परिवीक्षा/प्रोबेशन (Probation) :
20वीं शताब्दी को सुधार का युग माना जाता है। प्रोबेशन इसी सुधार युग का परिणाम है। इस सुधार में मानवतावादी दृष्टिकोण को प्रमुख स्थान दिया गया है। इस सुधार कार्यक्रम में उपयोगितावादी दृष्टिकोण को भी शामिल किया जाता है। इस वर्तमान युग में दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त का विकास हुआ जिसके अनुसार अपराधी को शारीरिक दण्ड देने की अपेक्षा उसे सुधारने का प्रयत्न किया जाता है। परिवीक्षा उसी का परिणाम है।
‘प्रोबेशन‘ अंग्रेजी का शब्द है, जिसके लिए हिन्दी के शब्द ‘परिवीक्षा‘ का प्रयोग किया जाता है। अंग्रेजी का प्रोबेशन शब्द लैटिन भाषा के ‘प्रोबेयर‘ (Probare) से बना है जिसका तात्पर्य है परीक्षा लेना। प्रोबेशन के लिए कई शब्द प्रयुक्त होते हैं जैसे- परीक्षा (A Test), परीक्षा काल (A Period of Trial), परीक्षा करने की विधि (The act of Trying), और अदालती परीक्षा (AJudicial Examination) आदि।
परिवीक्षा का तात्पर्य सामान्यतः ‘दण्ड का निलम्बन’ (Suspension of Sentence) अथवा ‘प्रतिबन्धक रिहाई’ (Conditional release) भी है। जब कोई व्यक्ति अपराध करता है और दोष सिद्ध होने पर न्यायालय उसे कारावास का दण्ड देता है तब इस दण्ड का निलम्बन ही परिवीक्षा है। इसे ‘मुअत्तिल सजा‘ या ‘दण्ड का विलम्बन‘ आदि रूपों में भी समझा जाता है। परिवीक्षा में दण्ड के निलम्बन के अतिरिक्त यह भी सम्मिलित है कि अपराधी परिवीक्षा काल में अच्छे आचरण का प्रमाण दे अन्यथा उसे सजा भुगतनी होगी।
परिवीक्षा की अर्थ एवं परिभाषा :
परिवीक्षा का अर्थ समझने की दृष्टि से यहाँ इसकी कुछ परिभाषाएँ दी जा रही हैं-
1. इलियट के अनुसार, “परिवीक्षा इस प्रकार दण्ड देने वाली संस्था से इस शर्त पर कि अपराधी अच्छा व्यवहार करेगा, मुक्ति मिलने को कहते हैं।”
2. टैफ्ट के अनुसार, “परिवीक्षा किसी अपराध के सम्बन्ध में लिए जाने वाले अन्तिम निर्णय को कुछ समय के लिए टाल देने की प्रक्रिया है। अपराधी को एक अवसर दिया जाता है कि वह अपना चरित्र सुधारने और समाज के अनुरूप अपने को ढालने का प्रयास करे। अपराधी न्यायालय की शर्तों के अनुसार न्यायालय के किसी परिवीक्षा अधिकारी के मार्गदर्शन एवं संरक्षण में रहता है।”
‘पैरोल’ व्यवस्था, क्यों ?
जेल भेजे गये तथा दण्डित अपराधियों में विभिन्न स्वभावों वाले व्यक्ति पाये जाते हैं, परन्तु उनमें जहाँ एक ओर अभ्यस्त तथा ठीक न हो सकने वाले गम्भीर अपराधी होते हैं जिनमें प्रतिकार या बदले की भावना अथवा हिंसात्मक और विध्वंसकारी भावना पाई जाती है, दूसरी ओर कुछ परिस्थितिवश, आकस्मिक तथा भावावेश में अथवा उत्तेजना के द्वारा बन गये अपराधी भी होते हैं जिनमें स्वयं ही आत्म-सम्मान, प्रतिष्ठा तथा ग्लानि इत्यादि की भावना अधिक प्रबल होती है और अपने दुष्कृत्य के लिए वे पश्चाताप भी करते हैं, अन्यथा सामान्य रूप से वे सच्चरित्र तथा अच्छे आचरण एवं व्यवहार वाले लोग होते हैं।
ऐसे अपराधियों के प्रति जोकि अपने दुष्कार्य के लिए स्वयं ही दुःखी हैं और जो इसके परिणामस्वरूप मिलने वाले दण्ड से शीघ्र ही मुक्त हो जाना चाहते हैं, उनके लिए दण्ड का समय कम कर देने का अधिकार जेल अधिकारियों को दिया जाता है कि यदि उनका आचरण एवं व्यवहार यह सिद्ध कर दे कि उन्हें इतने लम्बे समय तक दण्ड दिया जाना उचित नहीं है तो कुछ अवधि जेल में रह लेने के पश्चात् शेष अवधि को एक विशेष रियायत या अपराधी के प्रति सहानुभूति के रूप में समाप्त कर दिया जाता है। समय से पूर्व ही जेल से मुक्त कर देने को ‘पैरोल’ व्यवस्था कहते हैं।
‘पैरोल’ की परिभाषाएं :
‘पैरोल‘ को विभिन्न विद्वानों ने पृथक्-पृथक् रूप से परिभाषित किया है, परन्तु लगभग सभी की परिभाषाएँ काफी मिलती-जुलती हुई हैं। इनमें से कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित प्रकार से समझी जा सकती है-
1. बार्स तथा टीटर्स (Barnes and Teeters) के अनुसार, “पैरोल एक कैदी को प्रदान किया गया ऐसा शर्तपूर्ण छुटकारा है जो उसे अपने दण्ड का कुछ भाग सुधारालय में व्यतीत कर लेने के उपरान्त प्राप्त हो पाता है।”
2. टैफ्ट (Taft) के अनुसार, “कुछ समय तक जेल काट लेने के पश्चात् उसे छुट्टी मिल जाना ही पैरोल है जिसमें कैदी फिर भी जेल की देख-रेख तथा संरक्षण में अवश्य रहता है और उसे जब तक पूर्णतया मुक्त न किया गया हो, समुदाय में आने-जाने की स्वीकृति विशेष दशाओं में प्राप्त होती है तथा इन शर्तों को तोड़ने पर उसे जेल में वापस बुलाया जा सकता है।”
3 सदरलैण्ड (Sutherland) के अनुसार, “पैरोल किसी जेल या सुधारालय से, जहाँ अपराधी ने अपनी सजा का अत्यधिक भाग व्यतीत किया हो, सद्व्यवहार बनाये रखने तथा पूर्ण मुक्तिप्रदान किये जाने तक, उस संस्था अथवा राज्य द्वारा स्वीकृत किसी अन्य अभिकरण के अधीन तथा उसके संरक्षण में रहने की शर्त पर रिहा करने तथा छोड़ने देने की स्थिति उत्पन्न कर देने की क्रिया है।”
‘पैरोल’ की विशेषताएं :
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर ‘पैरोल‘ की निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ (Characteristics) मानी जा सकती हैं। इनकी संक्षिप्त विवेचना निम्न प्रकार प्रस्तुत की जा सकती है-
1. पैरोल की प्रकृति सुधारात्मक (Correctional) होती है। यह व्यवस्था प्रोबेशन से पुरानी है।
2. यह व्यवस्था कैदी के द्वारा प्रायः आधी से अधिक अवधि जेल में काट लेने के पश्चात् ही प्रयोग की जाती है।
3. जेल में रहने के दौरान कैदी का व्यवहार सन्तोषजनक रहा हो, अर्थात् जेल ऐसा अधिकारियों को उसके व्यवहार से प्रसन्नता रही हो।
4. यह व्यवस्था शर्तपूर्ण होती है। इसमें अपराधी को जेल अधिकारियों द्वारा निर्धारित शर्तों को पालन करने का आश्वासन देना पड़ता है।
5. इन शर्तों का एक निश्चित अवधि के भीतर उल्लंघन करने से कैदी को दी गई शर्तपूर्ण युक्ति की सुविधा वापस ली जा सकती है।
6. पैरोल के दौरान जेल अधिकारियों का छोड़े गये कैदियों के प्रति निरन्तर संरक्षण भी बना रहता है और उनसे सम्पर्क करके उनके व्यवहार की देख-रेख करते रहते हैं।
‘पैरोल’ की विचारणीय बातें :
बर्गेस (Burgess) ने पैरोल स्वीकार किये जाने के लिए कुछ आवश्यक परिस्थितियों का उल्लेख किया है। इनमें प्रमुख रूप से निम्नलिखित बातों को सम्मिलित किया जा सकता है- (1) अपराध की प्रकृति, (2) अपराध करने के लिए अन्य लोगों की संगति, (3) राष्ट्रीयता, (4) माता-पिता की पारिवारिक स्थिति, (5) कैदी का वैवाहिक स्तर, (6) अपराधी का प्रकार, (7) अपराध का क्षेत्र, (8) समुदाय तथा पड़ौस, (9) जाँच करने वाले न्यायाधीश का विचार, (10) कैद की प्रकृति तथा अवधि, (11) पिछला अपराधी रिकॉर्ड, (12) पिछला कार्य-विवरण, (13) पैरोल के समय आयु, (14) व्यक्तित्व का प्रारूप।
‘पैरोल’ की शर्ते :
टैफ्ट (Taft) ने पैरोल पर छोड़े गये कैदियों की व्यवहार सम्बन्धी शर्तों का उल्लेख करते हुए बताया है कि यदि अपराधी इनका पालन सन्तोषजनक रूप से नहीं करते हैं तो उन्हें जेल वापस बुलाया जा सकता है तथा उन्हें दण्ड की अवधि कम करके या उसके समापन से पूर्व ही दी गई छुट्टी की सुविधा समाप्त की जा सकती है। इस हेतु प्रमुख शर्तों को निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है-
1) उसे मादक वस्तुओं के प्रयोग से बचाव रखना होगा।
2) उसे पैरोल की सुविधा मिलने पर अपना पता बताना होगा तथा बिना पैरोल अधिकारी की स्वीकृति के वह इसे नहीं बदलेगा।
3) वह अपने रोजगार को नहीं बदलेगा या बिना आज्ञा के कोई नया रोजगार नहीं अपनायेगा।
4) वह किसी प्रकार भी किसी कानून का उल्लंघन नहीं करेगा।
5) ऐसा कैदी अधिकारियों की स्वीकृति के बिना अपना विवाह पैरोल अवधि में नहीं करेगा।
6) वह किसी प्रकार की गाड़ी या सवारी नहीं चलायेगा।
7) उसे अन्य पैरोल कैदियों या भूतपूर्व अपराधियों से सम्पर्क रखना वर्जित होगा।
8) ये लोग बिना आज्ञा के अपना राज्य छोड़कर किसी दूसरे देश में नहीं जायेंगे।
9) वे किसी प्रकार के शस्त्रास्त्र नहीं रखेंगे तथा किसी भी स्रोत से धन उधार नहीं लेंगे।
10) जुआ नहीं खेलेगा तथा सार्वजनिक क्लबों, मनोरंजन केन्द्रों इत्यादि में नहीं जायेगा।
11) वह लिखित आश्वासन में स्वीकार की गई शर्तों के अनुरूप ही कार्य करेगा और ऐसा न करने पर वह शेष दण्ड काटने के लिए तैयार होगा।
‘पैरोल’ के लाभ/महत्व/उपयोगिता :
यह व्यवस्था अपराधी कैदियों में सुधार लाने के लिए अपनाई जाती है। व्यावहारिक दृष्टि से इसे अधिक महत्वपूर्ण उपयोगी समझा जाता है। इसकी उपयोगिता को निम्नलिखित प्रकार से देखा जा सकता है-
1) इससे जेल में रहने का समय कम हो जाता है जिससे अपराधी को सामान्य समाज में शीघ्र आने और अच्छे वातावरण के प्रति अभियोजन करने का अवसर मिलता है।
2) पैरोल कैदियों में सदाचरण तथा सद्व्यवहार को प्रोत्साहित करता है और इसे अच्छे व्यवहार का ही एक पुरस्कार समझा जा सकता है।
3) पैरोल में अपराधी कानून को भी सम्मान प्रदान करता है, क्योंकि वह भली प्रकार समझता है कि कानून व्यक्ति के लिए तथा उसके हित के लिए होते हैं।
4) पैरोल के कैदी में अभ्यस्त अपराधी बनने की प्रवृत्ति नहीं आने पाती है। इस प्रकार वह अपराध की पुनरावृत्ति करने और पक्के होने से बचा रहता है।
5) पैरोल अपराधी के आश्रितों के हित में भी होता है, क्योंकि जेल का समय कम हो जाने से वह शेष समय रोजगार या जीविकोपार्जन में लगा सकता है और आर्थिक कठिनाइयों से सुरक्षित हो सकता है।
6) पैरोल के बॉण्ड में विभिन्न शर्तों का पालन करने का आश्वासन देने तथा उन्हें पालन करने से अपराधी के प्रति विभिन्न प्रकार के सामाजिक तथा व्यक्तिगत नियन्त्रण स्वतः ही लागू हो जाते हैं।
7) पैरोल अपराध के प्रति भय की भावना भी बनाये रखता है और उसे चेतावनी दिये रहता है कि शर्तों को तोड़ने पर से जेल वापस जाना पड़ेगा।
8) इस व्यवस्था से प्रशासकीय, सामाजिक तथा आर्थिक संस्थाओं पर भार कम हो जाता है। कैदी के परिवार की व्यवस्था में अधिक गड़बड़ी नहीं होती है तथा राज्य का कैदी के प्रति अधिक समय तक जेल में रखने का व्यय कम हो जाता है।
‘पैरोल’ के दोष :
यद्यपि पैरोल की अपनी उपयोगिता आकस्मिक अपराधियों या आत्म-सम्मानपूर्ण व्यक्तियों के लिए अधिक होती है, इसमें कुछ दोष (Drawbacks) भी पाये जाते हैं। इन दोषों या सीमाओं को प्रमुख रूप से निम्न प्रकार देखा जा सकता है-
1) सदरलैण्ड (Sutherland) ने पैरोल स्वीकार करने वाले अपराधियों में आवश्यक प्रशिक्षण तथा योग्यता एवं अनुभव की कमी को घातक बताया है।
2) यदि कोई कैदी शीघ्र मुक्ति के योग्य न हो तथा बाह्य तत्वों अथवा राजनीतिक नेताओं के दबावों के कारण पैरोल पर छोड़ दिया गया हो तो समाज के लिए घातक सिद्ध हो सकता है।
3) जहाँ जेल अधिकारियों का जीवन संरक्षण पैरोली लोगों के प्रति नहीं रखा जाता है, इनसे समाज को खतरा पैदा हो सकता है और इस सुविधा का दुरुपयोग सम्भव हो सकता है।
4) प्रायः पैरोल व्यवस्था अपराधी के पुनर्वास पर ध्यान नहीं देती है, इसलिए उसे आवश्यक परामर्श, जीविकोपार्जन के साधन ढूँढने इत्यादि की कठिनाई फिर भी बनी रहती है।
5) अधिक संख्या में पैरोली कैदियों का संरक्षण किसी एक ही पैरोल अधिकारी के द्वारा किया जाना इस व्यवस्था की वास्तविक भावना को ही समाप्त कर देता है और पैरोल अधिकारी प्रायः अपने कर्तव्य का कुशल निर्वाह नहीं कर पाते हैं।
‘पैरोल’ तथा ‘प्रोबेशन’ में अंतर/भिन्नता :
पैरोल व्यवस्था प्रोबेशन से काफी मिलती-जुलती है। यह इस अर्थ में मानी जा सकती है कि दोनों का ही उद्देश्य सुधारवादी होता है तथा दोनों में दण्ड का महत्व कम कर दिया जाता है, परन्तु उद्देश्य की समानता होते हुए भी, इन दोनों विधियों में पर्याप्त अन्तर (Difference) पाया जाता है जिसे हम निम्नलिखित प्रकार से देख सकते हैं-
1) पैरोल दण्ड दिये जाने पर अधिक बल देती है, अर्थात् अपराधी को जेल में काफी समय तक अवश्य रह चुके होना चाहिए। प्रोबेशन के अन्तर्गत अपराधी को जेल का दण्ड नहीं भुगतना पड़ता है।
2) पैरोल एक प्रकार से दण्ड-विधि मानी जा सकती है, जबकि प्रोबेशन अपराधी के उपचार (Treatment) की विधि समझी जाती है।
3) पैरोल कैदी के द्वारा जेल के भीतर अच्छे आचरण पर आधारित होता है, परन्तु प्रोबेशन केवल बाह्य परिस्थितियों तथा वातावरण सम्बन्धी तत्वों पर आधारित की जाती है।
4) प्रोबेशन स्वीकार करने के लिए न्यायालय तथा न्यायाधीश अधिक महत्वपूर्ण और सक्रिय माने जाते हैं, परन्तु पैरोल की स्वीकृति में एक विशेष कार्यकारिणी मण्डल अथवा जेल एवं अन्य सम्बन्धित अधिकारियों के द्वारा निर्मित कमेटी की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण होती है।
भारत में पैरोल का विकास
भारत में पैरोल व्यवस्था का प्रारम्भ दण्ड प्रक्रिया संहिता 1898 की धारा 401 के अनुसार माना जाता है। वास्तविकता यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रोबेशन की भाँति पैरोल सम्बन्धी कोई भी विधान आज तक नहीं बनाया गया है और न ही कोई इस सम्बन्ध में अधिनियम ही पारित किया जा सका है। भारत के कुछ राज्यों में; जैसे- उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्यों में बंदियों की सजा की अवधि पूर्ण होने के पूर्व उन्हें मुक्त करने तथा उनकी सजा कम करने के उद्देश्य से अधिनियम पारित करके आज बंदियों को उन्हीं के तहत पैरोल पर छोड़ा जाता है। अन्य राज्यों में भी पैरोल पर बंदियों को मुक्त किया जाता है उन्हें इन राज्यों में प्रशासनिक विधानों के द्वारा मुक्त किया जाता है जो इन राज्यों के जेल मैनुअल में दी गयी विधि के अनुसार बंदियों का कारावकाश पर छोड़ा जाता है। आज तक पैरोल के नाम से पैरोल पर मुक्ति करने का कोई भी अधिनियम राज्यों में भी पारित नहीं किया जा सका है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 432 के अन्तर्गत इस बात का उल्लेख है कि राज्य सरकार किसी शर्त या बिना शर्त के किसी भी दण्डित अपराधी की सजा को कम कर सकती है। इस संदर्भ में कई प्रान्तीय सरकारें बंदियों को उनकी सजा पूर्ण होने के पहले उन्हें मुक्त करने के लिए अपने नियम बनाये हैं। इन नियम के अधीन मुक्ति परिषद् (Board of Release) का गठन किया गया है जो बंदियों की मुक्ति के लिए अथवा उन्हें पैरोल पर छोड़ने के लिए अपनी संस्तुति राज्य सरकार को देता है। इसी आधार पर पैरोल पर बंदियों को परिवीक्षा अधिकारी के निगरानी में अथवा राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किये गये किसी अभिभावक के संरक्षण में छोड़ा जाता है।
राज्य सरकार जब किसी बंदी को पैरोल पर छोड़ने का आदेश जारी करती है, तो वह तीन प्रतियों में टिकट प्राप्त करती है। अभिभावक जिला अधिकारी के सामने प्रतिभूतियाँ प्रस्तुत करता है और बंदीगृह अधीक्षक बंदी से एक बन्धक पत्र लिखवाता है। इस प्रक्रिया के पूर्ण होने के पश्चात् ही बन्दीगृह अधीक्षक (Jail Superintendent) बंदी को अभिभावक की संरक्षकता में छोड़ता है या बन्दीगृह से मुक्त करता है। किसी भी ऐसे बन्दी को जिसे एक बार पैरोल पर मुक्त किया जा चुका है और शर्त का उल्लंघन करने पर उसे पुनः बंदीगृह में भेजा गया हो तो ऐसे बंदियों को तीन साल की अवधि तक पुनः पैरोल पर नहीं छोड़ा जा सकता।
आजीवन कारावास की सजा भोगने वाले बंदियों को दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 433 (क) अनुसार 14 वर्ष की सजा पूर्ण कर लेने के पश्चात् ही उन्हें पैरोल पर छोड़ने के लिए विचार किया जा सकता है।
वास्तव में बंदियों पर पैरोल पर मुक्ति देने वाली एक सत्ता होती है, जिसे पैरोल की अनुमति देने वाली सत्ता (Perole Grunting Authority) कहा जाता है। इसकी विधि द्वारा नियुक्ति की जाती है। सामान्यतः इसे पैरोल बोर्ड कहा जाता है।
“पैरोल” बोर्ड मुख्यतः तीन प्रकार के गठन किये जाते हैं-
1) प्रथम प्रकार का पैरोल बोर्ड एक संस्था तक सीमित रहता है जो यदा-कदा एक संस्था के वार्डन के रूप में कार्य करता है।
2) द्वितीय प्रकार का पैरोल बोर्ड राज्य के सुधार विभाग के अन्तर्गत नियुक्त किया जाता है, जिसे राज्य पैरोल बोर्ड कहा जाता है। इसे राज्य की किसी भी संस्था से बन्दियों को मुक्ति करने का अधिकार होता है।
3) तृतीय प्रकार का पैरोल बोर्ड भी एक सामान्य स्वरूप का पैरोल बोर्ड होता है जो राज्य पैरोल बोर्ड की भाँति ही कार्य करता है किन्तु वह राज्य सरकार के सुधार विभाग की सीमा से बाहर गठित होता है लेकिन इसे भी राज्य की किसी भी संस्था के बंदियों को पैरोल पर छोड़ने के लिए संस्तुति करने का अधिकार होता है।