महालवाड़ी भू-राजस्व प्रणाली :
पृष्ठभूमि :
उत्तर-पश्चिमी प्रान्त तथा अवध जिसे कि वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश कहा जाता है अंग्रेजों के अधीन शनैः-शनैः आया था। 1801 ई. में अवध के नवाब द्वारा अभ्यर्पित जिले (इलाहाबाद एवं उसके आस-पास के क्षेत्र) कम्पनी को प्रदत्त कर दिए गए। यमुना एवं गंगा के मध्य का भू-भाग द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध के पश्चात् कम्पनी के हाथों में आया था। 1817-18 ई. में होने वाले अन्तिम आंग्ल-मराठा युद्ध के पश्चात् तो लॉर्ड हैस्टिग्ज ने उत्तरी भारत के अधिकांश क्षेत्र प्राप्त कर लिए थे।
उत्तर-पश्चिमी प्रान्त एवं अवध में (इसमें पंजाब व मध्य प्रदेश भी सम्मिलित था) भू-कर व्यवस्था स्थापित करने के सन्दर्भ में आयुक्तों के बोर्ड (Board of Commissioners) के सचिव मैकेन्जी ने 1819 ई. में यह सुझाव दिया कि भूमि का सर्वेक्षण किया जाय, भूमि में लोगों के अधिकारों का लेखा तैयार किया जाए एवं यह निश्चित किया जाय कि भूमि-कर कितना लेना है? यह भी निश्चित किया जाना चाहिए कि भूमि-कर की व्यवस्था क्या हो?
1822 ई. के रेग्यूलेशन द्वारा मैकेन्जी के इस सुझाव को कानूनी रूप देते हुए भूभाटक (Land rent) का 30 प्रतिशत निश्चित कर दिया गया। यह भी घोषित किया गया कि यह कर जमींदार कोष में जमा करेंगे। जहाँ जमींदार न थे वहाँ इसे ग्राम सभा जमा करने हेतु उत्तरदायी बनाई गई किन्तु यह व्यवस्था शीघ्र ही असफल हो गई। अतः 1835 ई. में रेग्यूलेशन एक्ट द्वारा भूमि की उपज तथा भूमि भाटक का सही अनुमान लगाने की विधि को सरल किया गया। खेतों के मानचित्र व पंजियाँ बनाई गईं और नई योजना अस्तित्व में आई जो मार्टिन बर्ड के निरीक्षण में आरम्भ हुई।
व्यवस्था :
मार्टिन बर्ड जिनकी देख-रेख में नई व्यवस्था प्रारम्भ हुई उत्तरी भारत में भूमि-कर व्यवस्था के प्रवर्तक (Father of the Land Settlements in Northern India) के नाम से जाने जाते हैं। इस नई व्यवस्था के अन्तर्गत सरकार ने हमेशा के लिए नहीं बल्कि कुछ स्थानों पर 30 वर्ष के लिए और कुछ अन्य स्थानों पर 20 वर्ष के लिए राजस्व निर्धारित किया।
स्थायी समझौते की भांति यह समझौता अलग-अलग जमींदारों के साथ नहीं बल्कि सारे गाँव के साथ किया गया। इस व्यवस्था के अनुसार सारा गाँव सम्मिलित रूप से और गाँव का प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग रूप से सारे गाँव के लगान की अदायगी के लिए उत्तरदायी बन गया।
भूमि समस्त ग्राम सभा की सम्मिलित रूप से होती थी जिसे भागीदारों का समूह (Body of Co-sharers) कहते थे। इस व्यवस्था के अन्तर्गत गाँव की ओर से गाँव का नम्बरदार गाँव को निश्चित लगान देने के सम्बन्ध में हस्ताक्षर करता था। गाँव के सम्मिलित लगान में गाँव का प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी जोतों के अनुसार राशि देता था। अतः गाँव का प्रत्येक व्यक्ति जब तक अपनी जमीन का लगान देता रहता था तब तक वह अपनी जमीन का मालिक बना रहता था यदि कोई व्यक्ति अपनी भूमि को छोड़ देता था तो ग्राम सभा इस भूमि को संभाल लेती थी। इस बन्दोबस्त में आय का 3/4 भाग सरकार का होता था। जहाँ तक भाटक के प्रतिशत का प्रश्न था इसकी अधिकता के कारण कृषक वर्ग में असन्तोष बढ़ता ही गया।
स्वरुप :
महालवाड़ी व्यवस्था अनेक वर्षों के अध्ययन और विचार-विमर्श के बाद लागू की गयी थी। इसके द्वारा यह कहा गया था कि महाल अथवा गाँव की समस्त भूमि का बन्दोबस्त किया जायेगा और सामान्यतः एक ही व्यक्ति के नाम से उस महाल की भूमि व्यवस्था लागू होगी। इसके साथ ही भागीदारों के हितों की भी रक्षा की गयी जिनके साथ अलग से बन्दोबस्त नहीं किया गया। यद्यपि भू-राजस्व की अदायगी के लिए सदर मालगुजार ही जिम्मेदार था किन्तु सहभागीदार यदि आवश्यक समझे तो अपने हिस्सों को अलग करा सकता था। सदर मालगुजार के सन्दर्भ में निर्णय जिला कलेक्टर की उपस्थिति में ग्राम समुदाय द्वारा किये जाने की व्यवस्था थी। अन्य जो सहभागीदार थे वे भी अपनी भूमि के स्वामी माने गये थे और जब तक वे सदर मालगुजार के माध्यम से अपने हिस्सों की अदायगी करते रहेंगे तब तक उनको कोई भी अपदस्थ नहीं कर सकता किन्तु यह भी प्रावधान था कि राजस्व की अदायगी में बकाये के लिए यदि सदर मालगुजार दोषी होगा तो इसका परिणाम सहभागीदारों को नहीं उठाना होगा, जिसका नाम सरकारी अभिलेखों में नहीं दर्ज होगा। ऐसी स्थिति में सहभागीदार अपने हिस्सों की भूमि का बन्दोबस्त कलेक्टर के माध्यम से प्राप्त कर सकता था। इस प्रकार ऐसे सहभागीदार जिनके साथ बन्दोबस्त उनके नाम से नहीं हो सका था, भविष्य में वे चाहें तो अवश्य अपना नाम पंजीकृत करा सकते थे और अपने लिए अलग से भूस्वामित्व के अधिकार की सरकार से सम्पुष्टि करा सकते थे।
महालवाड़ी बन्दोबस्त 30 वर्षों की समयावधि का था और उसके उपरान्त इसमें आवश्यक संशोधनों के साथ फिर से बन्दोबस्त का अधिकार सरकार ने अपने पास सुरक्षित रखा था।
महालवाड़ी भू-राजस्व प्रणाली की विशेषताएं :
भारत के अंग्रेजों के अधीन प्रदेशों में एक भिन्न भू-राजस्व व्यवस्था को लागू किया गया जिसे महालवाड़ी प्रणाली के नाम से पुकारा गया क्योंकि इन प्रदेशों में जमींदारों तथा ग्राम पंचायतों के अधीन भू-भाग को महाल कहते थे और सरकार ने प्रत्येक महाल के आधार पर भू-राजस्व निर्धारित किया था, अतः इस प्रणाली को महालवारी कहा गया। कलेक्टर्स ने प्रत्येक महाल के किराये का 83% भाग भू-राजस्व निश्चित कर जमींदारों तथा ग्राम पंचायतों को भूमि आवंटित की। इस निर्धारित भू-राजस्व में वृद्धि करने का प्रावधान भी रखा गया, किन्तु जब जमींदार अथवा ग्राम पंचायत का शुद्ध लाभ भू-राजस्व से 20% से अधिक हो तो राजस्व में वृद्धि की जा सकती थी। यह व्यवस्था 1882 ई. में उत्तर भारत के भूमि अधिनियम द्वारा लागू की गई।
कृषक तथा जमींदारों के मध्य राजस्व सम्बन्धी विवादों को निपटाने का अधिकार भी कलेक्टर्स को दिया गया, किन्तु उसकी अपील राजस्व मण्डल में की जा सकती थी। यह व्यवस्था गंगा की घाटी, उत्तर-पश्चिमी प्रान्तों, मध्य भारत के हिस्सों तथा पंजाब में लागू की गई।
महालवाड़ी भू-राजस्व प्रणाली के गुण-दोष :
महालवाड़ी भू-राजस्व प्रणाली में जमींदारों के अतिरिक्त ग्राम पंचायतों को भी महत्व दिया गया जो अन्य भू-राजस्व प्रणालियों में नहीं था। इस प्रणाली में यद्यपि भू-राजस्व की राशि को न्यायोचित आधार देने की घोषणा की गई किन्तु कलेक्टरों द्वारा भू-राजस्व निर्धारण का कोई ऐसा आधार प्रयोग में नहीं लाया गया जिससे कृषकों को राहत मिल सके। फलतः 83% भू-राजस्व की दर से जमींदार तथा कृषक दोनों निर्धन होते गये।
रोमेश दत्त के शब्दों में, “उत्तर भारत के भूमि अधिनियम के कारण लोगों का घनी होना तथा उनकी आर्थिक दशा में सुधार किया जाना असम्भव हो गया और इसके द्वारा भू-राजस्व की भावी सीमा भी निश्चित नहीं की गई जबकि प्रथम भू-राजस्व व्यवस्था की अवधि समाप्त होकर अगली व्यवस्था आरम्भ हो गई। अन्त में इस प्रणाली के दोषों के कारण 1833 ई. में बैंटिक द्वारा नवां अधिनियम पारित कर भू-राजस्व की दर 1/3 भाग तय की गई तथा यह व्यवस्था 30 वर्ष की लम्बी अवधि के लिए की गई। राबर्ट मार्टिन बर्ड ने इस नई व्यवस्था के अनुसार महालवाड़ी भू-राजस्व प्रणाली को संशोधित रूप में लागू किया। बाद में यह भू-राजस्व सन् 1855 ई. के सहारनपुर नियम के के अनुसार भूमि के किराये का 1/2 भाग कर दिया गया।”
देशी रियासतें :
जहाँ तक भारतीय देशी रियासतों का प्रश्न है, उनके लिये किसी पृथक् भू-राजस्व व्यवस्था का निर्धारण नहीं किया गया था। भू-राजस्व का निर्धारण क्षेत्रों के आधार पर किया गया था। रियासत जिस क्षेत्र में स्थित होती थी उस पर उसी क्षेत्र की भू-राजस्व प्रणाली लागू होती थी। उदाहरणार्थ, पूर्वी भारत में स्थित बर्दवान में स्थायी बन्दोबस्त लागू था इसी प्रकार अवध रियासत के विभिन्न क्षेत्रों (इटावा, मुरादाबाद, कानपुर, बरेली, गोरखपुर, फर्रुखाबाद, इलाहाबाद) में महालवाड़ी बन्दोबस्त किया गया था।
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