कार्ल मार्क्स का संघर्षवादी सिद्धांत :
समाजशास्त्र में सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या संघर्ष से जुड़े अवधारणाओं को लेकर भी की जाती है। संघर्षवादी विचारकों में जर्मनी के समाजशास्त्री कार्ल मार्क्स (1818-1883) को एक अग्रणी विचारक के रूप में देखा जाता है। मार्क्स ने संघर्ष को आधार बनाकर सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन किया था। बीसवीं सदी के छठे दशक के बाद मार्क्स द्वारा प्रतिपादित संघर्ष पर आधारित समाज के विश्लेषण ने सामाजशास्त्रियों के सोच में एक क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया।
मार्क्स ने अपने पुस्तक तथा लेख में मानव इतिहास का वर्णन करते हुए मुख्य रूप से यह विचार दिया है कि उत्पादन की प्रक्रिया में मनुष्य एक-दूसरे के संपर्क में आता है और उत्पादक तथा उत्पादन करने वाले व्यक्ति के बीच के सम्बन्ध, दो परस्पर विरोधी वर्ग के आर्थिक स्वार्थों के टकराहट से होती है। उत्पादन की प्रक्रिया में जुड़े यह दो वर्ग पूंजीपति तथा मजदूर वर्ग के रूप में उभरकर आते हैं। यह दोनो पूँजीपति तथा मजदूर वर्ग के आर्थिक स्वार्थं अलग-अलग होते हैं उन्होंने अपने द्वन्दात्मक भौतिकवाद की अवधारणा के द्वारा संघर्ष पर आधारित सामाजिक क्रिया का विस्तार से विश्लेषण किया है।
द्वन्दात्मक भौतिकवाद का वर्णन करते हुए उन्होंने पूँजीवादी समाज का विस्तार से वर्णन प्रस्तुत किया है। मार्क्स ने द्वंद्वात्मक विधी का प्रयोग हेगल के विचारों से प्रभावित होकर किया था। जर्मनी के दार्शनिक हेगल का मत था कि समाज में संघर्ष की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है, इस संघर्ष की प्रक्रिया ने द्वंद की तीन अवस्थाओं का विस्तार से वर्णन किया।
ये तीन अवस्थाएँ निम्न है :
- स्थापना (Thesis)
- प्रतिस्थापना (Antithesis)
- संश्लेषण (Synthesis)
जब किसी तथ्य का प्रतिपादन होता है तब स्थापना या अवधारणा की बात सोची जाती है। परन्तु किसी भी तथ्य या विचार को सदैव समाज में मान्यता नहीं मिलती है। इसलिए उस विचार के विरोध में दूसरे विचार उभर कर आ जाते हैं, अर्थात कोई भी विचार व मान्यता को ज्यादा दिन तक स्थापित कर पाना मुश्किल होता है। हेगल का यह मत था कि समाज में इस प्रकार के द्वन्द की स्थिति सदैव बनी रहती है। इस अर्न्तद्वन्द को हेगल ने वैचारिक स्तर से जोड़ कर देखा और इसलिए उन्होंने वैचारिक द्वन्दात्मक (Dialectical Spiritualism) सिद्धांत का प्रतिपादन किया था। मार्क्स, हेगल के द्वन्दात्मक सिद्धांत के विचार से काफी प्रभावित थे, परन्तु मार्क्स ने इसे एक भौतिकवादी दृष्टिकोण के आधार पर समझने की कोशिश की। उनका यह मत था कि अंतर्द्वन्द की स्थिति सदैव भौतिक स्तर पर बनी होती है और इसके वैचारिक आधार भी भौतिक आधार पर ही टिके होते हैं। इसलिए उन्होंने संघर्ष का उल्लेख ऐतिहासिक तथा भौतिक आधार पर किया।
उन्होंने यह बताया कि पांच प्रमुख अवस्थाओं का वर्णन उत्पादन की प्रणाली को ध्यान में रखकर किया जा सकता है। उत्पादन की प्रणाली की यह पांच अवस्थाएं निम्न हैं –
- आदिमसाम्यवादी युग (Primitive stage of Mode of Production) : उत्पादन की प्रणाली को आदिम उत्पादन की प्रणाली कहा जाता है।
- दूसरी अवस्था को वे ऐशियाटिक उत्पादन (Asiatic Mode of Production) की प्रणाली कहते हैं।
- तीसरी अवस्था : सामंतवादी (Federal Mode of Production) उत्पादन की प्रणाली कही जाती है।
- चौथी अवस्था : पूँजीवादी उत्पादन (Capitalist Mode of Production) की प्रणाली कही जाती है।
- पाँचवी अवस्था : समाजवादी उत्पादन (Socialist Mode of Production) की प्रणाली कही जाती है।
इस प्रकार ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत का उल्लेख करते हुए उन्होंने उपर्युक्त उत्पादन की प्रणाली के आधार पर सामाजिक अवस्था का वर्णन किया था। इन सभी उत्पादन की प्रणाली में जिस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था विकसित हुई, उसमें दो परस्पर विरोधी वर्ग का विश्लेषण मार्क्स ने किया।
आदिम युग में, अर्थात् जब उत्पादन की प्रणाली अपने आदिम व्यवस्था में थी, उस समय ‘मालिक’ तथा ‘दास’, यह दो वर्ग उभर कर आए इन दोनों वर्गों की स्थिति उत्पादन की क्रिया में एक-दूसरे से बिलकुल ही भिन्न थी।
दूसरी अवस्था ऐशियाटिट उत्पादन की प्रणाली थी, जिसका वर्णन करते हुए उन्होंने सैद्धांतिक स्तर पर इस अवधारणा का उल्लेख किया और इसमें वर्ग की पहचान का कोई मुख्य स्वरूप नहीं वर्णित किया गया है।
उत्पादन की प्रणाली को प्रभावित करने वाली तीसरी अवस्था को सामंतवादी, उत्पादन की प्रणाली कहा गया, जिसमें जमींदार (Landlord) तथा बंधुआ मजदूर (Surf) यह दो वर्ग उभर कर आए। इन दोनों वर्गों की स्थिति भी असामान्य थी क्योंकि इन दोनों के आर्थिक स्वार्थ अलग-अलग थे।
उत्पादन की प्रणाली में तकनीकी विकास के कारण पूँजीवादी व्यवस्था का उदय हुआ, जिसके फलस्वरूप पूँजीवादी उत्पादन की प्रणाली में भी दो वर्ग, अर्थात् पूंजीपति (Bourgeoisie) और मजदूर (Proletariat) वर्ग उभर कर आए। इन दोनों के स्वार्थ, आर्थिक दृष्टि के आधार पर परस्पर विरोधी थे।
उत्पादन प्रणाली के प्रक्रियाओं में परिवर्तन के साथ-साथ इन दो वर्गों की आर्थिक स्थिति भी एक-दूसरे से बिलकुल अलग हो जाते हैं। मार्क्स के अनुसार सामाजिक वर्गों की रचना अर्थव्यवस्था में उत्पादन के सम्बन्धों के आधार पर होती है। जिन व्यक्तियों का उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व और नियंत्रण होता है, वह वर्ग पूँजीपति वर्ग अर्थात् बूर्जूवा कहलाता है। ठीक इसके विपरीत वह वर्ग जिसका उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व नहीं होता, जो सिर्फ अपने श्रम पर निर्भर करता है उसे कामगार श्रमिक वर्ग कहा जाता है। इन दो वर्गों के आर्थिक स्थिति न केवल एक-दूसरे के परस्पर विरोधी होते हैं बल्कि मार्क्स के अनुसार इन्हें शोषक और शोषित वर्ग के रूप में विशलेषण किया जाना ज्यादा सार्थक साबित होता है।
पूँजीपती वर्ग, कामगार श्रमिक के श्रम का शोषण कर आर्थिक उत्पादन करता है, जिसे बेचकर वह काफी मुनाफा कमाता है। श्रमिक वर्ग को केवल उसकी मजदूरी मिलती है और मुनाफे में उसका कोई हिस्सा नहीं होता। इसलिए श्रमिक वर्ग अपने आपको ‘युनियन‘ बनाकर पूँजीपती वर्ग के खिलाफ अपने हक की माँग करता है अर्थात् वह यह महसूस करने लगता है कि उसके श्रम के द्वारा कमाए गए मुनाफे पर केवल पूँजीपती वर्ग का ही अकेला अधिकार नहीं है बल्कि उस मुनाफे के ऊपर उसे भी उसका हक दिया जाना चाहिए।
इस प्रकार वह ‘युनियन’ के द्वारा संगठित होकर अपनी माँग रखता है। इस माँग की पूर्ति नहीं होने पर वर्ग संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है। क्रान्ति के द्वारा जो सामाजिक परिवर्तन होता है, उसमें श्रमिक अर्थात् सर्वहारा वर्ग को पूँजीपति वर्ग से अपना अधिकार प्राप्त करने का अवसर मिलता है। इस प्रकार के संघर्ष को ही मार्क्स ने वर्ग संघर्ष (Class conflict) बताया और इस वर्ग संघर्ष के आधार पर साम्यवादी व्यवस्था (Socialist order) की स्थापना सम्भव होती है, जहाँ वर्ग विहीन समाज होता है, और वर्ग के आधार पर संघर्ष की स्थिति समाप्त हो जाती है।
कार्ल मार्क्स के अपने द्वन्दात्मक ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत का जो वर्णन किया है उसमें दो परस्पर विरोधी वर्गों की भूमिका विभिन्न अवस्थाओं में उल्लेखनीय है। यहाँ इस बात का संकेत देना आवश्यक है कि साम्यवादी व्यवस्था में वर्ग विहीन समाज की कल्पना कार्ल मार्क्स का एक सपना था जो आज भी साकार नहीं हो सका है परन्तु यह उनका समाज के बारे में आदर्श समाज की कल्पना थीं। इसे समाज में एक व्यक्ति का शोषण, दूसरे व्यक्ति के द्वारा नहीं होगा तथा आर्थिक क्षेत्र में समानता के आधार पर प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार मिले होंगे। चूँकि कार्ल मार्क्स ने समाज में मौजूद निरंतर अंतर्द्वन्द की स्थिति का वर्णन आर्थिक स्थिति में आर्थिक चीजों के असमान वितरण के कारण देखा, इसलिए कार्ल मार्क्स की आलोचना इस आधार पर की जाती है कि उन्होंने अर्थव्यवस्था को ही अपने द्वन्दात्मक अवधारणा में एक महत्वपूर्ण स्थान दिया है और समाज के अन्य पहलुओं पर विशेष ध्यान नहीं दिया।