# ब्रह्म समाज के प्रमुख सिद्धान्त (ब्रह्म समाज और राजा राममोहन राय)

राजा राममोहन राय भारतीय नवजागरण के अग्रदूत और सुधार आन्दोलनों के प्रणेता थे। वे एक नये युग के प्रवर्तक थे। 1828 ई. में इन्होंने ‘ब्रह्म समाज‘ की स्थापना की।

प्रारम्भिक जीवन– 1772 ई. में बंगाल के वर्धमान जिले के राधानगर में प्रतिष्ठित कुलीन ब्राह्मण परिवार में उनका जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम रमाकान्त और माता का नाम नारिणी देवी था। पिता ने पुत्र की शिक्षा की समुचित व्यवस्था की थी। प्रारम्भिक शिक्षा के बाद उन्होंने पटना में अरबी और फारसी की शिक्षा प्राप्त की। 15 वर्ष की अल्प आयु में उन्होंने मूर्ति-पूजा के विरोध में एक छोटी-सी पुस्तिका लिखी। इससे उनके रूढ़िवादी पिता बहुत नाराज हुए और उन्होंने उन्हें घर से निकाल दिया। इसके पश्चात् उन्होंने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया। वाराणसी में रहकर उन्होंने संस्कृत भाषा और हिन्दू धर्म के ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। वे अरबी, फारसी और संस्कृत के महान् विद्वान थे। वे अनेक यूरोपीय भाषाओं के भी ज्ञाता थे।

1803 ई. में उन्होंने “तुहफ्तुल मुवहिद्दीन” नामक फारसी ग्रन्थ की रचना की जिसमें उन्होंने जोरदार शब्दों में मूर्ति पूजा का खण्डन किया। 1805 ई. में उन्होंने ईस्ट इण्डिया कम्पनी की नौकरी कर ली। 1814 ई. में उन्होंने सेवा से अवकाश ले लिया। शेष जीवन उन्होंने समाज-सुधार में लगा दिया। 1815 ई. में उन्होंने ‘आत्मीय सभा’ की स्थापना की। इस सभा में धर्म के रहस्यों पर वाद-विवाद होता था। सभा की बैठकों में अनेक प्रतिष्ठित लोग भाग लेते थे।

1816 ई. में उन्होंने कलकत्ता में वेदान्त कॉलेज की स्थापना की। इसका मुख्य उद्देश्य विभिन्न धर्मों के वास्तविक स्वरूप को प्रस्तुत करना था। 1821 ई. में उन्होंने ‘कलकत्ता यूनीटेरियन सोसाइटी‘ की स्थापना की, जिसके अंग्रेज भी सदस्य थे। 1828 ई. में उन्होंने ‘ब्रह्म समाज’ की स्थापना की 1820 ई. में उनका ईसाई पादरियों से एक लम्बा विवाद चला। उन्होंने लिखा है, “यह स्वाभाविक है कि विजेता जाति पराजित जाति के धर्म की खिल्ली उड़ाया करती है, स्वयं अपना धर्म चाहे हास्यास्पद हो, उधर उनका ध्यान नहीं जाता। अब यदि अंग्रेज पादरी लोग भारतीय धर्म की निंदा करते हैं, तो कोई असाधारण बात नहीं है।” 1833 ई. में इंग्लैण्ड के ब्रिस्टल नामक नगर में उनका देहान्त हो गया। इस नगर में उनकी समाधि अभी भी विद्यमान है। मुगल सम्राट ने उन्हें ‘राजा’ की उपाधि से विभूषित किया, अतएव वे राजा राममोहन राय के नाम से विख्यात हुए।

राजा राममोहन राय के धार्मिक विचार

राजा राममोहन राय एक धर्म-सुधारक थे। वे एकेश्वरवादी थे। कुरान की तौहीय (एकेश्वरवाद) की धारणा और ईसाइयों की सरल और नैतिक शिक्षा ने उन्हें बहुत अधिक प्रभावित किया। उन्होंने मूर्तिपूजा और धर्माडम्बरों का घोर विरोध किया। उन्होंने हिन्दुओं के बहुदेवतावाद का खण्डन किया परन्तु ये आत्मा की अमरता में विश्वास रखते थे।

वे सार्वभौमिक और प्राकृतिक धर्म के पुजारी थे। वे वेदान्तवादी थे। उन्होंने उपनिषदों का अनुवाद भी किया। बंगला भाषा में उन्होंने धर्म सम्बन्धी अनेक पुस्तकों की रचना की। उन्होंने इस बात पर विशेष जोर दिया कि उनके धार्मिक विचार हिन्दुओं के प्राचीन ग्रन्थों के अनुरूप है, परन्तु वे उन विचारों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे, जो तर्क की कसौटी पर खरा न उतरे। वे विश्वासवादी थे उनका दृष्टिकोण उदार तथा सहिष्णु था।

उन्होंने साम्प्रदायिकता, अन्धविश्वास, पाखण्ड और बाह्याडम्बरों का घोर विरोध किया। उन्होंने धर्म के विशुद्ध स्वरूप को स्वीकार किया 1831 ई. में फ्रांस के विदेश मन्त्री को लिखा, “सारी मानव जाति एक परिवार है तथा जो अनेक जातियाँ और राष्ट्र है वे उसी परिवार की शाखाएँ है।” उन्होंने संसार को विश्व बन्धुत्व का सन्देश दिया। वे भारत के धार्मिक विचारों और यूरोप के सैद्धान्तिक विचारों के बीच समन्वय स्थापित करना चाहते थे।

राजा राममोहन राय के सामाजिक विचार और सुधार

राजा राममोहन राय न केवल धर्म-सुधारक थे, वरन् एक महान समाज-सुधारक भी थे। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों और कुप्रथाओं का विरोध किया तथा उनमें सुधार लाने का प्रयास किया। उन्होंने कहा, “हिन्दुत्व बाह्य कुप्रथाओं के भार से दबा सिसक रहा है। अतः कुछ खण्डनों से उसका मण्डन नहीं हो सकता है, जब तक कि उसके लिए ठोस कार्य नहीं किया जाये।” सती प्रथा का उन्होंने प्रबल विरोध किया। इसे वे हिन्दू समाज के लिए कलंक मानते थे। उन्होंने सिद्ध किया कि न तो वेदों में, न ही मनु, याज्ञवल्क्य आदि स्मृतियों में सती प्रथा का समर्थन किया गया है। शास्त्रों के अनुसार, विधवाओं को जीवित रहने का अधिकार है। उन्हें जीवित जलाना एक अत्यन्त घृणित कार्य है।

यह उनके प्रयत्नों का परिणाम है कि 1829 ई. में गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक ने सती प्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया। उन्होंने बहु-विवाह और बाल विवाह का भी विरोध किया। उन्होंने अकाट्य तर्क द्वारा यह सिद्ध किया कि शास्त्रकारों ने हिन्दू पुरुष को उसकी पत्नी के जीवित रहते हुए दूसरा विवाह करने की अनुमति नहीं दी है। विशिष्ट परिस्थितियों में ही वह दूसरा विवाह कर सकता है। उन्होंने बाल-विवाह और भ्रूणहत्या को अमानवीय कृत्य बतलाया। उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन किया। उन्होंने जाति प्रथा का भी विरोध किया। उन्होंने एक मुसलमान लड़के को गोद लेकर अत्यन्त साहसपूर्ण कदम उठाया। जाति प्रथा को वे राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधक मानते थे। वे पहले भारतीय और ब्राह्मण थे, जिन्होंने समुद्र पार करके इंग्लैण्ड की यात्रा की।

राजा राममोहन राय के शिक्षा सम्बन्धी विचार

वे पाश्चात्य शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। उनका विश्वास था कि पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान द्वारा ही भारत का कल्याण हो सकता है। वे विशुद्ध विज्ञानवादी थे। वे अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने के बहुत समर्थक थे। वे चाहते थे कि भारत में पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान की सभी शाखाओं के अध्ययन और अध्यापन की व्यवस्था हो। उन्होंने 1828 ई. में लॉर्ड एमहर्स्ट को लिखा, “संस्कृत कॉलेज खोलने के बजाय, अंग्रेजी भाषा द्वारा गणित, प्राकृतिक दर्शन, रसायन, शरीर रचना और अन्य उपयोगी विज्ञानों की शिक्षा के लिए कॉलेज खोलना अधिक अच्छा है।” वे पश्चिम की वैज्ञानिक प्रगति से बहुत अधिक प्रभावित थे। उनका विचार था कि वैज्ञानिक प्रगति के कारण ही यूरोप शक्तिशाली और समृद्धशाली है। अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से वे भारतीयों को पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान से परिचित कराना चाहते थे। 1816- 17 ई. में कलकत्ता में हिन्दू कॉलेज की स्थापना में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। शीघ्र ही हिन्दू कॉलेज आधुनिक शिक्षा का प्रमुख केन्द्र बन गया। उन्होंने स्त्री-शिक्षा पर भी जोर दिया।

राजा राममोहन राय के राजनीतिक विचार

राजा राममोहन राय यूरोप की उदारवादी विचारधारा से बहुत अधिक प्रभावित थे। उन्होंने भारतीयों में राजनीतिक जागृति उत्पन्न करने का प्रयास किया। भारतीय प्रशासन में सुधार करने के लिए उन्होंने आन्दोलन चलाया। ब्रिटिश संसद की एक प्रवर समिति के समक्ष उन्होंने शासन में सुधार के लिए सुझाव दिये थे। वे पहले भारतीय थे जिन्होंने ब्रिटिश संसद के समक्ष भारतीय प्रशासन में सुधार के सम्बन्ध में अपने विचारों को रखा था। वे समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता के समर्थक थे। उन्होंने ‘सम्वाद कौमुदी‘ नामक बंगाली पत्रिका का प्रकाशन किया। 1833 ई. में उन्होंने समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता के लिए आन्दोलन चलाया। वे अन्तर्राष्ट्रीयता के महान् पोषक थे। उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को सुलझाने के लिए एक ‘अन्तर्राष्ट्रीय कांग्रेस’ स्थापित करने का सुझाव रखा था। वे एक महान् देशभक्त थे। देश-प्रेम की भावना उनमें कूट-कूटकर भरी हुई थी।

ब्रह्म समाज

1828 ई. में राजा राममोहन राय ने ‘ब्रह्म समाज‘ की स्थापना की। 1830 ई. के वफनामे में उन्होंने इस समाज के उद्देश्यों को निम्न शब्दों में अभिव्यक्त किया, “इस पूजा या प्रार्थना को करते हुए किसी जीवित या अजीवित वस्तु की जिसे कोई भी व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह पूजा का पात्र समझता है, समझता रहा या समझेगा कभी निन्दा नहीं की जायेगी बल्कि जो कुछ भी कहा या किया जायेगा, वह ऐसा होगा जिससे विश्व के सृष्टा और संरक्षक का ध्यान परोपकार, नैतिकता, पवित्रता और सदाचार के विकास और सभी धार्मिक मतों और सम्प्रदायों के लोगों में मेल-मिलाप की कड़ियों को मजबूत करने के कार्य को बढ़ावा मिले।” उन्होंने हिन्दू, मुसलमान और ईसाई तीनों धर्मों के गुणों को स्वीकार किया। उनका मुख्य उद्देश्य हिन्दू धर्म के सत्य स्वरूप को प्रस्तुत करना था। ब्रह्म समाज के सिद्धान्त वेद और उपनिषदों पर आधारित थे। ब्रह्म समाज के निम्नलिखित प्रमुख सिद्धान्त थे-

धार्मिक सिद्धान्त :

ईश्वर सर्वव्यापी, अनादि, आनन्दमय और एक है। इस प्रकार इसमें एकेश्वरवाद का समर्थन किया गया और द्वैतवाद का विरोध किया गया।

  • आत्मा अमर है।
  • ईश्वर निर्गुण है, उसका अवतार के रूप में कभी भी जन्म नहीं हुआ और न ही उसने मानव शरीर का रूप धारण किया है।
  • ब्रह्म समाजवादियों ने मूर्तिपूजा का खण्डन किया।
  • सभी व्यक्ति सभी स्थानों पर ईश्वर की उपासना कर सकते हैं। ईश्वर के समक्ष सभी व्यक्ति समान है। मन्दिर, मस्जिद और गिरजाघर का आडम्बर व्यर्थ है।
  • सभी धर्मों का सम्मान करना चाहिए। किसी भी धर्म की पुस्तक ईश्वर कृत नहीं है।
  • पापों के परित्याग और उसके पश्चात्ताप से मोक्ष प्राप्त हो सकता है। परोपकार एवं पवित्रता का जीवन व्यतीत कर मनुष्य गोक्ष प्राप्त कर सकता है।
  • परमेश्वर पाप और पुण्य का उचित प्रतिफल देता है।
  • ईश्वर में विश्वास रखना चाहिये क्योंकि वह सभी की प्रार्थना सुनता है।
  • सभी जीवधारियों के प्रति प्रेम दया का भाव रखना चाहिए। इस समाज का मनुष्यों में भ्रातृत्व की भावना अथवा विश्व बन्धुत्व की भावना में विश्वास था।

सामाजिक सिद्धान्त :

  • ब्रह्म समाज ने अन्धविश्वास, रूढ़िवादिता, जाति-भेद और छुआछूत का विरोध किया।
  • उन्होंने सती प्रथा का प्रबल विरोध किया और उसे समाप्त करने के लिए आन्दोलन चलाया।
  • बाल-विवाह, बहुविवाह और बाल-हत्या की कुरीतियों को समाप्त करने पर जोर दिया।
  • इन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन किया।

राजा राममोहन राय के नेतृत्व में ब्रह्म समाज की चतुर्मुखी प्रगति हुई। समाज की बैठकों में दो तेलगु ब्राह्मण वेदपाठ करते थे। उपनिषदों का पाठ होता था और इसके पश्चात् राजा राममोहन राय का लिखा हुआ प्रवचन पढ़ा जाता था और भजन होता था। अपने विचारों को फैलाने के लिए समाज ने प्रचार के सभी साधनों का प्रयोग किया भाषण, लेख, समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के माध्यम से समाज के विचारों का प्रचार और प्रसार किया गया। स्कूल और कॉलेज की स्थापना की गयी। अंग्रेजी भाषा और पश्चिमी शिक्षा पर विशेष जोर दिया गया।

राजा राममोहन राय ने ‘वेदान्त कॉलेज‘, हिन्दू कॉलेज और इंग्लिश स्कूल की स्थापना की। उन्होंने ‘संवाद ‘कौमुदी’ और ‘मिराकल अखबार‘ नामक दो पत्र भी निकाले। धार्मिक वाद-विवादों द्वारा समाज के विचारों का प्रचार किया। ब्रह्म समाज 19वीं शताब्दी का प्रथम धार्मिक और सामाजिक आन्दोलन था जिसने भारतीयों को बहुत अधिक प्रभावित किया। समाज सुधार के क्षेत्र में इसका योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसने समाज में व्याप्त सभी कुरीतियों पर कठोर प्रहार किया। भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों से भारतीय परिचित हुए। उन्हें हिन्दू धर्म और दर्शन के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हुआ। शिक्षित समाज में एक अपूर्व जागृति उत्पन्न हुई, परन्तु यह नवजागरण सिर्फ बड़े-बड़े नगरों तक सीमित था। कस्बों और गाँवों में नवजागरण का सन्देश नही पहुँच सका।

कालान्तर में ब्रह्म समाज के अनुयायियों ने अपनी एक अलग जाति बना ली। ये लोग ‘ब्राह्म’ कहलाये। हिन्दू समाज से वे पृथक हो गये। इनका रहन-सहन, विवाह पद्धति, खान-पान आदि अन्य हिन्दुओं से अलग हो गया। अन्य प्रान्तों में भी इस समाज की स्थापना की गयी। परन्तु इनके स्वरूप में परिवर्तन हो गया। समाज की अनेक शाखाएँ अन्य संस्थाओं में विलीन हो गयी। अतएव ब्रह्म समाज का सन्देश बंगाल के शिक्षित वर्ग तक ही सीमित रह गया।

राजा राममोहन राय का भारतीय पुनर्जागरण में योगदान :

राजा राममोहन राय धर्म-सुधारक और समाज-सुधारक दोनों थे। विश्व के मानवतावादी सुधारकों में उनका स्थान अग्रणीय था। वे बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्ति थे। उन्हें भारत के भावी नवजागरण का आभास था। वे ‘आधुनिक भारत के निर्माता‘ तथा ‘नवोत्थान और नवयुग के अग्रदूत‘ थे।

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