दुर्खीम के सामाजिक एकता का सिद्धान्त :
दुर्खीम ने सामाजिक एकता या समैक्य के सिद्धान्त का प्रतिपादन अपनी पुस्तक “दी डिवीजन आफ लेबर इन सोसाइटी” (The Division of Labour in Society) में करते हुए मत व्यक्त किया है कि मानव समाज में श्रम विभाजन के परिवर्तित प्रतिमानों के साथ-साथ सामाजिक एकता व कानून के स्वरूप में भी परिवर्तन होता जाता है। वह कहता है कि एकता मानव समाज व सामाजिक व्यवस्था का अभिन्न अंग है, इसके बिना सामाजिक संगठन की कल्पना नहीं की जा सकती, यह सर्वकालिक है जो हर समय पाया जाता है, किन्तु समय व श्रम विभाजन की प्रक्रिया के साथ-साथ इसमें परिवर्तन होता जाता है। सामाजिक एकता का प्रभाव सामाजिक व्यवस्था पर अनिवार्य रूप से पड़ा करता है।
दुर्खीम का ‘सामाजिक एकता’ के सन्दर्भ में मुख्य विचार निम्नलिखित कहे जा सकते हैं।
1. सामाजिक एकता सामाजिक व्यवस्था का मौलिक अंग है।
2. सामाजिक एकता व समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था दोनों आपस में अन्तःसम्बन्धित हैं।
3. सामाजिक एकता स्थिर नहीं बल्कि गतिशील है, क्योंकि श्रम-विभाजन के साथ-साथ इसमें परिवर्तन होता जाता है।
4. सामाजिक एकता के स्वरूप के आधार पर ही समाज में कानून निश्चित होते हैं। प्रारम्भ में यान्त्रिक एकता की स्थिति में दमनकारी कानून (Repressive Law) तथा बाद में साम्यवादी एकता की स्थिति में दमनकारी कानून (Restitutive Law) की स्थापना होती है।
सामाजिक एकता के स्वरूप/प्रकार :
दुर्खीम का मत है कि समाज में सामाजिक एकता के स्वरूप में परिवर्तन होता रहा है। यह परिवर्तन यान्त्रिक एकता से सावयवी एकता के रूप में होता है। दुर्खीम के उपर्युक्त कथन के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक एकता के मुख्यतया दो स्वरूप होते हैं। दुर्खीम ने आदिकालीन और साम्यकालीन समाज व श्रम-विभाजन के व्यवस्था के आधार पर मानव समाज में पाई जाने वाली सामाजिक एकता के स्वरूपों को दो भागों में विभक्त करके समझाया है
1. यान्त्रिक सामाजिक एकता (Mechanical Social Solidarity)
2. सावयवी सामाजिक एकता (Organic Social Solidarity)
1. यान्त्रिक सामाजिक एकता
दुर्खीम के अनुसार यह प्राथमिक समाज में व्याप्त सामाजिक एकता है। इस प्रकार की एकता का स्वरूप मशीन की तरह होता है। जिस प्रकार मशीन के स्टार्टर का बटन दबा देने से पूरी मशीन व उसके विभिन्न अंग क्रियाशील हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार प्रारम्भिक समाज में समूह के प्रधान या मुखिया के आदेशों से समूह के समस्त व्यक्ति एक समान व्यवहार करने लगते हैं। इस प्रकार की एकता में तर्क का कोई महत्व नहीं होता तथा कब, क्यों और कैसे के प्रश्न नहीं किए जाते।
दुर्खीम कहता है कि जब आदिकालीन समाज में श्रम विभाजन सरल व लिंगीय था, तो उस समय इसी प्रकार की एकता पाई जाती थी। दुर्खीम का मत है कि इस प्रकार की एकता में व्यक्ति का व्यक्तित्व सामूहिक मस्तिष्क में विलीन हो जाता था। चूँकि इस स्थिति में समाज सरल था व समूहवादिता की भावना प्रबल थी, इसलिए दमनकारी कानून विकसित व प्रचलित थे।
2. सावयवी सामाजिक एकता
प्रोफेसर इमाइल दुर्खीम ने सामाजिक एकता के दूसरे स्वरूप को सावयवी सामाजिक एकता कहा है। दुर्खीम ने कहा है कि यह सामाजिक एकता का उन्नत या विकसित रूप है। इस प्रकार की सावयवी एकता का स्वरूप शरीर के विभिन्न अंगों की विविधता व एकता के अनुरूप होता है। प्रोफेसर इमाइल दुर्खीम का कहना है कि आदिम समाजों में जैसे-जैसे जन आबादी बढ़ती गई, वैसे-वैसे इनकी आवश्यकताओं में वृद्धि होती गई, जिसका परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे आदिम समाजों का स्थान आधुनिक समाजों ने ले लिया तथा व्यक्तियों में बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु इनके कार्यों में भिन्नता आना शुरू हो गई और अन्ततोगत्वा विशेषीकरण का गुण समाज में दिखने लगा। इस प्रकार कहा जा सकता है कि समाज में बढ़ती हुई आवश्यकताओं को पूर्ण करने के फलस्वरूप श्रम विभाजन में वृद्धि हुई तथा श्रम विभाजन के कारण ही समाज में विशेषीकरण की प्रवृत्ति का विकास हुआ और आदिम समाजों में देखी जाने वाली प्रमुख विशेषता ‘यांत्रिक एकता’ खत्म होती गई तथा इसका स्थान सावयवी एकता ने ले लिया क्योंकि एकता के अभाव में समाज के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
दुर्खीम का कहना है कि श्रम विभाजन व विशेषीकरण के कारण सामूहिकता का महत्व लुप्त हो गया और व्यक्ति का महत्व बढ़ गया। आधुनिक समाज में श्रम विभाजन के कारण पृथक पृथक कार्य होने के फलस्वरूप भी समाज के सदस्यों में एक दूसरे के प्रति आश्रित रहने की बात देखी जा सकती है। यह समाज के सदस्यों में एक विशिष्ट प्रकार की एकता है।
“यांत्रिक” और “सावयवी” सामाजिक एकता में अंतर :
यान्त्रिक सामाजिक एकता और सावयवी सामाजिक एकता युक्त समाजों में अंतर –
यान्त्रिक एकता युक्त समाज | सावयवी एकता युक्त समाज |
---|---|
1. यान्त्रिक एकता से युक्त समाज में व्यक्तियों के जीवन में एकरूपता पाई जाती है। | 1. सावयवी एकता युक्त समाजों के सदस्यों के जीवन में विभिन्नता पाई जाती है। |
2. यान्त्रिक एकता वाले समाजों के सदस्यों की आवश्यकताएँ प्रायः सीमित होती हैं तथा अधिकांशतः सदस्यों की आवश्यकताएँ समानता वाली होती हैं। | 2. सावयवी एकता वाले समाजों के सदस्यों की आवश्यकता असीमित होती है, जिसकी पूर्ति हेतु ये समाज के अन्य सदस्यों पर आश्रित रहते हैं। |
3. यांत्रिक एकता वाले समाजों में समान श्रम की भावना रहती है अर्थात् सभी कार्यों को समाज के या परिवार के सदस्य मिल-जुलकर कार्य करते हैं। | 3. सावयवी एकता वाले समाजों में श्रम विभाजन होने के कारण सदस्य अपने काम से काम रखता है। दूसरे के कार्यों से समाज के अन्य सदस्यों को किसी भी प्रकार का मतलब नहीं होता। |
4. यान्त्रिक एकता युक्त समाजों में प्रायः जनसंख्या कम व इनका आकार छोटा रहता है। | 4. सावयवी एकता से युक्त समाजों में अधिक जनसंख्या रहती है तथा इसका आकार विस्तृत होता है। |
5. यान्त्रिक एकता से युक्त समाजों में सामूहिकता की भावना कूट-कूट कर भरी रहती है, जिसके कारण यहाँ व्यक्तिगत भावना को महत्व भावना नहीं दिया जाता। | 5. सावयवी एकता से युक्त समाजों का विस्तृत आकार एवं अधिक जनसंख्या होने के कारण यहां के व्यक्तियों में सामूहिकता की भावना का अभाव रहता है। ये व्यक्तिवादी भावना पर ही जीते हैं। |
6. यान्त्रिक एकता से युक्त समाजों के सदस्य किसी भी कार्य को करने हेतु स्वतन्त्र नहीं रहते। | 6. सावयवी एकता से युक्त समाजों में सदस्य हर तरह से स्वतंत्र रहता है। |
7. यान्त्रिक एकता वाले समाजों में प्रत्येक सदस्य में सामूहिक भावना पाई जाती है। | 7. सावयवी एकता युक्त समाजों में व्यक्ति वादी भावना की प्रधानता रहती है। |
8. यान्त्रिक एकता वाले समाजों में धर्म की प्रधानता होने के कारण कानून पर धर्म का प्रभाव देखा जा सकता है, अर्थात् धार्मिक दर्शन के आधार पर कानून की व्याख्या की जाती है। | 8. सावयवी एकता वाले समाजों में प्रचलित कानून पर धर्म का प्रभाव नहीं होता, वरन् मानवीय दृष्टि को आधार मानकर कानून की व्याख्या की जाती है। |
9. यान्त्रिक एकता युक्त समाजों में आपराधिक कृत्यों को किसी व्यक्तिविशेष या समूह विशेष के विरुद्ध किया गया गलत कार्य न मानकर सम्पूर्ण समाज के प्रति किया गया गलत कार्य माना जाता है। इस कारण ऐसे समाजों में कठोर दण्ड की व्यवस्था रहती है। | 9. सावयवी एकता से युक्त समाजों में आपराधिक कृत्य को व्यक्ति या समूह विशेष के विरुद्ध किया गया कृत्य माना जाता है। इस कारण ऐसे समाजों में क्षतिपूरक दण्ड की व्यवस्था रहती है। |
उपर्युक्त आधार पर कहा जा सकता है कि यांत्रिक एकता से युक्त समाज, आदिम समाज के विपरीत सावयवी एकता से युक्त समाज-आधुनिक समाज में विशेषताएँ खोजी जा सकती हैं।