नगरीय समुदाय, ग्रामीण समुदाय की तुलना में विशाल और घना बसा हुआ होता है। सामूहिक जीवन की अपेक्षा वैयक्तिक मूल्य की अधिक मान्यता होती है। परम्परात्मक ढाँचे से अलग-थलग होकर व्यक्ति यहाँ रहता है। भीड़ में रहता है जहाँ भावना के नाम पर औपचारिकता और दिखावा अधिक है। नगरीय समुदाय में विभेदीकरण की प्रक्रिया अधिक है और संगठित करने वाली क्रियाएँ कम। नगर विभिन्न संस्कृति, धर्म, जाति, सम्प्रदाय आदि का पुंज है। इसीलिए यहाँ संघटन कम और विघटन अधिक है।
नगरीय समुदाय ग्रामीण समुदाय की तरह ही अनेक छोटे-बड़े समुदायों से मिलकर बनता है। इस विशाल नगरीय समुदाय के पास अनेक छोटे-बड़े समुदाय और संस्थाएँ आदि हैं जिनका कि सामान्य जीवन के बनाने में महत्वपूर्ण योगदान है। वास्तव में विकास का क्रम इस तथ्य का साक्षी है कि व्यक्ति निरन्तर छोटे समुदाय से बड़े समुदाय में प्रवेश करता रहा है। विकास की इस प्रक्रिया ने ही नगर और महानगरीय समुदायों की स्थापना की है।
नगरीय समुदाय की विशेषताएं –
1. जीवन की जटिलता (Complexity of Life) – नगर जटिलताओं का केन्द्र है। यहाँ विभिन्न प्रकार की संस्कृति, धर्म, सम्प्रदाय और वर्ग हैं। इन्हें समझने में और इनके अनुसार अपने को ढालने में व्यक्ति निरन्तर अपने को बदलता रहता है। वह इस जटिल जीवन को समझने का जितना प्रयास करता है उतना ही भ्रमित होता जाता है। नगरीय जीवन परम्परात्मक ढाँचे से हटकर होता है। मशीनी दुनिया में व्यक्ति तार्किक अधिक होता है और परम्परावादी और धार्मिक कम । औद्योगिक और मशीनी दुनिया में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं। यह सामाजिक जीवन को जटिल बनाते हैं।
2. प्रतियोगिता (Competition) – ग्रामीण समाज में व्यक्ति की स्थिति, कार्य, सम्मान सब कुछ पराम्परागत और जन्म पर आधारित है। नगरीय समाज में प्रतियोगिता है। नगर में व्यक्ति को प्रत्येक क्षेत्र में प्रतियोगिता का सामना करता पड़ता है और जो प्रतियोगिता में विजयी नहीं होते वे पीछे छूट जाते हैं। यहाँ पद, नौकरी और यहाँ तक कि व्यापार में सफलता पाने के लिए भी व्यक्ति को प्रतियोगिता का सामना करना पड़ता है। यहाँ एक समुदाय की दूसरे समुदाय से निरन्तर प्रतियोगिता होती रहती है। यहाँ सम्पूर्ण जीवन प्रतियोगिता पर ही निर्भर है।
3. परिवर्तनशील सामाजिक वर्ग (Flexible Social Class) – सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने में विभिन्न वर्गों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। प्राचीन काल से ही विभिन्न सामाजिक वर्ग परम्परात्मक रूप से समाज की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति करता रहा है किन्तु आधुनिक समय में वर्ग अत्यधिक लचीले और परिवर्तनशील हैं। यहाँ नये वर्ग बनते और पुराने समाप्त होते हैं अथवा प्राचीन वर्ग अपने काम करने के तरीकों और पद्धति में इतना अधिक परिवर्तन कर लेते हैं कि वे नए वर्ग जैसे प्रतीत होते हैं।
4. कार्य और अवकाश (Work and Leisure) – परम्परात्मक समाज और नगरीय समाज में कार्य और अवकाश के ढाँचे में भी जमीन-आसमान का अन्तर है। नगर, समय, तिथि, नियम, कानून और एक विशेष व्यवस्था संबंधी नियमावली से बंधा है। समय पर काम पर जाना है। निश्चित समय पर ही काम से छुट्टी मिलती है। सप्ताह में एक दिन अवकाश होता है। तीज-त्योहारों और अन्य अवकाश के दिन निश्चित हैं। ग्रामीण समाज इस प्रकार के नियमों से बंधा नहीं है। उसे तो मौसम के अनुसार कार्य करना होता है। समय का बन्धन उस पर नहीं होता बल्कि ऋतुओं का बन्धन उस पर अवश्य होता है।
5. द्वितीयक संगठन (Secondary Association) – ग्रामीण और नगरीय संगठनों की प्रकृति में अत्यधिक अन्तर है। ग्रामीण समाज में परिवार प्राथमिक संस्था है जिसमें व्यक्ति की अधिकांश आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। नगर जटिलता के केन्द्र हैं यहाँ व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति कोई एक संस्था नहीं कर सकती है। उसे अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए द्वितीयक संस्थाओं को स्थापित करना पड़ता है। उदाहरण के लिए; श्रमिक फैक्टरी, मिल, कारखाने में कार्य करता है किन्तु उसके समस्त हितों की रक्षा वहाँ नहीं होती है। अस्तु वह श्रमिक संगठन और संघ की स्थापनायें करता है और इसके माध्यम से अपनी विविध आवश्यकताओं को पूर्ण करने का प्रयास करता है।
6. नगरीय सामाजिक संबंध (Urban Social Relationship) – ग्रामीण समाज के सामाजिक संबंधों में सरलता है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी भूमिका और पद से भली-भांति परिचित है। उसके व्यवहार में न तो कृत्रिमता है और न धोखा-धड़ी की गन्ध आती है। छल, कपट, वैयक्तिक स्वार्थ और महत्त्वाकांक्षाएँ उसमें न के समान हैं। ठीक इसके विपरीत नगरीय संबंधों में औपचारिकता है। यहाँ व्यक्ति भावना से नहीं स्वार्थ से संबंध स्थापित करता है। उसके अनेक जाति, सम्प्रदाय और वर्ग के व्यक्ति से अपने स्वार्थ के आधार पर संबंध बनते और बिगड़ते हैं। इस तरह उसके नगरीय संबंध अस्थायी होते हैं।
7. सामाजिक विजातीयता (Social Heterogeneity) – नगर विभिन्न संस्कृतियों के केन्द्र हैं। यहाँ अनेक संस्कृति, जाति, सम्प्रदाय और धर्म के व्यक्ति रहते हैं। नगर विविधताओं का पुंज है। यहाँ के निवासियों के आदर्श, विचार, सोच, मूल्य, दृष्टिकोण आदि में अन्तर है। प्रत्येक व्यक्ति अपने दृष्टिकोण से चीजों को देखता है। उसके अनुसार कार्य करता है। इसलिए ग्रामीण समाज की तरह यहाँ समानताएँ नहीं पायी जाती हैं।
8. सरकारी मशीनरी का नियंत्रण (Control by Government Machinery) – नगर में परम्परात्मक नियमों और विश्वासों के द्वारा नियंत्रण सम्भव नहीं है। यहाँ जाति, धर्म, परिवार आदि का न तो व्यक्ति पर दबाव होता है और न उसका भय ही। इसलिए सरकार अपने अध्यादेशों, कानूनों, पुलिस तथा विभागों के द्वारा समाज पर नियंत्रण रखता है।
9. सामाजिक गतिशीलता (Social Mobility) – नगर और महानगरों के विकास ने व्यक्ति की गतिशीलता को प्रोत्साहित किया। व्यक्ति अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने और अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए गाँव से नगर आता है। एक नगर से अनेक नगर में जीविका और व्यवसाय के अच्छे अवसरों की खोज में जाता रहता है। नगर में व्यक्ति का सम्मान जाति और धर्म से नहीं होता बल्कि शिक्षा, योग्यता, पद और उच्च आर्थिक स्थिति से होता है। औद्योगिक प्रगति ने सामाजिक गतिशीलता को अत्यधिक प्रभावित किया है। भौतिकवादी संस्कृति ने व्यक्तियों की आवश्यकताओं में जहाँ वृद्धि की है वहीं उनकी महत्त्वकांक्षाओं को भी बढ़ाया है। ये दोनों ही चीजें व्यक्ति की गतिशीलता को बढ़ाते हैं।
10. वैयक्तिकवाद (Inpidualism) – नगर व्यक्ति की विविध इच्छाओं को पूर्ण करने वाला केन्द्र है। इच्छायें व्यक्तिगत होती हैं। व्यक्ति अपने चारों तरफ एक ऐसा स्वार्थी-इच्छाओं का घेरा बनाता है जिसमें वह स्वयं अकेला रहता है। उसे समूह, समुदाय, परिवार, जाति और धर्म किसी की भी चिन्ता नहीं रहती। वह अपना स्वामी है। उस पर किसी का नियन्त्रण नहीं। वह अपने ढंग से जीता है और अपने बनाये हुए आदर्शों के घेरे में रहता है।
11. सामुदायिक भावना का अभाव (Lack of Community feeling) – नगर में सामुदायिक भावना का अभाव है। यहाँ न एक समूह है और न एक सांस्कृतिक सामुदायिक भावना, यहाँ न लोक निन्दा का भय होता है और न पास-पड़ोस वालों का लिहाज, किसी को किसी से मतलब नहीं है। सब एक-दूसरे की दृष्टि में भ्रष्ट, गिरे हुए और अनैतिक हैं।
12. एकाकी परिवार (Solitary Family) – संयुक्त परिवार की विशेषता है। कृषि व्यवसाय में अनेक व्यक्तिओं की आवश्यकता थी। इसलिए एक परिवार के व्यक्ति साथ-साथ रहते थे किन्तु औद्योगिक विकास ने संयुक्त परिवार को विघटित कर छोटे परिवारों को नगर में बसने के लिए प्रेरित किया। यहाँ पति-पत्नी और बच्चे रहते हैं। प्रत्येक की अपनी इच्छायें हैं। किसी का किसी पर नियंत्रण नहीं।
13. नैतिकता का अभाव (Lack of Morality) – नगरीय भौतिक संस्कृति के ढाँचे में नैतिकता निरन्तर अदृश्य होती जा रही है। भोग और विलासिता, सुखवादी व भोगवादी औद्योगिक संस्कृति ने व्यक्ति को निम्न से निम्न कार्य करने के लिए प्रेरित किया है। व्यक्ति अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपने को बेच सकता है। अपने देश, समाज और धर्म को बेच सकता है। अपनी मनुष्यता को दफनाने में उसे किंचित मात्र भी लज्जा नहीं आती। व्यक्ति पर न तो समाज का नियंत्रण रहा और न परिवार और समुदाय का। नगर का व्यक्ति पूर्णतया स्वार्थी और अवसरवादी है। उसे नैतिक मूल्यों से क्या लेना-देना है। उसे अपने उद्देश्यों की पूर्ति करनी है चाहे वह किसी भी तरह पूर्ण हो।
14. भ्रमित व्यक्तित्व (Confused personality) – नगर विविधताओं का केन्द्र है। यहाँ पद और भूमिकायें स्पष्ट नहीं हैं। व्यक्ति यह सोचने में असमर्थ है कि कैसे कार्य किया जाय जिससे व्यक्ति, परिवार, अधिकारी, सहयोगी आदि उससे प्रसन्न रहें। वह करता कुछ है और परिणाम उसे कुछ मिलते हैं। इस तरह भटकता हुआ भ्रमित व्यक्तित्व नगर की सभ्यता और संस्कृति में दिखायी पड़ता है।
15. प्रतिस्पर्धायी जीवन (Competitive Life) – नगर में व्यक्ति का जीवन सरल नहीं अत्यधिक जटिल है। प्रत्येक स्तर पर उसे प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है। विभिन्न वर्गों, व्यवसायों और नौकरियों में प्रतिस्पर्धा है। प्रतिस्पर्धा में विजयी होते हैं तो सफलता प्राप्त होगी अन्यथा कहीं पीछे छूट जायेंगे। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा ही प्रतिस्पर्धा है।
16. कृत्रिम जीवन (Artifical Life) – व्यक्ति जैसे-जैसे प्रकृति से दूर होता गया वैसे-वैसे उसके जीवन में कृत्रिमता आती गयी। नगर का संपूर्ण वातावरण कृत्रिमता से परिपूर्ण है। व्यक्ति का संपूर्ण जीवन, भाव और व्यवहार, रहन-सहन का ढंग, वेश-भूषा, खान-पान, बातचीत करने के तौर-तरीके आदि कृत्रिम बन गए हैं। सब कुछ एक फैशन हो गया है। ड्राइंगरूम में सुसज्जित विलासिता की चीजें आर्थिक स्तर का प्रदर्शन करती हैं। अलमारी में सजी हुई पुस्तकें बुद्धिजीवी बनने का दिखावा करती हैं। विदेशी वस्तुओं का प्रयोग व्यक्ति के कृत्रिम रूप में बड़े होने का दावा करती हैं। व्यवहार में हाय, टाटा, बाई-बाई, डैड, मम्मा, यह सभी सम्बोधन कृत्रिम हैं, व्यक्ति के दिखावटी व्यवहार के प्रतीक हैं। डाइनिंग टेबल पर छुरी और काँटों से भोजन करना दिखावा मात्र ही तो हैं, बड़े होटलों में कैबरे-नृत्य के साथ भोजन करना व्यक्ति के बनावटी जीवन का प्रतीक है। नित्य बदलते हुए फैशन को अपनाना व्यक्ति के कृत्रिम व्यवहार का परिचायक है। प्रातः से रात तक व्यक्ति का जीवन एक मशीन के पुर्जे की तरह कार्य करता है। उसकी सम्वेदना शक्ति, भावना, हृदयस्पर्शी व्यवहार सब कुछ निर्जीव मशीन की तरह हो गया क्योंकि उसके जीवन में वास्तविकता कम और कृत्रिमता अधिक आ गयी है.
17. वैवाहिक जीवन में बदलाव (Changes in Marital Life) – नगरीय समुदाय के ताने-बाने में वैवाहिक जीवन से जुड़ी हुई अनेक मान्यताएँ भी बदल गयी हैं। पति और पत्नी दोनों ही अलग-अलग स्थानों पर कार्य करते हैं। दोनों के उद्देश्यों और विचारों में अंतर होते हैं। इन्हीं को लेकर उनमें मतभेद उत्पन्न होते हैं। यह मतभेद इतने अधिक बढ़ जाते हैं कि अन्ततः उनमें तलाक तक हो जाते हैं।
कोलकाता और मुम्बई जैसे महानगरों में व्यक्ति विवाह नहीं करना चाहता क्योंकि न तो उसकी आय इतनी है कि वह परिवार का उत्तरदायित्व पूर्ण कर सके और न उसके पास इतना बड़ा घर ही है कि जिसमें उसका परिवार रह सके। इसलिए वे अविवाहित रहना ही अधिक पसन्द करते हैं।
प्रेम-विवाह और अंतर-जातीय विवाह में निरन्तर वृद्धि हो रही है। औद्योगिक नगरों में स्त्री और पुरुष दोनों वर्षों साथ-साथ कार्य करते हैं। यह एक-दूसरे को अच्छी तरह पहचानते हैं। एक-दूसरे की रुचियाँ, स्वभाव और आदतें जानते हैं। इनकी यह पारस्परिक समझ प्रेम-विवाह और अंतर-जातीय विवाह को प्रेरणा देता है। इस तरह नगरीय वैवाहिक जीवन के ढाँचे में बदलाव आया है। इससे जुड़े मूल्य और आदर्शों में परिवर्तन हो रहे हैं।
18. असंख्य समितियाँ (Abundance of Association) – नगरों में व्यक्ति अपने अधिकारों के प्रति अधिक जागरूक है। उसके आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक विषयों और समस्याओं पर अपने विचार और दृष्किोण होते हैं। उन्हें कार्यान्वित करने के लिए वह समितियों की स्थापनायें करता है। नगर में भिन्नतायें और विविधतायें अधिक होती हैं अस्तु विभिन्न विचारधारा वाले अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अपनी-अपनी समितियाँ बनाते हैं। इसलिए नगरों में असंख्य समितियाँ होती हैं।
19. नगरीय जीवन की विचित्रतायें (Pecularities of Urban Life) – नगर विचित्रताओं से परिपूर्ण है। यहाँ के जीवन में अत्यधिक विषमतायें और भिन्नतायें है कि उनका अनुमान लगाकर ही व्यक्ति कांप जाता है। एक तरफ कुछ व्यक्ति वातानुकूलित महलों और बंगलों में रहते हैं और दूसरी तरफ लाखों व्यक्ति मलिन बस्तियों के दमघोंटू वातावरण में रहते हैं। कुछ व्यक्ति पाँच सितारा होटलों में भोजन करते हैं और लाखों व्यक्तियों को दो समय का भोजन भी सरलता से मिल नहीं पाता है।
नगर की वेशभूषा, खान-पान, रहन-सहन, संस्कृति, व्यवसाय और व्यापार, शिक्षा, धर्म, जाति-पाँति में अंतर ही अंतर है। इनमें समानतायें कम और असमानतायें अधिक हैं। उच्च-वर्ग के व्यक्ति कम और निम्न-वर्ग के व्यक्ति अधिक हैं। व्यक्ति का शोषण नगर में अत्यधिक किया जाता है। इसलिए यहाँ निर्धनता, भुखमरी, बेकारी, निरन्तर बढ़ती जा रही है। मलिन बस्तियाँ अपराध के केन्द्र बनते जा रहे हैं। यहाँ धार्मिक स्थान के केन्द्र भी हैं और जुआ, शराब और वेश्यालय के अड्डे भी।
20. अपराध के केन्द्र (Centre of Cr!me) – नगर और महानगर अपराधों के केन्द्र हैं। घनी आबादी और व्यवसायों के बाजार और केन्द्र होने के कारण यहाँ सम्पत्ति से जुड़े हुए असंख्य अपराध होते हैं। गरीबी और बेकारी भी जहाँ अपराध करने की प्रेरणा देते हैं वहीं करोड़पति बनने की महत्वाकांक्षा भी व्यक्ति को बड़े से बड़ा तस्कर और श्वेत-वस्त्रधारी अपराधी बनाता है। बड़े घराने की युवतियाँ काल-गर्ल्स जैसे धंधा करती हैं। ऐसे युवती तस्कर भी होते हैं और वेश्या भी। इन्हें देखकर सरलता से कोई अनुमान नहीं लगा सकता कि अपराधी प्रवृत्ति की हैं। इनकी वेश-भूषा, अंग्रेजी में बात करने का ढंग, कला का जीवन, कार पर चलना, बंगलों में रहना, सब कुछ सम्भ्रान्त लगता है पर महानगरों में इसी समुदाय की स्त्रियाँ गंभीर से गंभीर अपराध करती हैं। इनके पीछे शक्तिशाली वर्ग होता है जो इनकी रक्षा करता है। इसीलिए नगरों में जहाँ पुरुष अपराधियों की संख्या में वृद्धि हो रही है वहीं स्त्रियाँ में भी अपराध बढ़ रहा है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि नगरीय समुदाय की क्या विशेषतायें हैं। वहाँ के व्यक्तियों का रहन-सहन, वेश-भूषा, विचार और सोच कैसा है। संस्कृति की विभिन्नतायें किस प्रकार व्यक्ति को व्यक्ति से अलग-थलग करती हैं। ये विभिन्नतायें नगर में किन विषमताओं और समस्याओं को जन्म देती हैं। इस तरह नगरीय समुदाय अपनी विचित्रताओं के घेरे में कैद है यहाँ किसी चीज की कोई सीमा नहीं है। गरीबी इतनी कि देखी नहीं जाती है, विलासिता इतनी कि आँखों पर विश्वास नहीं होता। अपराध और भ्रष्टाचार की सीमायें नहीं हैं। मनुष्यता इस नगरीय समुदाय में रह भी गयी है कि नहीं अब तो इस पर सन्देह होने लगा है। भौतिक भोगवादी संस्कृति में व्यक्ति स्वार्थी, पद लोलुप, भ्रष्ट, नैतिक दृष्टि से पतित प्राणी बनकर रह गया है।