# धर्म की परिभाषा एवं विशेषताएं | धर्म के सामाजिक महत्व / धर्म की भूमिका एवं कार्य

धर्म की परिभाषा –

धर्म मानव की एक सार्वभौमिक प्रवृत्ति है। जिस प्रकार बुद्धि के आधार पर मनुष्य अन्य प्राणियों से अलग है, उसी प्रकार धर्म के आधार पर भी मनुष्य को अन्य प्राणियों से पृथक् किया जा सकता है। साधारण रूप से धर्म का तात्पर्य मानव समाज से परे अलौकिक तथा सर्वोच्च शक्ति पर विश्वास है, जिसमें पवित्रता, भक्ति, श्रद्धा, भय आदि तत्व सम्मिलित हैं। इन्हीं तत्वों के आधार पर विभिन्न विद्वानों ने धर्म की जो परिभाषाएँ दी हैं, उनमें से निम्नलिखित प्रमुख हैं-

(1) फ्रेजर (Frazer) के अनुसार, “धर्म से मेरा तात्पर्य मनुष्य से श्रेष्ठ उन शक्तियों की शक्ति अथवा आराधना करना है, जिनके बारे में व्यक्तियों का विश्वास हो कि प्रकृति और मानव-जीवन को नियन्त्रित करती है तथा उनको निर्देश देती है।”

(2) टेलर (Taylor) के शब्दों में, “धर्म का अर्थ किसी आध्यात्मिक शक्ति में विश्वास करने से है।”

(3) दुर्खीम (Durkheim) के कथनानुसार, “धर्म पवित्र वस्तुओं से सम्बन्धित विश्वासों और आचरणों की समग्रता है जो इन पर विश्वास करने वालों को एक नैतिक समुदायों के रूप में संयुक्त करती है।”

(4) डॉ. राधाकृष्णन् (Dr. Radhakrishanan) के मतानुसार, “धर्म की अवधारणा के अन्तर्गत हिन्दू उन स्वरूपों और प्रतिक्रियाओं को लाते हैं जो मानव-जीवन का निर्माण करती है और उसको धारण करती है।”

(5) पाल टिलिक (Pal Tillich) के अनुसार, “धर्म वह है जो अन्ततः हमसे सम्बन्धित है।”

इस प्रकार धर्म को सामाजिक प्राणी के उन व्यवहारों तथा क्रियाओं के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिनका सम्बन्ध अलौकिक शक्ति पर सत्ता से होता है।

धर्म की विशेषताएँ –

विभिन्न विद्वानों ने धर्म की जो परिभाषाएँ दी हैं, उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर धर्म की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं-

(1) धर्म का सम्बन्ध प्राकृतिक शक्तियों में होता है।

(2) इन प्राकृतिक शक्तियों का चरित्र दिव्य होता है अर्थात् इस प्रकार की शक्ति अलौकिक होती है।

(3) धर्म में पवित्रता का तत्व पाया जाता है।

(4) प्रत्येक धर्म की एक सैद्धान्तिक व्यवस्था होती है।

(5) धर्म के माध्यम से मनुष्य तथा दैवी शक्तियों के बीच सम्बन्ध स्थापित किये जाते हैं।

(6) प्रत्येक धर्म में धार्मिक व्यवहार करने के कुछ निश्चित प्रतिमान होते हैं, ये प्रतिमान ईश्वरीय इच्छा को प्रकट करते हैं।

(7) धर्म में सफलता तथा असफलता दोनों ही तत्व पाये जाते हैं। इन तत्वों के आधार पर व्यक्ति को धार्मिक पुरस्कार व धार्मिक दण्ड मिलता है।

धर्म के सामाजिक महत्व / धर्म की भूमिका –

धर्म एक अलौकिक शक्ति का नाम है, जिसका प्रभाव सामाजिक पर चारों ओर से पड़ता है। धर्म का महत्व बताते हुए रॉबिन ने लिखा है, “धर्म केवल मनुष्य के जीवन और लक्ष्य का चिन्तन मात्र ही नहीं, वरन् यह जीवन मूल्यों को सुरक्षित रखने का साधन भी है।” डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने भी धर्म के महत्व को स्वीकारते हुए लिखा है, “ईश्वर में मानव प्रकृति अपनी पूर्ण सन्तुष्टि प्राप्त करती है।” मनुष्य में अनेक सामाजिक तथा मानसिक गुणों का विकास होता है, इसका कारण यह है कि धर्म की समाज में महत्वपूर्ण भूमिका है। सामाजिक नियन्त्रण की दृष्टि से धर्म के सामाजिक महत्व अथवा धर्म की भूमिका को निम्न प्रकार से व्यक्त किया गया है-

(1) समाजीकरण – धर्म का सम्बन्ध भावनाओं से होता है। इस दृष्टि से धर्म मनुष्य में सहिष्णुता, दया, धर्म, स्नेह, सेवा आदि सामाजिक गुणों को विकसित करता है। इसके परिणामस्वरूप समाज की व्यवस्था में शक्ति एवं क्षमता का विकास होता है। धर्म व्यक्ति के व्यवहारों को भी नियन्त्रित कर, सामाजिक नियन्त्रण में महत्वपूर्ण योगदान देता है।

(2) धार्मिक संगठनों की प्रेरणा – धर्म के माध्यम से समाज में विभिन्न प्रकार की धार्मिक संस्थाओं तथा संगठनों का विकास होता है। ये धार्मिक संगठन और संस्थाएँ समाज में स्थिरता लाकर सामाजिक संगठन को शक्तिशाली बनाते हैं।

(3) सद्गुणों का विकास – धर्म पर विश्वास होने के कारण समाज के अधिकांश व्यक्ति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपने जीवन को धार्मिक आदर्शों के अनुसार ढालने का प्रयास करते हैं। इसके परिणामस्वरूप उनमें अनेक मानवीय गुणों का विकास होता है।

(4) अपूर्व सत्ता का अनुभव – धर्म का सम्बन्ध एक सर्वशक्तिमान अलौकिक सत्ता से है। इसलिए अधिकांश व्यक्ति अपने अच्छे-बुरे सभी कार्यों, कष्ट या विपत्तियों को ईश्वरीय इच्छा का प्रतीक मानते हैं। इस तरह व्यक्ति में कष्ट के समय अपूर्व शक्ति का विकास होता है।

(5) सामाजिक समस्याओं का समाधान – मानव-जीवन में व्याप्त समस्याओं के समाधान के लिए समाज में अनेक संगठनों तथा संस्थाओं का जन्म हुआ। धर्म वह शक्ति है जो व्यक्ति में आत्मविश्वास जाग्रत करता है, परिणामतः मनुष्य धर्म के माध्यम से सामाजिक समस्याओं से मुक्ति पाते हैं।

(6) पवित्रता की भावना का विकास – धर्म का मौलिक कार्य है, व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन में पवित्रता की भावना का विकास करना तथा अपवित्र व भ्रष्ट कार्यों पर रोक लगाना। धार्मिक दृष्टि से समाज में सिर्फ वे ही कार्य किये जाते हैं जो शुद्ध तथा पवित्र समझे जाते हैं। परिणामतः सामाजिक विघटन पर रोक लगती है।

(7) धर्म समाज का आधार है – धर्म का आधार अलौकिक शक्तियों में विश्वास होने के कारण मनुष्य आदर्शों व मूल्यों की उपेक्षा नहीं करते हैं, परिणामस्वरूप समाज में शान्ति व्यवस्था और एकता का विकास होता है।

(8) नैतिकता और मूल्यों का विकास – धर्म सदाचार और नैतिक आचरण के विकास में सहायक होता हैं सामाजिक नियमों का पालन करना ही नैतिकता है और आशाप्रद व्यवहार करना ही सदाचरण है, यह बात मनुष्य धर्म के द्वारा ही सीखता है। इस प्रकार धर्म ही प्रत्येक समाज में नैतिक स्तर को बनाये रखता है।

(9) सामाजिक तनाव को रोकना – धर्म एक ऐसा साधन है जो मनुष्य को चिन्ता और निराशा जैसे मानसिक तनावों से मुक्ति दिलाता है।

(10) सुरक्षा की भावना – धर्म के माध्यम से व्यक्ति में सुरक्षा की भावना का विकास होता है। धर्म ऐसा विश्वास किया जाता है कि व्यक्ति से परे भी कोई शक्ति (धर्म व भगवान्) है जो व्यक्ति को संकट से मुक्ति दिला सकती है। इस तरह की भावना से व्यक्ति सुरक्षा का अनुभव करते हैं।

धर्म के कार्य –

1. धर्म के अनुसार धर्म के कार्य

(i) धर्म कल्पना तथा सौन्दर्य सम्बन्धी विचारों एवं भावनाओं के स्पष्टीकरण में सहायक होता है।

(ii) एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के साथ धर्म के माध्यम से अनुकूलन करने में सफलता अर्जित करता है। तनावों को दूर करने में धर्म महत्वपूर्ण कार्य करता है।

(iii) धर्म के माध्यम से सामाजिक संगठन स्थायी बना रहता है और उसे निरन्तरता प्राप्त होती है।

(iv) धर्म कार्य और विश्वास दोनों के ही क्षेत्र उत्पन्न करता है।

(v) धर्म उचित एवं अनुचित कार्यों की सीमा भी निर्धारित करता है।

2. मैलिनोवस्की के अनुसार धर्म के कार्य

(i) धर्म का कार्य उन जटिल प्रश्नों का उत्तर देना है जिनका उत्तर उसे सांसारिक दृष्टि से सरलता से नहीं मिलता है।

(ii) संसार की रक्षा का कार्य भी बड़ा प्रमुख है।

(iii) धर्म विभिन्न अनुभवों के द्वारा मनुष्य को जन्म-मरण सम्बन्धी अनेक जटिल प्रश्नों के उत्तर भी स्पष्ट करता है।

(iv) धर्म मानव जाति और आर्थिक जीवन को सुखी बनाता है।

(v) धर्म बीमारी, मृत्यु आदि अनेक समस्याओं एवं आपत्तियों में मनुष्य को धैर्य प्रदान करके उसका साहस बढ़ाता है।

(vi) धर्म रीति-रिवाजों, आदर्शों, सामाजिक प्रतिमानों का समर्थन करके जीवित रखता है।

(vii) धर्म समाज के विभिन्न अंगों को एकसूत्र में बाँधकर एकीकरण का कार्य भी करता है।

3. एण्डरसन के अनुसार धर्म के कार्य

(A) समाज के लिए कार्य –

(i) सामाजिक स्तरों को बनाये रखने का प्रयत्न।

(ii) जीवन के वास्तविक मूल्यों का निर्वाचन ।

(iii) सामाजिक नियन्त्रण का अभिकर्ता।

(iv) कल्याण कार्यों में वृद्धि करने वाला तत्व।

(v) पारस्परिक बन्धुत्व सम्बन्धी कार्य।

(vi) साहित्य, कला तथा संगीत का रक्षक।

(B) व्यक्ति के लिए कार्य –

(i) मानसिक एवं उद्वेगात्मक सुरक्षा का प्रमुख अभिकर्ता।

(ii) व्यक्तिगत लक्ष्य के रूप में नैतिक मूल्यों को प्रोत्साहन।

(iii) वैराग्य को सहन करने की शक्ति प्रदान करना।

The premier library of general studies, current affairs, educational news with also competitive examination related syllabus.

Related Posts

# सिद्धान्त निर्माण का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, महत्व | सिद्धान्त निर्माण के प्रकार | Siddhant Nirman

सिद्धान्त निर्माण : सिद्धान्त वैज्ञानिक अनुसन्धान का एक महत्वपूर्ण चरण है। गुडे तथा हॉट ने सिद्धान्त को विज्ञान का उपकरण माना है क्योंकि इससे हमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण…

# पैरेटो की सामाजिक क्रिया की अवधारणा | Social Action Theory of Vilfred Pareto

सामाजिक क्रिया सिद्धान्त प्रमुख रूप से एक प्रकार्यात्मक सिद्धान्त है। सर्वप्रथम विल्फ्रेडो पैरेटो ने सामाजिक क्रिया सिद्धान्त की रूपरेखा प्रस्तुत की। बाद में मैक्स वेबर ने सामाजिक…

# सामाजिक एकता (सुदृढ़ता) या समैक्य का सिद्धान्त : दुर्खीम | Theory of Social Solidarity

दुर्खीम के सामाजिक एकता का सिद्धान्त : दुर्खीम ने सामाजिक एकता या समैक्य के सिद्धान्त का प्रतिपादन अपनी पुस्तक “दी डिवीजन आफ लेबर इन सोसाइटी” (The Division…

# पारसन्स के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त | Parsons’s Theory of Social Stratification

पारसन्स का सिद्धान्त (Theory of Parsons) : सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार्यवादी सिद्धान्तों में पारसन्स का सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त एक प्रमुख सिद्धान्त माना जाता है अतएव यहाँ…

# मैक्स वेबर के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त | Maxweber’s Theory of Social Stratification

मैक्स वेबर के सामाजिक स्तरीकरण के सिद्धान्त : मैक्स वेबर ने अपने सामाजिक स्तरीकरण के सिद्धान्त में “कार्ल मार्क्स के सामाजिक स्तरीकरण सिद्धान्त” की कमियों को दूर…

# कार्ल मार्क्स के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त | Karl Marx’s Theory of Social Stratification

कार्ल मार्क्स के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त – कार्ल मार्क्स के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त मार्क्स की वर्ग व्यवस्था पर आधारित है। मार्क्स ने समाज में आर्थिक आधार…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

7 + 1 =