# सामाजिक अनुसंधान के प्रमुख चरण (Samajik Anusandhan Ke Pramukh Charan)

सामाजिक अनुसंधान का सम्बन्ध सामाजिक वास्तविकता से है। इसका उद्देश्य सामाजिक वास्तविकता को क्रमबद्ध वस्तुनिष्ठ रूप से समझना है। अनुसन्धान का अर्थ पुनः खोज करने के अतिरिक्त किसी प्रघटना या समस्या के सम्बन्ध में नवीन जानकारी प्राप्त करना अथवा उसके सम्बन्ध में उपलब्ध ज्ञान में संशोधन करना भी है।

शोध शब्द का शुद्धि, संशोधन संस्कार के अर्थ के रूप में प्रयोग किया जाता है। प्रायः अनुसन्धान- नवीन ज्ञान की दिशा में किया गया क्रमबद्ध प्रयास है। सामाजिक विज्ञान में अनुसन्धान शब्द किसी नवीन ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रयुक्त किये जाने के साथ-साथ ज्ञान में वृद्धि, ज्ञान में किसी प्रकार का संशोधन करने या ज्ञान की पुनर्स्थापना करने में भी प्रयुक्त किया जाता है।

उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि सामाजिक अनुसन्धान का अर्थ निम्न प्रकार है-

१. सामाजिक घटनाओं या तथ्यों के बारे में नवीन जानकारी प्राप्त करना,

२. पहले से प्राप्त ज्ञान में वृद्धि करना,

३. जिन सिद्धान्तों एवं नियमों का निर्माण किया गया है उनमें किसी प्रकार का संशोधन करना।

सामाजिक अनुसंधान के प्रमुख चरण :

सामाजिक अनुसंधान प्रणाली के प्रमुख चरणों का उल्लेख निम्न है-

1. कॉम्टे (Comte) के अनुसार – कॉम्टे ने पाँच प्रमुख चरणों का उल्लेख किया है :

१. विषय का चुनाव,

२. अवलोकन द्वारा तथ्यों का संकलन,

३. तथ्यों का वर्गीकरण,

४. तथ्यों का परीक्षण,

५. नियमों का प्रतिपादन।

2. सुडवर्ग (Gearge A. Lundberg) लुण्डबर्ग ने अपनी पुस्तक सोशल रिसर्च में वैज्ञानिक पद्धति के चार चरणों की विवेचना की है :

१. कार्यकारी अवकल्पना,

२. तथ्यों का अवलोकन एवं उन्हें लिखना,

३. संकलित सामग्री का वर्गीकरण एवं संगठन,

४. सामान्यीकरण नियमों का प्रतिपादन।

3. पी.वी. यंग (P. V. Young) – इन्होंने चार प्रमुख चरणों का उल्लेख किया है :

१. कार्यकारी का अवलोकन, संकलन एवं लेखन,

२.;सामग्री का अवलोकन, संकलन एवं लेखन,

३. लेखबद्ध सामग्री का श्रेणियों अथवा क्रमों में वर्गीकरण,

४. वैज्ञानिक सामान्यीकरण एवं सामाजिक नियमों का निर्माण।

# सामान्य रूप से सामाजिक अनुसंधान की वैज्ञानिक पद्धति को सभी विद्वानों ने इन प्रमुख चरणों में स्वीकार किया है। जो निम्नलिखित हैं-

१. समस्या का चुनाव

सामाजिक अनुसंधान का यह प्रथम चरण अत्यन्त महत्वपूर्ण है। कोई भी अध्ययन कार्य तब तक प्रारम्भ नहीं किया जा सकता, जब तक कि विषय या समस्या का चुनाव नहीं कर लिया जाता। अध्ययन विषय का चुनाव करते समय तीन बातों का ध्यान रखना चाहिए- (i) विषय का समाज में महत्व। (ii) विषय के बारे में तथ्यों की उपलब्धता। (iii) सीमित साधनों से विषय का अध्ययन सम्भव है या नहीं।

२. सम्बन्धित साहित्य का अध्ययन

अध्ययन विषय से सम्बन्धित साहित्य का पुनरावलोकन किये बिना ही अनुसंधान कार्य प्रारंभ करने से संपूर्ण अनुसंधान प्रक्रिया के दोषपूर्ण होने की संभावना रहती है। अतः आवश्यक है कि प्रारंभ में ही अनुसंधान से संबंधित साहित्य का अध्ययन कर किया जाये। संबंधित साहित्य जैसे लेख, प्रलेख, पुस्तकें, प्रतिवेदन, पत्र, शोध ग्रंथ आदि को अध्ययन से अनुसंधानकर्ता को अनुसंधान की विभिन्न प्रविधियों का ज्ञान हो जाता है।

३. उपकल्पना का निर्माण

उपकल्पना के अभाव में अनुसंधान कार्य उद्देश्य हीन प्रक्रिया है। हम अपने ज्ञान, अनुमान, सूचना, दृष्टान्त, काल्पनिक विचार अथवा व्यक्ति के किसी भी पूर्ण अनुभव के आधार पर एक सम्भावित कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित करते हैं या उसके निष्कर्ष की कल्पना निर्मित करते हैं। इसके पश्चात् अध्ययन विषय या समस्या से सम्बन्धित उचित तथ्य या सामग्री एकत्र करके उसकी परीक्षा करते हैं। हमारी कल्पना पूर्णतः सत्य भी हो सकती है अथवा निराधार भी प्रमाणित हो सकती है, लेकिन प्रत्येक दशा में अनुसंधान कार्य आगे बढ़ाने में यह आधार बनती है।

४. साधन का चुनाव

उपकल्पना के निर्माण पश्चात् अगले चरण में अनुसंधानकर्ता अपनी समस्या के अनुसार उपलब्ध साधन एवं समय को ध्यान में रखकर अध्ययन कार्य हेतु सामग्री संकलन के यन्त्रों, साधनों व अध्ययन प्रविधि का चयन करता है, जिसके द्वारा तथ्यों का सही ज्ञान हो सके।

५. सामग्री का अवलोकन एवं संकलन

अनुसंधानकर्ता चुने हुए साधनों के द्वारा समस्त ज्ञानेन्द्रियों को यथाशक्ति प्रयोग में लाकर तथ्यों का अवलोकन तथा संकलन करता है। तथ्य संकलन हेतु अवलोकन, प्रश्नावली, अनुसूची, साक्षात्कार आदि में से किस प्रविधि को प्रयोग में लाना है, इसका निर्धारण स्तर एवं उनके फैलाव पर आधारित होता है। तथ्यों के संकलन में इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि तथ्यों का संकलन यथा संभव पक्षपातरहित तथा पूर्ण वैज्ञानिक हो।

६. लेखन क्रिया

अनुसंधान प्रक्रिया के इस चरण में तथ्यों के संकलन तथा अवलोकन से प्राप्त समस्त सामग्री को अत्यन्त सरल व स्वष्ट भाषा में लिखा जाता है। लेखन क्रिया में प्रयुक्त सामग्री ठीक वैसी ही लिखी जानी चाहिए जैसा कि अनुसंधानकर्ता ने अध्ययन व अवलोकन किया है।

७. सामग्री का वर्गीकरण एवं सारणीयन

इस चरण में प्राप्त सामग्री का क्रमों एवं श्रेणियों में वर्गीकरण किया जाता है। किसी भी प्रकार के विवेचनात्मक अध्ययन एवं निष्पक्ष विश्लेषण के लिए यह आवश्यक है कि संकलित सामग्री को संक्षिप्त एवं सुव्यवस्थित रूप से रखकर उसे एक निश्चित रूपरेखा प्रदान की जाये जैसे सैकड़ों व्यक्तियों की उम्र, आर्थिक स्थिति, शिक्षा, व्यवसाय, पारिवारिक स्थिति आदि के सम्बन्ध में संकलित आँकड़ें यदि इसी प्रकार बिखरे पड़े रहें तो हम निष्कर्ष नहीं निकाल सकते हैं। अतः उचित निष्कर्ष के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि पहले सामग्री को सुव्यवस्थित व संगठित किया जाये। इसी प्रक्रिया को वर्गीकरण व सारणीयन कहते हैं।

८. तथ्यों का विश्लेषण व विवेचना

तथ्यों का वर्गीकरण एवं सारणीयन के पश्चात् महत्वपूर्ण कार्य तथ्यों को सुव्यवयित करके उसका विश्लेषण व विवेचना करना है। इसके बिना तथ्यों का उपयोग अनुसंधान कार्य में नहीं किया जा सकता है। अतः विश्लेषण व विवेचन में संकलित सामग्री का अर्थ निकालने और उपकल्पना की जाँच की जाती है। सामग्री को भिन्न-भिन्न रूपों में जैसे चित्रों अथवा रेखाचित्रों आदि में प्रस्तुत किया जाता है तथा विभिन्न मापों व पैमानों का प्रयोग करके तथ्यों में कार्यकारण के सम्बन्धों को खोजा जाता है। विश्लेषण व विवेचना का कार्य अनुसंधान प्रक्रिया में सर्वाधिक कठिन है। इसकी सफलता विश्लेषणकर्ता के गुणों पर निर्भर करती है अर्थात् विश्लेषणकर्ता का अनुभव, उनकी अन्तर्दृष्टि, बौद्धिक निष्पक्षता, सामान्य बोध आदि विश्लेषण कार्य में सबसे अधिक सहायक है। साथ ही विषय से सम्बन्धित विवेचना स्पष्ट एवं सरल भाषा में होनी चाहिए। जिससे उसका लाभ अन्य लोग भी उठा सकें।

९. सामान्यीकरण एवं नियमों का प्रतिपादन

सामान्यीकरण एवं संक्षिप्त कथन अथवा निष्कर्ष होते हैं जो अध्ययन प्रक्रिया के उपरान्त प्राप्त होते हैं, जो समानता रखने वाली उन समस्त घटनाओं पर समान रूप से लागू किये जा सकते हैं। यही सामान्य रूप से लागू किये जा सकते हैं। यही सामान्य सिद्धान्त भी कहलाते हैं। वास्तव में अनुसंधान कार्य जिस उद्देश्य की पूर्ति हेतु किया जाता है उसकी सफलता या असफलता सामान्यीकरण पर ही निर्भर करती है।

अतः यह स्पष्ट है कि सामाजिक अनुसंधान एक लम्बी प्रक्रिया है लेकिन इन प्रक्रिया में निष्पक्ष निष्कर्ष व सिद्धान्त निर्माण के लिए अनुसंधानकर्ता में वैज्ञानिक ढंग, वैज्ञानिक धारणा या वैज्ञानिक भावना का होना भी आवश्यक है।

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