# एम. सी. मेहता बनाम तमिलनाडु राज्य वाद

एम. सी. मेहता बनाम तमिलनाडु राज्य वाद :

एम. सी. मेहता बनाम तमिलनाडु राज्य वाद में प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता और अधिवक्ता श्री एम. सी. मेहता ने लोकहित बाद द्वारा शिव काशी उद्योग (तमिलनाडु राज्य) में कार्य कर रहे बालकों की दयनीय स्थिति का प्रश्न न्यायालय के समक्ष रखा एवं प्रार्थना किया कि न्यायालय बालकों के कल्याण हेतु संविधान के उपबन्धों के क्रियान्वयन के लिए सरकार को निर्देश दें।

संवैधानिक उपबन्ध बालकों को शोषण से मुक्त रखना चाहते हैं, विधि, बालश्रम का प्रतिषेध करती है, संविधान का अनु० 24 बालकों को संकटपूर्ण कार्यों में लगाने का प्रतिषेध करता है, अर्थात् 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को किसी कारखाने, खान या अन्य संकटपूर्ण कार्यों में नियोजित करने का प्रतिषेध किया गया है। साथ ही, राज्य के नीतिनिदेशक तत्व के अन्तर्गत भी उल्लिखित किया गया है कि-

राज्य अपनी नीति का… इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से “बालकों को स्वतन्त्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएं दी जाएं… शोषण से तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाए।”

दूसरे, अनु० 41 के अन्तर्गत – “राज्य का दायित्व दिया गया है कि उन्हें आवश्यक शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करे”

इस प्रकार संविधान राज्य पर दायित्व आरोपित करता है कि वह अपने देशवासियों के स्वास्थ्य एवं कार्य क्षमता का संरक्षण करे एवं सुनिश्चित करें कि बालकों को आर्थिक आवश्यकताओं से मजबूर होकर स्वास्थ्य के लिए हानिकारक और संकट – पूर्ण पेशे न अपनाने पड़ें।

बालश्रम से सम्बन्धित इस नवीनतम वाद में श्री मेहता ने न्यायालय के समक्ष बालश्रम से सम्बन्धित अनेक तथ्य रखे, संवैधानिक उपबन्धों एवं इस हेतु निर्मित अधिनियमों के वाद भी बालश्रम रुका नहीं, इसके विपरीत देश के विभिन्न भागों में लाखों बच्चें विभिन्न कार्यों में संगठित रूप से नियोजित है, समस्या की गम्भीरता देश में बच्चों की दुर्दशा को स्पष्ट इंगित करती है।

अतः न्यायालय ने इसी वाद के परिप्रेक्ष्य में निर्देशक सिद्धान्तों की भावना के अनुरूप, बालकों के संरक्षण हेतु कुछ मार्गदर्शक सिद्धान्त इस लोक हित वाद में स्थापित किये। यथा-

# बाल श्रम पुनर्स्थापन कल्याण कोष की स्थापना की जाये जिसमें नियोजक 20 हजार रू० प्रति बालक के लिए प्रतिकर के रूप में जमा करे (जिसका प्रयोग ऐसे बच्चों के पुनर्वास में होगा)।

# बालकों को कार्य से मुक्त करने के बाद नियोजक का दायित्व होगा कि उस बालक के परिवार के किसी एक वयस्क को नौकरी दे।

# ऐसी स्थिति में, जहाँ वैकल्पिक कार्य देना सम्भव न हो, वहाँ सम्बन्धित सरकार अपने अंशदान रूप में बाल कल्याण कोष में हर बालक के खाते में 5,000 रूपये जमा करें।

# न्यायालय ने यह भी स्पष्ट निर्देशित किया कि वयस्क के कार्य प्राप्त कर लेने पर बालक को कार्य से मुक्त कर दिया जायेगा और संरक्षक का यह दायित्व होगा कि बालक के खाते में जमा राशि के ब्याज से उसे 14 वर्ष की आयु प्राप्त होने तक शिक्षा दें।

# न्यायालय ने संकट पूर्ण उद्योगों को भी निर्दिष्ट करते हुए इन निर्देशों का तत्काल पालन किये जाने के निर्देश दिये, तथा श्रम मंत्रालय को एक माह के अन्दर निर्देशों के पालन किये जाने के सम्बन्ध में शपथपत्र दाखिल करने के लिए निर्देशित किया।

# न्यायालय ने इन निर्देशों को संकटरहित उद्योगों में भी लागू किये जाने का निर्देश दिया। ऐसे उद्योगों में बालकों के कार्य की अवधि 4 से 6 घंटे से अधिक न हो तथा प्रत्येक दिन 2 घंटे शिक्षा भी प्राप्त करें आदि।

एस. सी. मेहता बनाम तमिलनाडु राज्य के इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय की खण्डपीठ जिसमें न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह, न्यायमूर्ति अंसारिया और न्यायमूर्ति मजूमदार थे, ने बालकों को स्वस्थ्य विकास के अवसर एवं शिक्षा जैसे निदेशक तत्वों को संवैधानिक लक्ष्य मानकर प्राथमिकता दी। संविधान के अनु० 24 के अन्तर्गत उल्लिखित मौलिक अधिकार के प्रतिषेध के संदर्भ में निदेशक तत्वों को न केवल परिभाषित किया, वरन् उन्हें प्राथमिकता देकर राज्य के दायित्व से भी जोड़ दिया, यथा शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार स्वास्थ्य एवं कार्यक्षमता का संरक्षण एवं आर्थिक न्याय की स्थापना आदि। अनु० 32 के अन्तर्गत लाए गये इस लोक हित बाद में न केवल कुछ मार्गदर्शक सिद्धान्त स्थापित हुए वरन न्यायालय ने ऐसे निर्देश भी दिये जो कि पालन हेतु निश्चित दायित्व की ओर उन्मुख करते है।

यथा-

# 6 माह के अन्दर बाल श्रम पर सर्वेक्षण किया जाना।

# सार्वजनिक उपक्रमों उद्योगों में नियोजन या संकटपूर्ण कार्यों के स्थान पर शारीरिक श्रम के कुछ कार्य यथा-पैकिंग आदि लिया जाना।

# एकत्रित की गई राशि का जिले स्तर पर संग्रह और जिला अधिकारी द्वारा इस कार्य का निरीक्षण आदि।

इस प्रकार इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ऐतिहासिक महत्व का निर्णय देकर बाल श्रम को समाप्त कर उनके पुनर्वास एवं कल्याण की व्यवस्था स्थापित की गई और निदेशक सिद्धान्तों के अनुरूप शिक्षा पाने का पूर्ण अवसर प्रदान किया गया।

एस. सी. मेहता बनाम भारत संघ के अन्य वाद जो पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण के सम्बन्ध में था, अधिवक्ता श्री मेहता द्वारा लोकहित बाद के रूप में न्यायालय के समक्ष आया जिसमें दिल्ली स्थित 168 खतरनाक कारखानों को जो पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण के लिए हानिकारक थे, हटाए जाने के सम्बन्ध में याचिका थी, इसमें न्यायालय से प्रार्थना की गयी थी कि मास्टर प्लान के अनुरूप ऐसे उद्योगों को स्थान आवंटित किया जाए। न्यायालय ने इस वाद उक्त खतरनाक कारखानों को नवंबर 1996 से बन्द करने का आदेश दे दिया एवं कार्यरत कर्मचारियों के अधिकारों एवं प्रभावित लोगों के संरक्षण हेतु भी समुचित निर्देश दिये।

श्री मेहता द्वारा ही दायर एक अन्य लोकहित वाद द्वारा ‘ताजमहल प्रदूषण’ के सम्बन्ध में भी न्यायालय में याचिका गयी। इस लोकहित वाद द्वारा न्यायालय का ध्यान फाउन्ड्री द्वारा फैलाए जा रहे पर्यावरण प्रदूषण की ओर आकर्षित किया गया। रासायनिक दृष्टिकोण से संकटपूर्ण उद्योग जो प्राचीन स्मारक ताजमहल क्षेत्र के आस पास स्थित हैं के सम्बन्ध में न्यायालय से प्रार्थना की गई कि इन उद्योगों पर नियंत्रण हेतु समुचित निर्देश दिये जायें।

तत्कालीन न्यायमूर्ति श्री कुलदीप सिंह, जिन्हें प्रदूषण पर ऐतिहासिक निर्णय दिये जाने वालों में प्रमुखता से जाना जाता है के द्वारा निर्णय दिया गया कि “आगरा के ताजमहल के आसपास क्षेत्र में स्थित 292 प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग निश्चित समय सीमा में अपने ईंधन में परिवर्तन कर प्राकृतिक गैस का उपयोग करें। और यदि वे ऐसा करने में असमर्थ हैं तो दिसंबर 1997 के बाद उद्योग बन्द कर दें।”

न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया कि – “ऐसे उद्योगों को औद्योगिक क्षेत्र में प्लाट आवंटित किये जायें, जो इस हेतु प्रार्थना पत्र दें।”

न्यायालय ने जिला अधिकारी और पुलिस अधीक्षक को निर्देशित किया कि – “ये समय सीमा, दिसंबर 1997 नये और पुराने दोनों प्रकार के औद्योगिक इकाइयों पर समान रूप से लागू होगी।”

न्यायालय द्वारा इन उद्योगों में कार्यरत कर्मचारियों के अधिकारों और लाभों के संरक्षण हेतु भी निर्देश दिये गये यथा-

# कर्मकार इस स्थिति में सतत् सेवा में माना जाएगा और अन्य स्थान पर स्थापित उद्योग में उन्हीं शर्तों के साथ कार्यरत रहेगा।

# किसी उद्योग के बन्द होने और पुनः प्रारम्भ होने के बीच की अवधि में भी वह सेवा में माना जायेगा और पूर्ण वेतन पाने का हकदार होगा।

# कर्मचारियों को नए औद्योगिक स्थान पर जाने हेतु एक साल का वेतन बोनस के रूप में देय होगा, जिसे 31 जनवरी 1998 तक भुगतान किया जाए।

# जो कर्मचारी बंद के पक्षधर है उनकी सेवा समाप्ति मानकर, क्षतिपूर्ति औद्योगिक विवाद अधिनियम के अनुरूप उन्हें दे दी जाए।

# ये क्षतिपूर्ति प्रबन्धक द्वारा हटाए जाने के दो माह के अन्दर की जाए।

# ग्रेच्यूटी का भुगतान इसके अतिरिक्त होगा।

इन कुछ नवीनतम न्यायिक निर्णयों द्वारा निर्देशक तत्वों को संवैधानिक लक्ष्य मानकर प्राथमिका दी गयी, चाहे बालश्रम या उनके संकट पूर्ण कार्यों में लगाने का प्रश्न हो, या प्रदूषण से प्रभावित मामले हों। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मौलिक अधिकारों को महत्व देते हुए भी निदेशक सिद्धान्तों को अतिमहत्वपूर्ण स्थान दिया एवं सुस्थापित किया कि निदेशक तत्व संवैधानिक लक्ष्य हैं तथा किसी भी दृष्टि में कम महत्वपूर्ण नहीं हैं।

ग्रेनविल ऑस्टिन के शब्दों में – “भारतीय संविधान एक सामाजिक दस्तावेज है जिसके उपबन्ध सामाजिक क्रान्ति के लक्ष्य को पूरा करने के लिए आवश्यक दशाओं की स्थापना करते हैं सामाजिक क्रान्ति हेतु बचन बद्धता अधिकारों और नीतिनिदेशक तत्वों में है। इनकी उपेक्षा का अर्थ संविधान द्वारा लगाये गये जीवनाधार, राष्ट्र को दिलायी गयी आशाओं और उन मूल आदर्शों की उपेक्षा करना होगा जिन पर संविधान का निर्माण किया गया है।…”

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