# छत्तीसगढ़ में धार्मिक स्थापत्य कला का विकास | छत्तीसगढ़ की स्थापत्य कला | Chhattisgarh Me Sthaptya Kala Ka Vikas

छत्तीसगढ़ में धार्मिक स्थापत्य कला का विकास :

स्थापत्य की दृष्टि से मंदिर-निर्माण का इतिहास भी बहुत प्राचीन है। सामान्यतः ब्राम्हण धर्म के पुनरूत्थान के साथ ही भारतवर्ष में मंदिर निर्माण की कला में वृद्धि हुई। देश-काल, मत-सम्प्रदाय तथा रूचि-अभिरूचि के अनुरूप मंदिर कला में विविधता तथा अनेकरूपता आई। मंदिर स्थापत्य का स्वतंत्र विकास चौथी शताब्दी अर्थात् गुप्तकाल में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। भारतीय इतिहास के इस काल में समतल छत्रों से आच्छादित गर्भगृह तथा उसके सम्मुख स्तम्भों पर आधारित मंडपों का निर्माण किया जाता था। कालान्तर में मंदिरों की तीन प्रमुख शैलियां विकसित हुई, जो नागर शैली– उत्तर भारत में हिमालय से विंध्य तक, द्रविड़ शैली– कृष्ण नदी के दक्षिण में एवं बेसर शैली (मिश्रित शैली)- विंध्याचल एवं कृष्णा के मध्य। इन तीन प्रमुख शैलियों के अनेक आंचलिक प्रकार (उपभेद) प्राप्त होते है।

छत्तीसगढ़ क्षेत्र में मुख्यतः नागर शैली के मंदिर प्राप्त होते है।

छत्तीसगढ़ में मंदिर स्थापत्य कला :

छत्तीसगढ़ में मंदिर स्थापत्य के उद्भव एवं विकास के अंतर्गत मंदिरों का क्रम एवं काल निर्धारण उपलब्ध अभिलेखों या ऐसे लेख जिनमें मंदिर स्थल एवं शासक का नाम ज्ञात होता हो, के आधार पर निश्चित की जाती है। इन साक्ष्यों के अभाव में शैलीगत एवं वास्तुगत विशेषतायें ही काल निर्धारण में सहायक होती है। छत्तीसगढ़ के मंदिरों के अवलोकन से हमें दो प्रकार के मंदिर स्थापत्य देखने को मिलता है। प्रथम तो वे मंदिर है जो पत्थर के बने हुए है तथा द्वितीय प्रकार के वे मंदिर हैं जो ईंटों के बने हुए है। इन दोनों प्रकार के मंदिरों की न केवल निर्माण सामग्री में अन्तर है वरन् इनका स्थापत्य कला में भी भिन्नता है। पाषाण की अपेक्षा ईट द्वारा मंदिर निर्माण करने की प्रक्रिया काफी जटिल एवं क्लिष्ट थी। इस कार्य में शिल्पकारों की अधिक प्रवीणता तथा सूक्ष्मता की आवश्यकता होती है।

छत्तीसगढ़ अंचल में ईटों के मंदिर के निर्माण की एक श्रृंखला दिखाई देता है। इस काल के अंतर्गत सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर, खरौद का शबरी-मंदिर, इन्दल देवल मंदिर और पलारी का सिद्धेवर मंदिर विशेष उल्लेखनीय है। राजिम का राजीवलोचन मंदिर भी मूलतः ईटों से निर्मित है। बस्तर क्षेत्र में गढ़धनोरा नामक स्थान से ईटों के मंदिरों की एक श्रृंखला प्राप्त हुई है। इसी काल के अपवाद स्वरूप पाषाण निर्मित मल्हार का मंदिर है, जो ताला के मंदिर की कला शैली के अनुकरण में निर्मित प्रतीक होती है। इसके पश्चात् ईटों के मंदिर की निर्माण परम्परा प्रायः समाप्त हो गई। ईटों के मंदिरों के भू-विन्यास में गर्भगृह, अन्तराल एवं स्तम्भों पर आधारित मण्डप सामान्य रूप मिलते है, इसमें अधिकांश मंदिरों के मंडप नष्ट हो गए है। ऊर्ध्व विन्यास की दृष्टि से मंदिर का निर्माण जगती पर किया गया है। इसके पश्चात् अधिष्ठान जंघा एवं शिखर वास्तु के मुख्य अंग के रूप में मिलते है। गर्भगृह के प्रवेश द्वार, स्तम्भ एवं चबूतरे के लिए ही प्रस्तर का प्रयोग किया गया है। शेष निर्माण कार्य ईटों से किया गया है।

छत्तीसगढ़ में स्थापत्य कला के विकास में शरभपुरियों, सोमवंशियों तथा कलचूरियों राजवंश का महत्वपूर्ण योगदान रहा। शरभपुरियों ने महानदी के उत्तरी क्षेत्र में तथा सोमवंशियों ने महानदी के दक्षिणी क्षेत्र में अधिकांश निर्माण कार्य किए। कलचूरि शासकों ने छत्तीसगढ़ के इन दोनों ही खंडों में कला के क्षेत्र में विशेष निर्माण कार्य किया।

काल-क्रमानुसार शरभपुरीय शासक गुप्तों के समकालीन थे तथा सोमवंशी उनके परवर्ती थे। इसके पश्चात् कलचूरि शासक इस क्षेत्र के शासक थे। तीनों ही राजवंशों के समकालीन स्थापत्य कला की अपनी परम्परागत विशेषतायें हैं जो एक काल की स्थापत्य कला को स्पष्ट रूप से दूसरे काल की कला से भिन्न प्रदर्शित करते हैं। छत्तीसगढ़ के भौगोलिक क्षेत्रों में महानदी के उत्तर और दक्षिण में राज करने वाले विभिन्न राजवंशों ने मंदिर निर्माण की दिशा में पर्याप्त रूचि दिखलाई, जिनके अवशेष आज भी पूरे छत्तीसगढ़ में प्राप्त होते हैं। यह छत्तीसगढ़ का सौभाग्य ही था कि यहां पर राज्य करने वाले शासक विभिन्न सम्प्रदाय के होते हुए भी अन्य सभी धर्मों के प्रति उदार रहे। इस तथ्य की पुष्टि इस क्षेत्र में निर्मित विभिन्न धर्मो के मंदिरों से स्वतः होती है।

मंदिर निर्माण की दिशा में यह एक उल्लेखनीय तथ्य है कि इस क्षेत्र के अधिकांश मंदिर मुख्य पवित्र नदियों के किनारे जैसे महानदी, शिवनाथ और मनियारी नदी के किनारे स्थित हैं। इन नदियों की अनुपस्थिति में अधिकांश मंदिर तालाब के किनारे स्थित है। कुछ प्रसिद्ध मंदिर जैसे राजिम का राजीवलोचन मंदिर, रामचंद्र और कुलेश्वर महादेव मंदिर तथा सिरपुर का लक्ष्मण देवालय महानदी के तट पर स्थित है। वहीं ताला का देवरानी-जेठानी मंदिर मनियारी नदी पर स्थित है। पलारी का मंदिर भव्य तालाब के किनारे स्थित है जिसका नाम बाल समुद्र है। पूर्व कलचूरि नरेशों द्वारा चुने गये मंदिर स्थलों के ये कुछ उदाहरण मात्र है। यह परम्परा कलचुरिकाल में भी कायम रही और इनके द्वारा भी अधिकांश मंदिरों का निर्माण तालाबों के किनारे किया गया। नगपुरा, पाली, रतनपुर, जांजगीर, पलारी आदि स्थानों के मंदिर तालाब के किनारे ही बनाया गया है।

पूर्वकलचुरिकालीन मंदिर में सर्वप्रथम नलवंशी शासकों के काल में 5-6 वीं शताब्दी ई. के ईंट निर्मित मंदिर गढ़धनोरा जिला बस्तर में है। इसके समकालीन देवरानी-जेठानी मंदिर ताला (बिलासपुर) के मंदिर है। देवरानी मंदिर आंशिक रूप से भग्न है, जबकि जेठानी मंदिर पूर्णतः ध्वस्त होने के बावजूद भी स्थापत्य कला में विशिष्ट प्रकार का है इन दोनों मंदिरों का निर्माण नरम, परतदार, लाल तथा बलुआ पत्थर से किया गया है। देवरानी-जेठानी मंदिर का निर्माण प्रस्तर तथा ईटों के संयुक्त रूप से निर्मित है। दोनों ही मंदिरों की छत सपाट थी जिस पर ईटों का शिखर निर्मित किया गया है। देवरानी मंदिर का जीर्णोद्धार प्रथम चरण में सोमवंशी शासकों तथा द्वितीय चरण में कलचुरि शासकों के काल में कराया गया होगा। इस मंदिर में पाषाण के प्रयोग में इतनी परिपक्वता दिखाई देती है कि इसे इस काल की कला का अनुपम उदाहरण है। इसमें गुप्तकालीन कला का स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है।

सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर, मंदिर स्थापत्य कला की अनुपम कृति है, ईटों को तराश कर मंदिर की बाह्य भित्तियों में विविध अलंकरण अर्थात् कूट वातायान (निकली खिड़किया), कीर्तिमुख का अंकन किया गय है। सिरपुर (लक्ष्मण देऊल) के गर्भगृह का प्रवेशद्वार अत्यन्त कलात्मक है जो कि प्रस्तर निर्मित है। गर्भगृह का प्रवेश द्वार गुप्तोत्तर काल का सुंदर उदाहरण है, इसमें विष्णु के विभिन्न अवतारों तथा कृष्ण लीला का अंकन है। मंदिर का शिखर भग्न अवस्था है। अतः ऊपरी भाग किस प्रकार का था यह ज्ञात नहीं है।

राजिम से प्राप्त लेख से ज्ञात होता है कि नलवंशी राजा बिलासतुंग ने राजिम में विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया था। मंदिर में ईट तथा प्रस्तर का प्रयोग किया गया था। यह मंदिर एक ऊंची जगती पर आधारित है। इस मंदिर के तल विन्यास में गर्भगृह, अन्तराल तथा महामण्डप तीन अंग है। मंदिर का निर्माण नागर शैली में किया गया है तथा यह गुप्तकालीन स्थापत्य का प्रतिनिधित्व करता है।

राजिम में राजीवलोचन मंदिर का निर्माण नलवंशी शासकों द्वारा किया गया है। राजीवलोचन मंदिर का प्रदक्षिणापथ एवं शिखर कलचुरि शासकों के काल में निर्मित किया गया है। इस मंदिर का निर्माण पंचायत शैली में किया गया है। आरंग (जैन मंदिर) एवं खरौद (लक्ष्मणेश्वर) सोमवंशी शासक ईशानदेव द्वारा 541 ई. के लगभग शिव मंदिर का निर्माण कराया गया था। शिवमंदिर के मण्डप का विस्तार कलचुरि शासक रत्नदेव तृतीय के राजत्व काल में कराया गया था। मंदिर का गर्भगृह. शिखर, अन्तराल भाग सोमवंशीकाल का तथा मण्डप कलचुरि काल का है। सोमवंशी अन्य मंदिर में इन्द्रबल द्वारा एक शिव मंदिर का निर्माण कराया गया था इस मंदिर का नाम इन्दलदेव है। मंदिर में केवल गर्भगृह है। मंदिर पूजित अवस्था में नहीं है। इन मंदिरों की विशिष्टता यह है कि स्थापत्य संरचना में ईटों का प्रयोग, जगती, मण्डप और गर्भगृह का प्रवेशद्वार पाषाणखंडों का उपयोग किया गया है। स्थापत्य कला की दृष्टि से गुप्तकालीन मंदिरों एवं मध्यकालीन मंदिरों के बीच के संक्रमणकाल का प्रतिनिधित्व करता है।

पूर्वकलचूरि कालीन मंदिर में गर्भगृह का आन्तरिक भाग ऊपर तक खोखला है, जो कि सोमवंशी काल की अपनी अलग पहचान है जैसा कि सिद्धेश्वर मंदिर पलारी, चितावरी मंदिर धोबनी एवं शिव मंदिर वेलसर सरगुजा प्रमुख है। सोमवंशी काल के स्थापत्य कला की अन्य विशेषता स्तम्भ की चौकी अष्टकोणीय प्रमुख है। लगभग 10 वीं शताब्दी से छत्तीसगढ़ में त्रिपुरी के कलचूरियों ने अपना राज्य स्थापित कर तुम्माण में अपनी राजधानी स्थापित की कलचूरियों के काल में छत्तीसगढ़ में अनेकानेक शैव एवं वैष्णव देवालय निर्मित हुए। कलचुरि शासकों ने रत्नदेव प्रथम, पृथ्वीदेव प्रथम, जाजल्लदेव प्रथम, रत्नदेव द्वितीय और पृथ्वीदेव विशेष उल्लेखनीय है। कलचुरि शासकों ने स्थापत्य कला के पोषक थे। रत्नदेव प्रथम ने तुम्माण में बंकेश्वर और रत्नेश्वर शिव मंदिरों का निर्माण करवाया।

पृथ्वीदेव प्रथम ने तुम्माण में पृथ्वीदेवश्वर, नामक शिव मंदिर और बंकेश्वर मंदिर में चतुष्किका का निर्माण करवाया था। जाजल्लदेव ने पाली के शिव मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। पृथ्वीदेव द्वितीय ने राजिम के राजीवलोचन मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। कलचूरि शासकों के काल के मंदिर मल्हार, रतनपुर, जाजगीर, शिवरीनारायण, पलारी, सरगाव, नगपुरा आदि स्थलों में अवशिष्ट हैं इन मंदिरों में से कुछेक मंदिर अपनी जीर्ण-शीर्ण अवस्था तथा संरक्षण के अभाव में नष्टप्रायः होकर अवशिष्ट हैं। कलचुरिकालीन मंदिरों में से कोई भी मंदिर पूर्णतया सुरक्षित नहीं है।

कलचुरि कालीन स्थापत्य कला में मंदिरों के गर्भगृह वर्गाकार हाते हैं तथा उनके चारों कोणों में छद्म स्तम्भों की योजना दृष्टिगोचर होती है। गर्भगृह के अंदर की छत विभिन्न तलों में निर्मित होता है। यह वास्तुशैली की एक अन्य विशेषता यह है कि तल अलग-अलग वर्गों में एक- -दूसरे से संयुक्त होते हैं। गर्भगृह के प्रवेशद्वार अत्यन्त अलंकृत तथा द्वार शाखों से निर्मित है। इसमें सामान्यतः दोनों पार्यो में गंगा-यमुना तथा पुष्पतला वल्लरियों आदि का अलंकरण मिलता है। ऊपरी ललाट बिम्ब पर ब्रम्हा, विष्णु एवं शिव का अंकन मिलता है।

जिस देवता को मंदिर समर्पित किया जाता था, उसकी प्रतिमा मध्य में स्थापित की जाती थी। इस काल के मंदिर में एक शिखर के साथ ही बहुशिखर का भी निर्माण किया गया था। कलचुरिकाल में मंदिरों के बाह्य भाग को अत्यधिक अलंकृत बनाने का प्रयास किया गया है। इसके अतिरिक्त कलचुरिकाल में मण्डप की एक विशिष्ट संरचना है लेकिन कुछ स्थानों में इसका अभाव है यथा, पाली स्थित शिव मंदिर और जांजगीर का विष्णु मंदिर। पाली के शिव मंदिर का वर्तमान मण्डप परवर्ती काल का निर्मित है।

कलचुरिकालीन प्रस्तर निर्मित विशाल देवालय उत्तर भारत के नागर शैली के अनुकरण पर निर्मित है। 13वीं शताब्दी के पश्चात् कोसल की स्थापत्य परंपरा का अपकर्ष होने लगता है तथा पिरामिडनुमा शिखर युक्त मंदिर निर्माण की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है। प्रवेशद्वार छोटे होने लगते हैं। जगती का अभाव तथा अधिष्ठान अलंकरण में न्यूनता के साथ जड़ता और रूक्षता परिलक्षित होती है।

कलचूरियों के समकालीन कवर्धा की फणीनाग तथा बस्तर के छिंदक नागवंश के शासकों के काल में भी अनेक देवालयों का निर्माण होता रहा है। फणीनाग शासकों के काल का भोरमदेव मंदिर स्थापत्य कला का आकर्षण है। छिदकनाग वंश के शासकों के काल के स्मारक तथा अवशेष बारसूर, दंतेवाड़ा, समलूर, भैरमगढ़ एवं अन्य स्थलों में विद्यमान है। छिदकनागयुगीन स्थापत्य कला में दक्षिण भारत के चोल-चालुक्य तथा काकतीय कला शैली के अंश दिखाई पड़ते हैं।

छत्तीसगढ़ में मराठाकालीन स्थापत्य कला को तीन चरण में विभक्त करते हैं। प्रथम 1757 ई. से 1800 ई. तक (बिंबाजी भोसले एवं आनंदी बाई) तथा द्वितीय काल 1800 से 1853 ई. तक (सूबा शासनकाल एवं रघुजी भोंसले तृतीय)। प्रथम भाग में धर्मनिरपेक्ष भवन एवं द्वितीय भाग में धार्मिक भवन का विकास हुआ। छत्तीसगढ़ में इस युग में प्राचीनकाल (कलचुरिकाल) की मौलिकता जाती रही और कलाकारों ने आधुनिकता का सहारा लिया। मराठाकालीन स्थापत्य कला में प्रमुख मंदिरों का निर्माण किया गया जैसे- रामटेकरी मंदिर (रतनपुर), दामाखेड़ा किरवई, के पास धोबनी मंदिर, हनुमान मंदिर (मराठा बस्ती तात्यापारा), ब्रम्हपुरी में दत्रात्रेय का मंदिर, विरंचीनारायण मंदिर, दूधाधारीमठ (परकोटा एवं तीन गुम्बदों का निर्माण जो सुरक्षा की दृष्टि से किया गया है, मराठाकालीन है।) मराठाकालीन स्थापत्य नागर शैली की हे जिसके अन्तर्गत मंदिरों का निर्माण ईटों से किया गया है बाहरी दीवारों में अलंकरण नहीं दिखाई देता है।

The premier library of general studies, current affairs, educational news with also competitive examination related syllabus.

Related Posts

# बस्तर का ऐतिहासिक दशहरा पर्व : छत्तीसगढ़ (Bastar Ka Dussehra Parv)

बस्तर का ऐतिहासिक दशहरा विभिन्न विधि-विधानों के संगम का पर्व है। इस पर्व के प्रत्येक विधि-विधान की अपनी ऐतिहासिकता है, जो स्वयमेव ही इस पर्व को ऐतिहासिक…

# जिला बलौदाबाजार : छत्तीसगढ़ | Baloda Bazar District of Chhattisgarh

जिला बलौदाबाजार : छत्तीसगढ़ सामान्य परिचय – सतनाम पंथ की अमर भूमि, वीरों की धरती बलौदाबाजार-भाटापारा एक नवगठित जिला है। जनवरी 2012 में रायपुर से अलग कर…

# जिला महासमुंद : छत्तीसगढ़ | Mahasamund District of Chhattisgarh

जिला महासमुंद : छत्तीसगढ़ सामान्य परिचय – उड़िया-लरिया संस्कृति के कलेवर से सुसज्जित पावन धरा की पौराणिक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक आयाम जितना सशक्त है, रत्नगर्भा, उर्वर धरा…

# जिला गरियाबंद : छत्तीसगढ़ | Gariaband District of Chhattisgarh

जिला गरियाबंद : छत्तीसगढ़ सामान्य परिचय – गरियाबंद छत्तीसगढ़ का नवगठित जिला है। नैसर्गिक सौंदर्य से परिपूर्ण इस धरा की भूगर्भ में हीरा, मोती का असीम भंडार…

# जिला धमतरी : छत्तीसगढ़ | Dhamtari District of Chhattisgarh

जिला धमतरी : छत्तीसगढ़ सामान्य परिचय – प्रकृति की अंचल में स्थित धमतरी जिला अपने पौराणिक मान्यताओं ऐतिहासिक धरोहरों, संतो एवं ऋषि-मुनियों की जननी तथा नैसर्गिक खाद्य…

# जिला दंतेवाड़ा : छत्तीसगढ़ | Dantewada District of Chhattisgarh

जिला दंतेवाड़ा : छत्तीसगढ़ सामान्य परिचय – देवी सती की पौराणिक आख्यान और मां दन्तेश्वरी (दंतेवाड़ा) की श्रद्धा-आस्था-विश्वास की यह पावन भूमि है। काकतीय पितामह अन्नमदेव की…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *