एवं प्राकृतिक विपदाएँ लाती है। ऐसी स्थिति में सामाजिक प्रगति की आशा धूमिल हो जाती है। इसी प्रकार से यदि लोगों का स्वास्थ्य ठीक नहीं है और लोग शारीरिक और मानसिक दृष्टि से कमजोर हैं तो वे लोग काम नहीं कर पायेंगे और सामाजिक प्रगति में अपना कोई योगदान नहीं दे पायेंगे।
5. अनुकूल भौगोलिक पर्यावरण
सामाजिक प्रगति के लिए अनुकूल भौगोलिक पर्यावरण भी आवश्यक है। जिस देश में प्राकृतिक स्रोतों, खनिज पदार्थों, लोहा, चाँदी, सोना, कोयला, यूरेनियम, पेट्रोलियम आदि की बहुलता होती है वह अधिक प्रगति कर सकता है। इसी प्रकार से जिन स्थानों का भौगोलिक पर्यावरण अनुकूल होता है. वहाँ के समाज ही प्रगति कर पाते हैं। रेगिस्तानी, पहाड़ी, दलदली एवं बर्फीले स्थान के वासियों को प्रगति के लिए अधिक संघर्ष करना होता है। इसी प्रकार से जहाँ अत्यधिक गर्मी और अत्यधिक सर्दी पड़ती है वहाँ पर भी सामाजिक प्रगति के अवसर कम होते हैं। अतः सामाजिक प्रगति के लिए आदर्श भौगोलिक परिस्थितियाँ होनी चाहिए।
6. सामाजिक सुरक्षा
जिस समाज में लोगों को सुरक्षा प्राप्त होती है उसके प्रगति करने के अवसर भी अधिक होते हैं। जीवन की सुरक्षा एवं उच्च पद प्राप्त करने के अवसरों की उपलब्धि लोगों में आत्मविश्वास पैदा करती है। जिस समाज में जाति-पाँति का भेद-भाव, छुआछूत एवं शोषण का अभाव हो, वह प्रगति करने की अधिक क्षमता रखता है।
7. स्वतन्त्रता एवं समानता
स्वतन्त्र देश गुलाम देश की अपेक्षा अधिक प्रगति कर सकता है क्योंकि स्वतन्त्रता लोगों में उत्तरदायित्व की भावना पैदा करती है, उनमें आत्म-विश्वास और सम्मान के विचार जाग्रत करती है। इसी प्रकार से अवसर की समानता भी लोगों में आशा और विश्वास को उत्पन्न करती है।
8. योग्य नेतृत्व
जिस देश के नेता समाज के लिए त्याग और बलिदान के लिए तत्पर रहते हों और समाज के हितों को अपने हितों से अधिक प्राथमिकता देते हों, ऐसे समाज ही प्रगति कर पाते है। योग्य नेता ही समाज को सही दिशा-निर्देश दे सकते हैं।
9. आत्म-विश्वास
सामाजिक प्रगति के लिए समाज के लोगों में यह आत्म-विश्वास होना आवश्यक है कि वे प्रगति कर सकते हैं। आत्म-विश्वास के अभाव में कोई भी समाज प्रगति नहीं कर सकता।
10. राजनीतिक स्थिरता
सामाजिक प्रगति के लिए देश में राजनीतिक स्थिरता या स्थिर सरकार आवश्यक है। जब सरकारें जल्दी-जल्दी बदलती हों या राजनीतिक उपद्रव और क्रान्तियाँ होती हों तो समाज में भय, आतंक और निराशा का वातावरण पाया जाता है। ऐसी स्थिति में समाज प्रगति नहीं कर सकता। स्थिर शासन में ही प्रगति के लिए योजनाबद्ध प्रयास सम्भव है। इसी प्रकार सामाजिक प्रगति के लिए युद्ध का अभाव एवं मधुर अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का होना भी आवश्यक है।
11. कार्य में विश्वास
सामाजिक प्रगति के लिए यह आवश्यक है कि लोगों में धार्मिक नियतिवाद एवं भाग्यवाद के स्थान पर स्वयं की शक्ति एवं कार्य में विश्वास हो। जब लोग सब कुछ ईश्वर की मर्जी पर छोड़ देते हैं और स्वयं प्रयास नहीं करते तो वे प्रगति नहीं कर सकते।
12. नैतिक चरित्र
नैतिक चरित्र ही सामाजिक प्रगति की कुंजी है। जहाँ के लोग भ्रष्ट, अन्यायी एवं अनैतिक हों, वे कोई प्रगति नहीं कर सकते। दो महायुद्धों में बर्बाद होने के बावजूद भी जापान ने अत्यधिक प्रगति की है। इसका कारण जापानियों का नैतिक एवं राष्ट्रीय चरित्र ही है। भारत की सामाजिक प्रगति में नैतिक एवं राष्ट्रीय चरित्र का अभाव सबसे बड़ी बाधा है।