# ऑगस्ट कॉम्टे का जीवन परिचय, कृतियां एवं समाजशास्त्र (Auguste Comte)

ऑगस्ट कॉम्टे का जीवन परिचय :

सामाजिक घटनाओं के व्यवस्थित अध्ययन की नींव डालने में जिन प्रमुख विद्वानों ने योगदान किया, उनमें फ्रांस के दार्शनिक ऑगस्ट कॉम्टे का नाम सर्वोपरि है। कॉम्टे वह पहले विचारक थे जिन्होनें सामाजिक चिन्तन को एक व्यवस्थित क्रमबद्धता में संयोजित करके समाजशास्त्रीय चिन्तन की परम्परा आरम्भ की, इसी योगदान के कारण कॉम्टे को समाजशास्त्र के जनक (Father of Sociology) के रूप में स्वीकार किया जाता है।

जीवन एवं कृतियां :

समाजशास्त्र के जनक ऑगस्ट कॉम्टे का जन्म दक्षिण फ्रांस के मान्टपेलियर नाम स्थान में 19 जनवरी सन् 1798 में हुआ था। यह समय फ्रांस की उथल-पुथल की राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति का काल था। फ्रांस की क्रांति के अध्येताओं का कथन है कि उस समय निरंकुश सत्ता और बढ़ती हुई जनपक्ति के बीच हिंसात्मक संघर्ष होने के कारण फ्रांस का सम्पूर्ण जन जीवन अस्त-व्यस्त होने लगा था। फ्रांस की क्रान्ति सन् 1789 में हुई और उसके पश्चात् उत्रीसवीं सदी के प्रारम्भ से ही नेपोलियन की तानाशाही का उदय हुआ। इस प्रकार कॉम्टे के बौद्धिक जीवन का प्रारम्भिक काल नेपोलियन की बढ़ती हुई सत्ता का काल था । स्पष्ट है कि ऑगस्ट कॉम्टे ने जिन सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों में जन्म लिया और जिस काल में उन्होंने अपना सामाजिक चिन्तन आरम्भ किया, वह काल मुख्यतः अराजकता और सैन्य शक्ति के विस्तार का काल था।

ऑगस्ट कॉम्टे का जन्म एक कैथोलिक परिवार में हुआ था। कॉम्टे का पूरा नाम इसीडोर ऑगस्ट मेरी फ्रैं-कोयस जेवियर कॉम्टे था। यद्यपि कॉम्टे के पिता राजस्व कर विभाग में एक छोटे से अधिकारी थे। लेकिन कॉम्टे में बचपन से ही एक बहुमुखी बौद्धिक प्रतिभा परिलक्षित होने लगी थी। एक और कॉम्टे के शिक्षक उन पर व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और अनुशासनहीनता आचरण का आरोप लगाते थे जबकि कॉम्टे के सहपाठी उनकी बौद्धिक क्षमताओं और स्थापित सत्ता के प्रति उनके क्रान्तिकारी रूख के प्रशंसक थे। कॉम्टे के जीवन का यह प्रारम्भिक काल पूर्व मान्यताओं के विरोध का काल था जिसका स्पष्ट रूप परिवार तथा स्कूल दोनों ही स्थानों पर रूढ़िवादी विचारों के रोमन कैथोलिक थे जबकि कॉम्टे कैथोलिक मत की आलोचना किया करते थे। एक शासकीय अधिकारी होने के कारण कॉम्टे के पिता राजभक्ति के समर्थक थे जबकि कॉम्टे लोकतान्त्रिक प्रणाली एवं व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को महत्वपूर्ण मानते थे। फ्रांस की क्रान्ति से लोकतन्त्र, व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और मानवतावादी विचारों को जो प्रोत्साहन मिला था कॉम्टे उन्हीं विचारों पर अपने चिन्तन को 13 वर्ष की अल्पायु से ही विकसित करने लगा।

प्रारम्भिक शिक्षा के पश्चात् 19 वर्ष की आयु में कॉम्टे का सम्पर्क तत्कालीन प्रमुख विचारक सेन्ट साइमन (1760- 1825) से हुआ जो उस काल के सर्वाधिक चर्चित विचारक थे। कॉम्टे ने जो कुछ भी लिखा वह केवल सेन्ट साइमन की ही देन थी, इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। सच तो यह है कि सेन्ट साइमन के विचारों में वह वैज्ञानिकता तथा क्रमबद्धता नहीं थी जो कॉम्टे ने समाजशास्त्र को प्रदान की । सेन्ट साइमन फ्रांसीसी कुलीनतन्त्र के सीमान्त सदस्य थे और उनकी प्रतिष्ठा मुख्यतः एक कल्पनावादी समाजवादी के रूप तक ही सीमित रही। कॉम्टे और सेन्ट साइमन के घनिष्ठ सम्बन्धों की समाप्ति सन् 1824 में तब हुई जब कॉम्टे ने सेन्ट साइमन के कुछ दूसरे अनुयायियों पर यह आरोप लगाया कि वे कॉम्टे ने पाज़िटिव फिजिक्स नामक अपने लेख के द्वारा भी सेन्ट साइमन के उन विचारों की आलोचना करना आरम्भ कर दी जो अतिक्रान्तिकारिता अथवा तीव्र परिवर्तन के पक्ष में थे, यहीं से इन दोनों विचारकों के रास्ते एक-दूसरे से अलग हो गए।

फरवरी सन् 1825 में कॉम्टे का विवाह कारलोनी मेसिन से हुआ। इस समय तक कॉम्टे अपने समाज में एक बौद्धिक विचारक के रूप में प्रतिष्ठापित नहीं कर पाये थे। साथ ही अनेक भ्रमपूर्ण विवादों के कारण कॉम्टे का अपनी पत्नी से विवाह विच्छेद हो गया था। यह काल कॉम्टे के जीवन का एक दुःखद काल था। इसके पश्चात् भी कॉम्टे ने अपने आपको एक बौद्धिक विचारक के रूप में स्थापित करने हेतु एक गोध पत्रिका प्रोडक्टर में विचारोत्तेजक लेख लिखने प्रारम्भ किया। इसी क्रम में उन्होंने पाजिटिव फिजिक्स पर एक पाठ्यक्रम प्रारम्भ किया। धीरे-धीरे कॉम्टे द्वारा प्रस्तुत के अनुयायियों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। कॉम्टे ने अपने जीवन में संघर्ष करते हुए अनेक ग्रन्थों की रचना की। उनकी मृत्यु 5 सितम्बर 1857 को हुई किन्तु उनकी रचनायें आज भी समाजशास्त्र की प्रमुख निधि है।

कॉम्टे की दृष्टि में समाजशास्त्र एवं उद्भव :

कॉम्टे ने तार्किक दृष्टिकोण को उपयोग में लाते हुए बतलाया कि जब प्राणियों के अध्ययन करने वाले शास्त्र को प्राणीविज्ञान या खगोल का अध्ययन करने वाले विज्ञान को खगोलशास्त्र कहना ही अधिक युक्तिसंगत होगा। सामाजिक विचारों का व्यवस्थित अध्ययन करने वाले विज्ञान को पहले कॉम्टे ने सामाजिक भौतिकी का नाम दिया किन्तु बाद में उन्होंने सन् 1838 में इसे समाजशास्त्र नाम से सम्बोधित किया जो नाम अब पूर्णतया प्रतिष्ठित हो चुका है।

समाजशास्त्र विषय के उद्भव की आवश्यकता कॉम्टे बहुत लम्बे समय से महसूस कर रहे थे। उनका विचार था कि समाज के बीच पाये वाले सम्बन्धों को धार्मिक एवं दार्शनिक चिन्तन से अलग करके एक नये विज्ञान के माध्यम से ही उनका व्यवस्थित अध्ययन किया जा सकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति हेतु उन्होंने समाजशास्त्र के नाम से एक नए वैज्ञानिक विधायी को जन्म दिया। कॉम्टे ने समाजशास्त्र को जिस दृष्टिकोण से समझने और विकसित करने का प्रयास किया उसे कॉम्टे के समाजशास्त्र सम्बधी अनेक विचारों की सहायता से समझा जा सकता है।

कॉम्टे ने सामाजिक चिन्तन के लिए सोशल फिजिक्स अथवा सामाजिक भौतिकी शब्द का प्रयोग किया तब उनके समकालीन विचारों और वैज्ञानिक ने उनकी इसलिए आलोचना की क्योंकि इससे पहले बेल्जिम के वैज्ञानिक क्वेटलेट ने सांख्यिकीय अध्ययनों के लिए सामाजिक भौतिकी या सोशल फिजिक्स शब्द का प्रयोग कर लिया था। इसीलिए कॉम्टे ने सामाजिक भौतिकी नाम को छोड़कर लैटिन शब्द सोसियस और ग्रीक शब्द लोगस की संधि के आधार पर सामजिक चिन्तन के लिए सोशियोलोजी शब्द का प्रयोग किया। समाजशास्त्र को परिभाषित करते हु कॉम्टे ने लिखा है कि समाजशास्त्र सामाजिक व्यवस्था और प्रगति का विज्ञान है। इस परिभाषा के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कॉम्टे समाजशास्त्र को सामाजिक व्यवस्था और उसमें होने वाली प्रगति कि आधार पर स्पष्ट करना चाहते थे। दूसरे शब्दों में यह भी कहा था कि कॉम्टे के लिए समाजशास्त्र का अध्ययन क्षेत्र सामाजिक व्यवस्था के अर्न्तगत आने वाले तत्वों या अंगों और उनकी प्रगति तक सीमित है। समाजशास्त्र के उस अध्ययन क्षेत्र की व्याख्या नहीं की जा सकती जो कॉम्टे के चिन्तन से स्पष्ट होता है।

अतः प्रस्तुत विवेचन में उन पक्षों को संक्षेप में स्पष्ट करना आवश्यक है जो कॉम्टे मतानुसार समाजशास्त्र के अध्ययन क्षेत्र से सम्बद्ध है। कॉम्टे ने अपनी पुस्तक पाजिटिव फिलासफी में समाजशास्त्र के अध्ययन क्षेत्र की व्याख्या करते हुए लिखा है कि “एक नये विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र मानवीय बौद्धिकता की सम्पूर्णता तथा समय अथवा काल के परिप्रेक्ष्य में उससे उत्पन्न होने वाली सामाजिक क्रियाओं का अध्ययन है।”

कॉम्टे के इस कथन से स्पष्ट होता है कि व्यक्तियों की बौद्धिकता के विभिन्न पक्ष और व्यक्ति के जीवन के विभिन्न पक्षों से जुड़ी सामाजिक क्रियाएं ही समाजशास्त्र के अध्ययन की वास्तविकता विषय वस्तु है। कॉम्टे के इस विचार की सराहना करते हुए मैक्स वेबर ने लिखा है कि ऑगस्ट कॉम्टे ही वे प्रथम विचारक है जिन्होनें समाजशास्त्र को मानवीय क्रियाओं के एकमात्र विज्ञान के रूप में स्वीकार किया है। अपने विचारों को बाद में और अधिक स्पष्ट करते हुए कॉम्टे ने लिखा कि समाजशास्त्र मात्र मानवीय बौद्धिकता के अध्ययन का ही विज्ञान नहीं है बल्कि यह मानवीय मस्तिक द्वारा संचालित क्रियाओं या गतिविधियों के संचित परिणामों का अध्ययन है। इस कथन से पुनः यह स्पष्ट हो जाता है कि कॉम्टे समाजशास्त्र को मानवीय क्रियाओं के विज्ञान के रूप में विकसित करना चाहते थे।

समाजशास्त्र के अध्ययन क्षेत्र को अधिक विकसित करते हुए कॉम्टे ने मस्तिष्क और समाज के उद्विकास सम्बन्धी अध्ययन को भी समाजशास्त्र के अध्ययन क्षेत्र में समाहित किया। इस सम्बन्ध में समाजशास्त्र की भूमिका को स्पष्ट करते हुए कॉम्टे ने लिखा “समाजशास्त्र का प्राथमिक लक्ष्य मानव प्रजाति के उद्भव अवस्थाओं से लेकर वर्तमान यूरोपीय सभ्यता के विकास की अवस्थाओं की खोज करना है।” इस कथन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कॉम्टे ने समाजशास्त्र के अध्ययन क्षेत्र में समाज के विकास के अध्ययन को भी समाहित किया है। इसके अतिरिक्त समाजशास्त्र की प्रकृति के सन्दर्भ में कॉम्टे ने जो विचार प्रस्तुत किये उन्हें कॉम्टे द्वारा विश्लेषित कुछ अन्य अवधारणाओं की सहायता से समझा जा सकता है।

ऑगस्ट कॉम्टे ने अपनी पुस्तक पाजिटिव फिलॉसफी में समाज की सावयवी संरचना को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। तत्कालीन दशाओं में इंग्लैण्ड में उपयोगितावादी सिद्धान्त (Doctrine of Utilitarianism) के द्वारा जिस व्यक्तिवाद (Individualism) को अत्यधिक महत्व दिया जा रहा था, उसका विरोध करते हुए कॉम्टे ने समूहवादी दर्शन (Social Philosophy) को स्थापित किया। रुसो (Roussean) और सेण्ट साइमन (Saint Simon ) ने जिस समूहवादी विचारधारा का आरम्भ किया था, कॉम्टे ने उसे विकसित करते हुए सामाजिक चेतना (Social Consensus) की व्याख्या के आधार पर समाज की संरचना को स्पष्ट किया । उन्होंने बतलाया कि समाज का निर्माण क्योंकि सामाजिक चेतना के आधार पर होता है, इसीलिए समाज एक सामूहिक सावयव है।

कॉम्टे ने समाजशास्त्र और जीवशास्त्र के बीच अनेक समानताओं का उल्लेख किया। इस सम्बन्ध में टर्नर (Turner) ने लिखा है कि सावयवी शरीर की अवधारणा को कॉम्टे ने समाजशास्त्र और जीवशास्त्र में सामान्य रूप से देखा है।”

कॉम्टे के इन विचारों को सरल शब्दों में समझने के लिए हमें इस व्याख्या में प्रयुक्त शब्दों को सावयवी शरीर की अवधारणा के आधार पर समझना होगा। वास्तव में प्रत्येक जीवित शरीर में बहुत सी सूक्ष्म कोशिकाएं पाई जाती है। ये कोशिकाएं जीवित शरीर की सरलतम संरचना होती है। जीव विज्ञानियों के मतानुसार इन कोशिकाओं में जीवन द्रव्य होता है तथा प्रत्येक कोशिका के अन्दर एक नाभिक पाया जाता है। जीवित शरीर में ये कोशिकाएँ एक निरन्तर क्रमबद्धता में संयोजित होकर तन्तुओं का निर्माण करती है और बहुत से तन्तु मिलकर जीवित शरीर के विभिन्न अंगो का निर्माण करते हैं।

कॉम्टे ने जीव-विज्ञान की उक्त अवधारणा के आधार पर ही सामाजिक सावयव (Social Organism) की व्याख्या करते हुए बतलाया कि परिवार समाज की इकाई है। जिसका सामाजिक सावयव में वही महत्व है जो महत्व जीवित शरीर में कोशिका का होता है। कॉम्टे के मतानुसार समाज के विभिन्न वर्गों अथवा जातियों में बहुत से परिवारों का समावेश होता है। इस प्रकार यही वर्ग तथा जातियाँ समाज के विभिन्न अंगो में पाये जाने वाले तन्तुओं के समान है। सामाजिक सावयव के अंगो की विवेचना करते हुए कॉम्टे ने बतलाया कि किसी समाज से सम्बन्धित विभिन्न नगर अथवा समुदाय ही समाज के अंग है।

सामाजिक सावयव को उपर्युक्त अर्थों में स्पष्ट करने के बाद कॉम्टे ने सामाजिक संरचना के व्याधिकीय पक्ष की भी चर्चा की। कॉम्टे ने बतलाया कि जिस प्रकार व्यक्ति के शरीर या किसी व्यक्ति परीर में कोशिकाएँ कमजोर होकर शरीर के अंगो को कमजोर बना देती हैं, उसी प्रकार परिवारों तथा वर्गों का विघटन भी सामाजिक संरचना के विभिन्न अंगो को कमजोर बनाता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सामाजिक जीवन की छोटी-बड़ी इकाइयों का विघटन ही सामाजिक विघटन का प्रमुख कारण है। इस सम्बन्ध में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि कॉम्टे ने सामाजिक सावयव और जैविक सावयव की समरुपता की चर्चा करने के साथ ही इन दोनों सावयव के बीच पाये जाने वाले अन्तर को भी स्पष्ट किया है।

समाजशास्त्र की उपयोगिता :

जिस तरह से प्रत्येक विषय की एक अपनी उपयोगिता होती है, उसी तरह से समाजशास्त्र की भी अपनी उपयोगिता है। विशेष तौर पर भारत के सन्दर्भ में इसकी उपयोगिता कुछ और भी ज्यादा है। विशेष तौर पर भारत के सन्दर्भ में इसकी उपयोगिता कुछ और भी ज्यादा है। भारतीय समाज के लगभग तमाम क्षेत्रों में विभिन्नताएँ देखी जा सकती हैं, चाहे वह धार्मिक हो या आर्थिक, सामाजिक हो या सांस्कृतिक । दूसरी ओर, हम यह भी पाते हैं कि परम्परावादी मूल्यों से हमारा नाता अब भी बना हुआ है, जबकि कुछ शहरी समुदायों में आधुनिक मूल्यों को अधिक-से-अधिक लोग स्वीकार कर रहे हैं। ऐसी समस्याओं को समझने के लिए समाजशास्त्र की काफी उपयोगी है।

इसके अतिरिक्त भारतीय समाज में अनेक प्रकार की समस्याएँ भी देखी जा सकती हैं, जैसे जातिवाद, सामाजिक असमानता, घूसखोरी, अपराध, जनसंख्या की समस्या, गरीबी, स्त्रियों की निम्न सामाजिक स्थिति एवं उनका शोषण आदि । इन समस्याओं के निदान के लिए हमें उन्हें समझना होगा और इन्हें समझने के लिए सर्वप्रथम हमें अपने समाज को गहराई से समझना होगा। इस क्षेत्र में भी समाजशास्त्र हमारी सहायता कर सकता है।

समाजशास्त्र निम्नलिखित क्षेत्रों में उपयोगी साबित हो सकता है-

1. सामाजिक समस्याओं के निराकरण में सहायक

यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि हमारा समाज आज समस्याओं से घिरा हुआ है। भ्रष्टाचार भिक्षावृति, वेश्यावृति, जातिवाद, बेकारी, गरीबी, दलितों एवं पिछड़ी जाति के साथ अन्याय, बाल अपराध, राजनीतिक अपराध, ग्रामीणों की समस्याएँ आदि। इन समस्याओं के सामाजिक कारणों की खोज करके हम इसकी निष्पक्ष व्याख्या कर सकते हैं।

2. राष्ट्रीय एकता में सहायक

भारत विभिन्नताओं का देश है, भाषा, धर्म, क्षेत्र आदि के आधार पर हम बँटे हुए हैं। इस कारण हमेशा ही हमारे समाज में आन्दोलन, दंगे आदि होते रहते हैं। ये समस्याएँ एकता में बाधक हैं। इन विभिन्नताओं का वैज्ञानिक अध्ययन करके हम बहुत सी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। इसमें समाजशास्त्र अत्यन्त उपयोगी है।

3. नई परिस्थितियों से समंजन कराने में सहायक

वर्तमान युग परिवर्तनशीलता का युग है। प्रत्येक दिन नई-नई परिस्थितियाँ आती हैं, जहाँ समायोजन में समस्या उत्पन्न हो सकती है। वर्तमान परिस्थितियों के विश्लेषण के आधार पर समाजशास्त्र भविष्य की परिस्थिति का एक स्वरुप पैदा करता है। ऐसे स्वरूपों से परिचित होकर उन नई परिस्थितियों के लिए तैयार होते हैं।

4. ग्रामीण उत्थान में सहायक

भारत की अन्य समस्याओं में ग्रामीण जीवन से सम्बद्ध समस्याएँ अत्यन्त विकराल रूप लेती जा रही हैं। जनस्वास्थ, निरक्षरता, भूमिहीनों की समस्या, तेजी से बढ़ती हुई आबादी आदि कुछ ऐसी समस्याएँ हैं जिनका शीघ्र निवारण अत्यन्त आवश्यक है। समाजशास्त्रीय अध्ययन इस क्षेत्र में उपयोगी हो सकता है।

5. जनजातियों की समस्याओं को हल करने में उपयोगी

जनजातियों की जीवनशैली बिल्कुल अलग है, अतः उनकी समस्याएँ भी कुछ अलग प्रकार की होती है। सरकार उनके विकास के लिए अनेक सुविधाएँ देती है, फिर भी इच्छित परिणाम सामने नहीं आ पा रहे हैं। इसके पीछे कौन से कारण हैं? उनकी समस्याओं की क्या प्रकृति है? इस तरह के कई ऐसे प्रश्न है जिनका उत्तर हमें समाजशास्त्रीय विश्लेषण के द्वारा हो सकता है।

6. जनसंख्या सम्बन्धी समस्याओं को समझने में उपयोगी

आज हमारे देश की बढ़ती हुई जनसंख्या सम्भवतः सबसे भयंकर समस्या है। इसे कम करने के लिए सरकार ने परिवार नियोजन कार्यक्रम को चलाया है, परन्तु इच्छित परिणाम देखने को नहीं मिलता। जन्म निरोध उपायों को अपनाने में कौन-कौन सी बाधाएँ हैं, इसकी सही जानकारी हमें तभी हो सकती है, जब हम समाज की मान्यताओं, मूल्यों, परम्पराओं आदि को समझने का प्रयास करेंगे। इस सन्दर्भ में हमें समाजशास्त्र से काफी सहायता मिलती है।

7. आर्थिक विकास के कार्यान्वयन में सहायक

विकास एक बहुआयामी प्रक्रिया है, जिसका समाजशास्त्रीय पहलू काफी महत्वपूर्ण है। विकास कार्यक्रमों के सफल कार्यान्वयन तथा समय-समय पर उनके मूल्याकंन में समाजशास्त्रीयगण काफी महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।

ऊपर के तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि समाजशास्त्र की उपयोगिता काफी व्यापक है। इसके अध्ययन से न केवल हमें अपने समाज की जानकारी होती है, बल्कि अन्य समाजों की भी। ऊपर दी गई जिन समस्याओं की चर्चा हुई है, उनका राजनीतिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक पहलू भी है। अतः हमें यह नहीं मानना चाहिए, कि इनका केवल समाजशास्त्रीय पहलू भी है।

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