# मैक्स वेबर के व्याख्यात्मक अवधारणा (सामाजिक क्रिया तथा आदर्श प्रारूप)

मैक्स वेबर के व्याख्यात्मक अवधारणा :

समाजशास्त्रीय विश्लेषण मे जर्मन के समाजशास्त्री मैक्स वेबर का एक महत्वपूर्ण स्थान है। मैक्स वेबर (1864–1920) का स्थान समाजशास्त्र में एक ऐसे समाजशास्त्री के रूप में लिया जाता है जिन्होंने अध्ययन विधी को अपने समाजशास्त्रीय विश्लेषण से प्रभावित किया है। समाजशास्त्र की व्याख्या करते हुए मैक्स वेबर ने यह कहा है कि समाजशास्त्र वह विज्ञान है जो सामाजिक क्रिया का निर्वचनात्मक (Interpretative Understanding) बोध कराता है जिसके कारण सामाजिक क्रिया तथा इसकी गतिविधियों तथा परिणामों का कारण सहित व्याख्या सम्भव हो सके।

इस प्रकार यह स्पष्ट है की समाजशास्त्र की परिभाषा देते हुए उन्होंने सामाजिक क्रियाओं के अध्ययन पर विशेष ध्यान दिया। सामाजिक कियाएँ समाजशास्त्र का एक केन्द्रिय अध्ययन विषय हैं। इसका उद्देश्य सामाजिक क्रिया का अर्थपूर्ण अध्ययन करने से है। सामाजिक क्रिया का विश्लेषण करते हुए उन्होंने सामाजिक क्रिया को शारिरीक क्रिया से अलग बताया। कोई भी शारिरिक क्रिया सामाजिक क्रिया का रूप नहीं ले सकती क्योंकि सामाजिक क्रिया मे दो या दो से अधिक व्यक्ति के बीच सम्बन्ध पाया जाना आवश्यक होता है। व्यक्तियों के बीच अन्तः सम्बन्ध के कारण एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के सामाजिक संदर्भ तथा उससे जुड़े अर्थ को भी समझते हैं। इस प्रकार उनका यह कहना था की एक व्यक्ति जब दूसरे व्यक्ति के संपर्क में आकर अपने व्यवहार को नियंत्रित करते हैं तो उन्हें एक दूसरे के सांस्कृतिक तथा सामाजिक पृष्ठभूमि का ज्ञान होता है जिसके कारण उनके बीच संबंध विकसित होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे के बारे में जो राय बनाते हैं या जो विचार रखते हैं उसमें परस्पर सामाजिक स्थिति का ज्ञान उन दोनों को होता हैं इसलिए उनका यह मानना था की किसी भी सामाजिक क्रिया को वैज्ञानिक तथा अवैज्ञानिक पूर्णरूप से नहीं कह सकते क्योंकि समाज में एक व्यक्ति के संस्कृति, तौर-तरीके अलग-अलग होते हैं। अगर एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से मिलने पर हाथ मिलाकर उसका अभिवादन करता है तो दूसरा व्यक्ति सम्भव है हाथ जोड़कर नमस्कार करने को ही अभिवादन की सही प्रक्रिया माने। इसलिए समाज में व्यक्ति की जो आदतें विकसित होती है वह प्रत्येक सामाज में अलग-अलग होती हैं।

मैक्स बेवर ने अपनी अध्ययन विधी का विश्लेषण करते हुए ‘आइडियल टाइप’ (Ideal Type) के अवधारणा का भी वर्णन करते हुए यह बताया है कि आदर्श प्रारूप एक विश्लेषणात्मक अवधारणा (Analytic Construct) है। इसके द्वारा एक शोधकर्ता समाज में समान तथा असमान प्रवृत्तियों की पहचान करता है, उनका कहना था की आदर्श प्रारूप न तो सांख्यिकी रूप से एक औसतन इकाई है और न ही यह एक उपकल्पना (Hypothesis) है। आदर्श प्रारूप को वह एक मानसिक अवधारणा मानते हैं, जिसमें एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में बोधगम्य सम्बन्धों को संगठित कर समझने की कोशिश की जाती है। इस प्रकार अनेकों परिस्थितियों का निरीक्षण कर वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण से एक पक्षीय दृष्टिकोण को अपने विश्लेषणात्मक अवधारणा का आधार बनाता है।

इस प्रकार आदर्श प्रारूप एक अमूर्त अवधारणा है जिसकी कल्पना शोधकर्ता, शोध करने से पहले जिस विषय का अध्ययन करना चाहता है उसके बारे में समुचित ज्ञान प्राप्त करता है। तीन स्तर पर आदर्श प्रारूप की अमूर्त अवधारणा का वर्णन किया जा सकता है। जो निम्न है :-

  1. ऐतिहासिक रूप से खास घटनाओं का आदर्श प्रारूप जिसमें पश्चिमी देश, प्रोटेस्टेन्ट ऐथिक तथा आधुनिक पूँजिवाद को आदर्श प्रारूप में चित्रित किए जाने की प्रक्रिया है।
  2. आदर्श प्रारूप ऐतिहासिक तथ्यों के अमूर्त तत्वों का विश्लेषण भी करता है जिसको अनेकों ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक संदर्भ में देखा जा सकता है जैसे ‘अधिकारी तंत्र’ तथा ‘सामंतवाद’।
  3. आदर्श प्रारूप विवेकपूर्ण तथा तर्क संगत तरीके से एक खास प्रकार के व्यवहार द्वारा तैयार किया जाता है। यह तीनों उपरिलिखित उपकल्पनाएँ आदर्श प्रारूप के उदाहरण के रूप में देखे जा सकते हैं। वेबर का कहना था कि आदर्श प्रारूप का अर्थ नैतिक मूल्यों से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए और न ही इसे आदर्श क्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए, बल्कि आदर्श प्रारूप की अवधारणा एक अमूर्त अवधारणा है जो शोधकर्ता को शोध विषय पर अध्ययन के लिए मार्गदर्शन का काम करती है। इसलिए आदर्श प्रारूप के निर्माण में जहाँ तक सम्भव हो सके शोधकर्ता को एक वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। अपनी पूर्वाग्रहों को दूर रखकर शोध विषय का आदर्श प्रारूप तैयार करना एक वस्तुनिष्ठ क्रिया है। मैक्स वेबर ने जब धर्म का अध्ययन किया तो धर्म के अध्ययन के लिए उन्होंने धर्म का एक आदर्श प्रारूप तैयार किया। तुलनात्मक विधी का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने ऐतिहासिक संदर्भ में धर्म के विभिन्न तत्वों का वर्णन करते हुए उनके सामान्य गुणों पर आधारित लक्षणों को ध्यान में रखकर धर्म की एक परिभाषा दी।

उसी प्रकार पूँजीवादी सोच की व्याख्या करते समय भी उन्होंने अनेको आधुनिक समाज के लक्षणों की एक सूची तैयार की तथा उन लक्षणों के आधार पर जो पूँजीपती समाज के सामान्य लक्षण थे उसे उन्होंने आदर्श प्रारूप के रूप में रखा सामाजिक क्रिया को भी वह एक आदर्श प्रारूप के रूप में देखते हैं। अनेकों सामाजिक क्रिया का ऐतिहासिक संदर्भ में अध्ययन करने के बाद उन्होंने निम्न चार सामाजिक क्रियाओं का उल्लेख किया है :-

  • तार्किक क्रियाएँ (Rational Action or Goal Oriented Action)
  • मूल्यों पर आधारित क्रियाएँ (Value Oriented Action or Goal Oriented Action )
  • संवेगात्मक (Emotional Action)
  • परम्परात्मक (Traditional Action)

1. तार्किक

तार्किक क्रियाओं से अभिप्राय उन क्रियाओं से है जो तर्क और विवेक पर आधारित होते हैं। इस प्रकार के क्रियाओं में साधन तथा लक्ष्य दोनों में एक विवेकपूर्ण सम्बन्ध स्थापित होता है। जैसे एक विद्यार्थी परीक्षा में अच्छे अंक से उत्तीर्ण होने के लिए कड़ी मेहनत करता है। अच्छे अंक प्राप्त करने के लिए मेहनत तथा एकाग्र होकर पढ़ाई में ध्यान देना आवश्यक है। इस प्रकार इन दोनों क्रियाओं में एक तार्किक सम्बन्ध है।

2. मूल्यों पर आधारित क्रियाएँ

यह वह क्रिया है जिसमें व्यक्ति अपने व्यवहार को अपने मूल्यों की कसौटी पर खड़ा मानता है। उदाहरण के लिए एक जहाज के कैप्टन का डूबते जहाज से उतर कर नहीं भागना।

3. संवेगात्मक क्रियाएं

संवेगात्मक क्रियाओं से उन क्रियाओं का बोध होता है जो मनुष्य के संवेग पर आधारित होते हैं। एक व्यक्ति का धार्मिक विश्वास, उसके परिवार के सदस्यों के साथ उसका सम्बन्ध, यह सभी उसके संवेगों या संवेदनाओं पर आधारित होते हैं।

4.‌ परंपरात्मक

इन क्रियाओं में सामाजिक क्रियाओं तथा परम्परा का महत्वपूर्ण स्थान होता है जिसके कारण व्यक्ति के व्यवहार परम्परा से जुड़े होते हैं। एक संयुक्त परिवार के सदस्य कई धार्मिक अनुष्ठानों का पालन परम्परा से जुड़े होने के कारण करते हैं। उसी प्रकार कुछ सामाजिक परम्पराएँ भी होती हैं, जिसका पालन हम समाज के सदस्य होने के कारण करते हैं।

वेबर ने समाजशास्त्र को सामाजिक क्रियाओं का व्याख्यात्मक अध्ययन कहा था। इसलिए वेबर ने सामाजिक क्रियाओं के आदर्श प्रारूप का वर्णन किया हैं। उनका यह कहना था की जितनी भी सामाजिक क्रियाएँ हैं, उन सभी सामाजिक क्रियाओं को आदर्श प्रारूप के रूप में देखा जा सकता है। उनका मानना था की आधुनिक समाज में जो सामाजिक क्रियाएँ होती हैं, उन सभी सामाजिक क्रियाओं को तार्किक सामाजिक क्रिया से जोड़कर देखा जाता है।

वेबर का यह भी मानना था की यह आवश्यक नहीं की आधुनिक समाज में जिन सामाजिक क्रियाओं को देखते हैं, वह सभी तार्किक क्रियाओं के अंतर्गत आते हों बल्कि आधुनिक समाज में मूल्यों पर आधुनिक क्रियाएँ संवेगों पर आधारित क्रियाओं के साथ-साथ परम्परागत क्रियाओं का भी व्यवहार में इस्तेमाल करते देखा जा सकता है, अर्थात् इन चारों सामाजिक क्रियाओं का एक सम्मिलित स्वरूप आधुनिक सामाज में भी देखने को मिल सकता है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता की सामाजिक क्रियाएँ एक स्वतंत्र रूप से पाई जाने वाली क्रियाएँ है।

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