राज्य की उत्पत्ति के मार्क्सवादी अवधारणा/सिद्धांत :
इस सिद्धांत का जन्मदाता महान विचारक कार्ल मार्क्स माना जाता है। मार्क्स के विचार राज्य की उत्पत्ति के संदर्भ में अन्य सिद्धान्तों से अलग प्रतीत होते हैं। मार्क्स राज्य को प्राकृतिक एवं अनिवार्य संस्था नहीं मानता है। मार्क्स के अनुसार राज्य की उत्पत्ति न तो किसी नैतिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हुई है और न ही मनुष्यों की इच्छा की पूर्ति के लिए। राज्य एक वर्गीय संस्था है जो एक वर्ग के द्वारा दूसरे वर्ग के दमन एवं शोषण के लिए स्थापित की जाती है। दूसरे शब्दों में राज्य धनी व्यक्तियों के हाथ में ऐसा खिलौना है जिसके माध्यम से निर्धनों का शोषण किया जाता है।
मार्क्स के निकटतम सहयोगी फ्रेडरिक एंजेल्स ने भी लिखा है कि राज्य कोई प्राकृतिक संस्था नहीं है बल्कि मानव इतिहास के एक विशेष मोड़ पर राज्य की उत्पत्ति हुई अर्थात् राज्य की उत्पत्ति वर्ग विभाजन एवं वर्ग संघर्ष का अनिवार्य परिणाम है।
मार्क्स ने अपने पूर्ववर्ती चर्चवादी विचारकों, आदर्शवादियों एवं व्यक्तिवादियों की राज्य सम्बन्धी अवधारणाओं का खण्डन किया है। मार्क्स ने राज्य को अपनी प्रकृति से एक वर्गीय संस्था बताया है। उसका मत है कि राज्य एक कृत्रिम संस्था है जिसका निर्माण शोषक वर्ग ने अपने हितों की रक्षा के लिए किया है और यह शोषक वर्ग के हाथों में शोषित वर्ग के दमन एवं उत्पीड़न का साधन है।
कार्ल मार्क्स के राज्य संबंधी विचार
मार्क्स के राज्य संबंधी विचारों को निम्नानुसार समझा जा सकता है।
1. राज्य की उत्पत्ति
मार्क्स के अनुसार आदिम साम्यवादी अवस्था में निजी सम्पत्ति और राज्य का भी अस्तित्व नहीं था। समाज के क्रमिक विकास के परिणामस्वरूप निजी सम्पत्ति का उदय हुआ और सम्पूर्ण समाज सम्पत्तिशाली और सम्पत्तिविहीन दो वर्गों में बँट गया। मार्क्स समाज की इस अवस्था को दासप्रथात्मक युग कहता है और बताता है कि इसी काल में राज्य की उत्पत्ति हुई। इस समाज में सम्पत्तिशाली स्वामी वर्ग अत्यधिक प्रभावशाली था किन्तु इनकी संख्या सम्पत्तिहीन और असंतुष्ट दास वर्ग की तुलना में बहुत कम थी। स्वामी वर्ग को दास वर्ग के विद्रोह का भय रहता था अतः उसने दासों के दमन और अपनी सम्पत्ति की रक्षा के लिए शक्ति का सहारा लिया और कानून, पुलिस फौज, जेल तथा न्यायालय आदि की व्यवस्था की। स्वामी वर्ग ने इन संस्थाओं की मदद से दास वर्ग पर अपना कठोर आधिपत्य स्थापित किया। इस प्रकार राज्य वर्ग संघर्ष से उत्पन्न संस्था है।
2. राज्य की प्रकृति
मार्क्स के अनुसार राज्य अपनी प्रकृति से एक वर्गीय संस्था है। इसका निर्माण शोषक वर्ग ने अपने हितों की रक्षा के लिए किया है। अतः राज्य की प्रभुसत्ता वास्तव में शोषक वर्ग की ही प्रभुसत्ता होती है। राज्य के कानून एवं न्याय प्रणाली शोषक वर्ग के हितों की वृद्धि करने वाले होते हैं। इस प्रकार मार्क्स आदर्शवादियों की इस धारणा का विरोध करता है कि राज्य अपनी प्रकृति से एक नैतिक संस्था है।
3. राज्य का उद्देश्य
मार्क्स के अनुसार राज्य का उद्देश्य उस वर्ग के हितों की रक्षा एवं वृद्धि करना होता है जिसका उत्पादन-साधनों पर अधिकार होता है। अतीत में राज्य की सत्ता पर अल्पसंख्यक शोषक वर्ग का अधिकार रहा है और राज्य ने इस वर्ग के हितों की रक्षा का ही कार्य किया है। किन्तु भविष्य में समाजवादी राज्य की स्थापना होगी और राज्य की सत्ता पर बहुसंख्यक मजदूर वर्ग (शोषित वर्ग) का अधिकार होगा और तब राज्य का उद्देश्य मजदूर वर्ग के हितों की रक्षा करना होगा। इस प्रकार राज्य सम्पूर्ण समाज के सामान्य कल्याण की संस्था कभी भी नहीं होता है।
4. समाज की अवस्थानुसार राज्य की व्यवस्था
मार्क्स के अनुसार इतिहास के किसी भी युग में पाई जाने वाली राज्य व्यवस्था अपनी सामाजिक अवस्था के सापेक्ष होती है। समाज की किसी भी प्रकार की अवस्था में पाई जाने वाली भौतिक व आर्थिक परिस्थितियाँ विशिष्ट प्रकार की होती हैं और इनके संदर्भ में ही उस समाज में शोषक वर्ग (स्वामी, सामन्त या पूँजीपति) के विशिष्ट हित होते हैं। अपने इन विशिष्ट हितों को ध्यान में रखते हुए ही उस समाज का शोषक वर्ग शासन प्रणाली के रूप, संविधान के मूल सिद्धान्तों, न्याय व दण्ड प्रणाली तथा अधिकारों की व्यवस्था आदि को तय करता है। भविष्य में आने वाली समाजवादी व्यवस्था भी इस नियम का अपवाद नहीं होगी।
5. राज्यविहीन समाज का उदय
मार्क्स के अनुसार राज्य एक स्थाई संस्था नहीं है। जिन भौतिक परिस्थितियों के कारण राज्य की उत्त्पत्ति हुई है और उसका अस्तित्व बना हुआ है, उनका अन्त होने पर राज्य का अन्त भी सुनिश्चित है। समाजवादी अवस्था में राज्य क्रमशः क्षीण होता चला जायेगा। पहले निजी सम्पत्ति की संस्था का अन्त होगा। यह वर्गविहीन समाज होगा। अतः कोई वर्ग संघर्ष नहीं होगा। वर्गों के न होने के कारण वर्गीय संस्था ‘राज्य’ की भी आवश्यकता नहीं होगी और राज्य लुप्त हो जायेगा। यह अवस्था समाज की ‘साम्यवादी’ अवस्था होगी। इस प्रकार समाजवादी समाज एक संक्रमणकारी समाज होगा जो क्रमशः साम्यवादी समाज में परिवर्तित हो जायेगा। यह समाज की राज्यविहीन एवं वर्गविहीन अवस्था होगी।
राज्य के अवसान का मार्क्सवादी सिद्धान्त
मार्क्स का विचार है कि समाजवादी समाज में उन भौतिक परिस्थितियों का जन्म होगा जिनके कारण राज्य की आवश्यकता नहीं रहेगी और वह क्रमशः मुरझाकर नष्ट हो जायेगा और समाजवादी समाज की जगह साम्यवादी समाज की स्थापना हो जायेगी।
मार्क्स के अनुसार समाजवादी समाज में राज्य के क्रमशः क्षीण होकर नष्ट हो जाने के कारण निम्नानुसार होंगेः-
1. मार्क्स के अनुसार राज्य का उदय निजी सम्पत्ति के रक्षक के रूप में हुआ है किन्तु समाजवादी समाज में निजी सम्पत्ति की संस्था का अन्त कर दिया जायेगा। अतः राज्य के अस्तित्व का मूल आधार ही नष्ट हो जायेगा और तब राज्य के विलुप्त होने की प्रक्रिया का प्रारम्भ होगा।
2. मार्क्स के अनुसार राज्य एक वर्गीय संस्था है। यह शोषक वर्ग के हाथ में शोषित वर्ग के उत्पीड़न का साधन है। किन्तु समाजवादी समाज में शोषक वर्ग (पूँजीपति) का अन्त हो जायेगा और समाज में एक ही वर्ग (श्रमिक वर्ग) रह जायेगा अतः वर्ग संघर्ष का भी अन्त जो जायेगा। इस स्थिति में राज्य की आवश्यकता नहीं रहेगी और तब राज्य के अन्त की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जायेगी।
3. मार्क्स का मत है कि समाजवादी समाज में ऐसी न्यायपूर्ण व शोषण रहित परिस्थितियाँ होंगी कि व्यक्ति को अपराध करने की आवश्यकता ही नहीं होगी। अतः क्रमशः ऐसी परिस्थितियाँ भी बनेंगी कि समाज में शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के लिए भी राज्य की आवश्यकता नहीं रहेगी।
4. मार्क्स के अनुसार उपर्युक्त कारणों से समाजवादी समाज में राज्य क्रमशः क्षीण होने लगेगा और अन्त में उसका अवसान हो जायेगा। इस प्रकार साम्यवादी समाज की स्थापना होगी जो कि राज्यविहीन व वर्गविहीन समाज होगा।
मार्क्स के राज्य सिद्धान्त की आलोचना
मार्क्स के राज्य सम्बन्धी सिद्धान्त की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है।
1. राज्य वर्गीय संस्था नहीं
मार्क्स राज्य की उत्पत्ति के वर्गीय सिद्धान्त का समर्थक है और बताता है कि राज्य की उत्पत्ति वर्ग संघर्ष से हुई है और यह शोषक वर्ग के हितों की रक्षा करने वाली संस्था है। किन्तु यह सत्य नहीं है। राज्य तो व्यक्ति सेवा और कल्याण करने वाला संगठन है। राज्य रूपी संस्था का उदय मनुष्य के हितों की रक्षा हेतु हुआ है, किसी वर्ग विशेष के हितों की रक्षा के लिए नहीं।
2. राज्य एक कल्याणकारी संस्था
मार्क्स ने राज्य को शोषक वर्ग के हाथों में शोषित वर्ग के उत्पीड़न, दमन और शोषण की संस्था माना है। समाज में केवल आर्थिक वर्ग ही नहीं होते हैं बल्कि अनेक धार्मिक, सांस्कृतिक, नस्लीय तथा भाषायी वर्ग भी होते हैं। राज्य का कार्य इन सभी वर्गों के सामान्य हितों की रक्षा व वृद्धि करना है।
3. पूँजीवादी राज्य सम्बन्धी गलत धारणा
वर्तमान समय में पूँजीवादी राज्य के विकास ने इससे सम्बन्धित मार्क्स की धारणा को गलत सिद्ध कर दिया है। मार्क्स ने पूँजीवादी राज्य को श्रमिकों के क्रूर शोषण का साधन बताया था, किन्तु वर्तमान काल में पूँजीवाद राज्य ने श्रमिकों के कल्याण का दायित्व स्वीकार कर लिया है। मार्क्स का मत था कि पूँजीवाद राज्य का पतन सुनिश्चित है किन्तु आधुनिक काल में पूँजीवादी राज्य पहले की तुलना में अधिक शक्तिशाली व प्रभावशाली है।
4. समाजवादी राज्य सम्बन्धी धारणा दोषपूर्ण
मार्क्स ने समाजवादी राज्य में सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद का समर्थन किया है किन्तु व्यवहार में यह साम्यवादी मूल के निरंकुश शासन के रूप में दिखाई पड़ता है। मार्क्स ने समाजवादी समाज में व्यक्ति के चरित्र में गुणात्मक परिवर्तन की कल्पना की थी जो सत्य सिद्ध नहीं हुई है।
5. राज्यविहीन समाज की स्थापना संभव नहीं
मार्क्स की राज्यविहीन समाज की स्थापना की धारणा एक कल्पना मात्र है जो कि साकार नहीं हो सकती। रूस की क्रान्ति को लगभग 98 वर्ष बीत चुके हैं किन्तु राज्य का अभी तक लोप नहीं हुआ और सोवियत संघ के विघटन के बाद वहाँ साम्यवाद को भी दफना दिया गया।
मार्क्स ने राज्य की उत्पत्ति का जो वर्गीय सिद्धान्त प्रस्तुत किया है वह एक पक्षीय है। मार्क्स राज्य को वर्ग शोषण को प्रोत्साहित करने वाली संस्था मानता है जबकि राज्य का उद्देश्य लोक कल्याण करना है। राज्य सभी नागरिकों के हितों का ध्यान रखता है किसी वर्ग विशेष के हितों का नहीं।
# मार्क्स ने राज्य की उत्पत्ति की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत नहीं किया है। उसकी रूचि वस्तुतः राज्य के स्वरूप में थी। 1847 में जब मार्क्स ने अपनी पुस्तक Communit Manifeto लिखी तो उसका आरम्भ इस वाक्य से होता था, “आज तक के सम्पूर्ण समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है।” यद्यपि इस वाक्य में ऐसा कोई संकेत नहीं है कि वर्तमान समाज से पहले कोई ऐसा भी समाज था जहाँ वर्ग संघर्ष विद्यमान न था। बाद में अनेक वैज्ञानिकों तथा इतिहासकारों ने कुछ ऐसे आदिम समुदायों का पता लगाया जो साझा सम्पत्ति के आधार पर संगठित थे। इन समुदायों के विघटन के कारण ही समाज परस्पर विरोधी वर्गों में विभाजित हो गया और यहीं से राज्य की नींव पड़ी।