रंजन द्विवेदी बनाम भारत संघ वाद :
रंजन द्विवेदी बनाम भारत संघ वाद से पूर्व के वर्षों में निदेशक तत्वों को श्रेष्ठता या सर्वोच्चता न्यायालय द्वारा मात्र इस आधार पर नहीं दी गई कि ये वाद-योग्य (Justiciable) नहीं हैं परन्तु हाल के वर्षों में इस स्थिति में व्यापक अन्तर देखा जा सकता है। न्यायालय ने अब यथार्थवादी तथ्यात्मक तथा अधिक गतिशील दृष्टिकोण अपनाना प्रारम्भ किया है एवं उन कानूनों को वैध घोषित किया है जो निदेशक तत्वों को क्रियान्वित करना चाहते है (भले ही उसके द्वारा किसी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का हनन भी हो रहा हो।) न्यायालय ने निदेशक तत्वों के महत्व को स्वीकार किया, संविधान में निहित निदेशक तत्वों को सामाजिक क्रान्ति के लक्ष्य हेतु आवश्यक माना। सर्वोच्च न्यायालय के मत में निदेशक तत्व प्रथमतः विधायिका और कार्यपालिका के लिए निर्देश हैं और उन्हें ही सामाजिक आर्थिक न्याय, या सुरक्षा सम्बन्धी व्यवस्थाएं करनी हैं, दूसरे शब्दों में, सामाजिक आर्थिक लोकतन्त्र स्थापित करने का प्रयास करना है। निदेशक सिद्धान्त उसी लक्ष्य के मानदण्ड स्वरूप है। सम्भवतः इसी लिए यह तत्व आदर्श के किसी विशिष्ट रूप को उपबन्धित नहीं करते, मात्र लक्ष्यों की स्थापना, करते हैं।
न्यायालयों का यह परम कर्तव्य हैं कि वे संशोधन को इस तरह व्याख्यामित अथवा निर्वचन करें ताकि निदेशक तत्वों को क्रियान्वित किया जा सके और इनके अन्तर्गत निहित सामाजिक लक्ष्यों एवं व्यक्तिगत अधिकारों में सामन्जस्य स्थापित किया जा सके।
न्यायालय का इस वाद में स्पष्ट मत था कि यद्यपि ये निर्देश प्रत्यक्षतः न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हैं परन्तु निश्चित रूप से शासन के आधारभूत सिद्धान्त है और इसीलिए राज्य का कर्तव्य है कि उन्हें लागू करे। न्यायालय का भी दायित्व है कि संविधान की व्याख्या इस भांति हो कि निदेशक सिद्धान्त क्रियान्वित हो सके, संविधान का यही आदेश न केवल विधायिका या कार्यपालिका को इनके क्रियान्वयन का है वरन् साथ ही न्यायालयों को भी है।