# अरस्तू के क्रान्ति संबंधी विचार क्या हैं? | अरस्तू का क्रांति सिद्धांत | Aristotle’s Revolutionary Thoughts

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अरस्तू के क्रान्ति सम्बन्धी विचार :

अरस्तू ने अपनी पुस्तक ‘पॉलिटिक्स‘ के सातवें भाग में राज्य क्रान्ति और संविधान परिवर्तन सम्बन्धी बातों की विवेचना की है। उसने क्रान्ति के कारणों, उनके रोकने के उपायों आदि का वर्णन किया है। अरस्तू ने संविधान तथा शासन-सत्ता में होने वाले प्रत्येक परिवर्तन को क्रान्ति कहा है। उसकी क्रान्ति प्रत्येक परिवर्तन का नाम है।

अरस्तू के मतानुसार क्रान्ति :

अरस्तू के मतानुसार क्रान्ति के निम्नलिखित तीन रूप हैं –

1. शासन-व्यवस्था का परिवर्तन

पहले से स्थापित शासन-व्यवस्था के स्थान पर दूसरी शासन-व्यवस्था का आ जाना क्रान्ति है।

2. रूप सुधार

अरस्तू एक शासन-व्यवस्था के रूप सुधार को भी क्रान्ति कहता है। किसी शासन-व्यवस्था या संविधान में कमीवेशी कर देना, उसमें घटा-बढ़ी कर देना भी क्रान्ति ही है। उदाहरण के लिए, जनतन्त्र के वर्तमान स्वरूप को कम अथवा अधिक करने की प्रक्रिया को भी क्रान्ति कहा गया है।

3. पदाधिकारियों का परिवर्तन

शासन के मूल रूप में परिवर्तन किये बिना शासकीय पदाधिकारियों का भी परिवर्तन किया जाता है, तो उसे भी अरस्तू क्रान्ति कहता है।

अरस्तू ने अपने जीवनकाल में यूनान में अस्थिरता तथा परिवर्तनशीलता के दर्शन किये थे। निरन्तर क्रान्तियों के कारण यूनान के शासन में बहुत पतन हो गया था। यूनान का प्रत्येक नगर-राज्य विभिन्न शासन प्रणालियों का परीक्षण कर चुका था। धनतन्त्र तथा जनमत अस्थिर तथा असन्तुलित था। अरस्तू ने अपनी ‘पॉलिटिक्स‘ पुस्तक में इसका विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है, तथा बताया है कि इसके क्या कारण हैं और उन्हें कैसे दूर किया जा सकता है?

क्रान्ति के विशेष कारण :

क्रान्ति के विशेष कारण निम्नलिखित हैं-

1. घृणा

जब समाज का धनिक वर्ग गरीबों से घृणा करने लगता है और उन्हें नीची दृष्टि से देखा जाता है तो स्वाभाविक रूप से क्रान्ति के लिए जमीन तैयार होती है।

2. भय

भय व्यक्तियों को दो प्रकार से क्रान्ति के लिए प्रेरित करता है। पहले, वे जो अपराध से बचना चाहते हैं और दूसरे, वे जो अन्याय का जवाब देना चाहते हैं।

3. प्रमाद और आलस्य

जब प्रमाद और आलस्य के कारण जनता अयोग्य व्यक्तियों को शासनारूढ़ कर देती है। वे सत्ता के प्रति निष्ठावान नहीं रहते हैं और शक्ति संचय तथा स्वार्थपूर्ति में लगे रहते हैं, तो क्रान्ति का उदय होता है।

4. अनुचित सम्मान

जब व्यक्तियों को अनुचित सम्मान प्राप्त होता है, तब भी क्रान्ति जन्म लेती है।

5. उच्चवर्गीय षड्यन्त्र

जब उच्च वर्ग अन्य जनों को नीचा और हीन समझता है और स्वयं सत्ता प्राप्ति के षड्यन्त्र में लग जाता है, तो इस प्रकार संघर्ष बढ़ जाता है और क्रान्ति पनपती है।

6. विजातीय तत्त्व

जब राज्य में विकास करने वाले विजातीय तत्त्व समुदाय के साथ अपना भावात्मक सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाते, तो वे बाहरी तत्त्वों से साठ-गाँठ करके क्रान्ति पैदा करते हैं।

7. छोटी-छोटी घटनाएँ

कभी-कभी छोटी-छोटी घटनाएँ भी क्रान्ति को जन्म देती हैं। एक बार सादूराकूज में कुलीनों के प्रदाय के कारण क्रान्ति हो गयी थी।

8. सन्तुलित व्यवस्था

व्यवस्था का अधिक सन्तुलन भी क्रान्ति को पनपाता है। जब सामाजिक वर्गों में सन्तुलन रहता है तो उनमें परस्पर प्रतियोगिता विकसित होती रहती है। उनमें सत्ता हथियाने की होड़ लगती है, जिसमें संघर्ष होता है।

विभिन्न प्रकार के राज्यों में क्रान्ति के कारण :

अरस्तू ने सामान्य क्रान्ति के कारणों का उल्लेख करने के बाद विभिन्न राज्यों में क्रान्ति के कारण बताये हैं, जोकि निम्नलिखित प्रकार से हैं –

1. प्रजातन्त्र में क्रान्ति

जब प्रजातन्त्र में नेतागण सीमा से अधिक हो जाते हैं तो प्रजातन्त्र में क्रान्ति समीप दिखाई देने लगती है। जब जनता के प्रतिनिधि धनिकों के हितों के विरुद्ध हो जाते हैं तो धनिक वर्ग अपने स्वार्थों की रक्षा के लिए क्रान्ति कर बैठता। अरस्तू ने इस प्रकार की क्रान्ति के उदाहरण के लिए, ‘क्रास‘ का नाम बताया है।

2. धनतन्त्र में क्रान्ति

धनतन्त्र क्रान्ति के कारण प्रजातन्त्र से भिन्न होता है। जब एक खास सामन्त का उदय होता है, जब वह अपनी सेना रखता है और युद्धकाल या शक्तिकाल (कभी भी) में अपनी सैनिक-शक्ति के आधार पर जनता की सहायता लेकर शासन पर अधिकार कर लेता है। सेना के बल पर इस प्रकार का शासन आतताई कहलाता है। इस शासन में नये और पुराने सामन्तों में जब युद्ध होता है, तो कभी-कभी सेनापति जो शक्ति में दोनों प्रकार के मालिकों से अधिक हो जाता है, दोनों की सत्ता छीनकर सैनिक शासन स्थापित कर लेता है।

3. कुलीनतन्त्र में क्रान्ति

कुलीनतन्त्र में क्रान्ति के कारण बताते हुए अरस्तू का कहना है कि शिक्षित वर्ग को अपनी योग्यता के आधार पर कुलीनतन्त्र द्वारा कोई उचित पद या अधिकार प्राप्त नहीं होता है, तो वह क्रान्ति कर देते हैं।

4. स्वेच्छाचारी राजतन्त्र में क्रान्ति

राज्य का सर्वेसर्वा एक राजा हो या राज्य का पूर्ण सत्ताधारी एक अधिनायक हो, दोनों स्वभाव से तानाशाह होते हैं। दोनों में क्रान्ति का कारण भी समान होता है। शासन की निरंकुशता से तंग आकर जनता क्रान्ति कर बैठती है या फिर कोई दूसरा शासक अपने बाहुबल से एक राजा को उतारकर स्वयं राजा बन बैठता है।

क्रान्ति को रोकने के लिए अरस्तू के सुझाव :

1. कानून के प्रति आस्था

राज्य के नागरिकों को शिक्षा इस प्रकार की मिलनी चाहिए, जिससे वे कानून में आस्था रखकर उसके उल्लंघन का साहस न कर सकें। नागरिक क्रान्तिकारियों का साथ न दें तो क्रान्ति स्वयं ही असफल हो जायेगी।

2. शासक वर्ग पर नियन्त्रण

योग्य तथा जागरूक शासक क्रान्ति के शुरू होने के पहले ही उसे नष्ट कर देता है। शासक वर्ग को जनता से सम्पर्क स्थापित करके उसके भ्रम को दूर करना चाहिए। इस प्रकार जनहित को ध्यान में रखने वाला अधिकारी लोकप्रिय होकर क्रान्ति नहीं होने देगा।

3. महत्त्वाकांक्षी नेताओं की देखभाल

कुछ महत्त्वाकांक्षी नेताओं के आचरण पर ठीक प्रकार से नजर रखी जाये, उनका सम्पर्क जनता से बढ़ने दिया जाये, उनके झूठे प्रचार का खण्डन किया जाये। इस प्रकार सावधान रहकर क्रान्ति को रोका जा सकता है।

4. राज्याधिकारियों के शीघ्र तबादले

अरस्तू के अनुसार किसी भी राज्याधिकारी को एक स्थान पर 6 माह से अधिक न रुकने दिया जाये, क्योंकि अधिक समय तक एक स्थान पर रहने से वह अपना प्रभुत्व स्थापित करने व अवसर पाकर सत्ता को उलटने का षड्यन्त्र करता है, क्रान्ति को जन्म देता है। इसलिए एक अधिकारी न एक स्थान पर जम पायेगा और न क्रान्ति का नेता बन सकेगा।

5. दो वर्गों का शासन

अरस्तू का ऐसा विश्वास था कि धनी व निर्धनों के बराबर-बराबर प्रतिनिधि लेकर शासन-कार्य उन्हें सौंप देना चाहिए। मध्यम वर्ग का शासन भी क्रान्ति को होने से रोकता है।

6. नागरिकों को चेतावनियाँ

अरस्तू के अनुसार जनता को नये-नये खतरों की बात बताकर, भविष्य के संकटों से आतंकित करें तो जनता अपनी रक्षा के विषय में सोचेगी तथा उसके मस्तिष्क में क्रान्ति के बीज ही नहीं जमेंगे।

7. भ्रष्टाचार तथा अत्याचार की समाप्ति

शासक वर्ग पदलिप्सा, स्वार्थपरता और लाभ की प्रवृत्ति को छोड़कर भ्रष्टाचार और अत्याचार से दूर रहें तो क्रान्ति का होना बहुत कठिन हो जायेगा। समाज में सुव्यवस्था बनी रहेगी और क्रान्ति का भय दूर हो जायेगा।

8. निर्धनों के हितों की रक्षा

यदि धनिक, निर्धनों का शोषण न करें और शासक वर्ग सदाचारी, ईमानदार तथा विश्वासपात्र रहें तो क्रान्तिकारियों के राज्य पैर नहीं जम सकते हैं।

9. गुप्तचर विभाग

राजा को अपने शत्रुओं का पता गुप्तचरों से लगाना चाहिए। जनता की दशा का ज्ञान भी वह गुप्तचरों से करता रहे और जनता के कष्टों को दूर करने का प्रबन्ध भी करता रहे। यदि राजा जनता को भौतिक सुखों से वंचित नहीं रखेगा तो जनता में क्रान्ति की भावना दूर हो जायेगी।

10. फूट का बीज बोना

यदि जनता राजा के विरुद्ध हो जाये तो राजा को जनता में फूट का बीज बो देना चाहिए। भारत में अंग्रेजों ने इस फूट के कारण ही काफी समय तक निरंकुश राज्य स्थापित किये रखा।

11. अन्य उपाय

राजा को जनता के मस्तिष्क को किसी-न-किसी काम में जमाये रखना चाहिए। शासक जनता की धार्मिक भावना को उभारता रहे और ललित कलाओं का विकास करता रहे तो जनता क्रान्ति से दूर रहेगी। अचानक संकट आ जाने पर भी राजा को धैर्य नहीं खोना चाहिए।

12. शिक्षा

अरस्तू का कहना है कि शासन के अनुरूप जनता को शिक्षा मिलनी चाहिए।

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