# रैयतवाड़ी भू-राजस्व प्रणाली : कारण, विशेषताएं, गुण एवं दोष | Rayatwari System In British Period

रैयतवाड़ी बंदोबस्त व्यवस्था : भू-राजस्व प्रणाली

मद्रास के बड़ा महल जिले में सर्वप्रथम 1792 ई. में रैयतवाड़ी भू-राजस्व प्रणाली कैप्टन रीड तथा टॉमस मुनरो द्वारा लागू की गई। वस्तुतः मुनरो ही इस प्रणाली का प्रवर्तक था। मुनरो ने अपनी कार्यावली में 1824 ई. में इस प्रणाली का आधार प्रस्तुत किया। उसने कहा कि रैयत (कृषक) ही अपनी भूमि का वास्तविक स्वामी है, न कि सरकार का मध्यस्थ लोग। रैयत से लिया जाने वाला भू-राजस्व भी स्थायी रूप से निर्धारित होना चाहिए, ताकि भू-राजस्व की अनिश्चितता समाप्त होकर रैयत को अपनी भूमि पर परिश्रम कर उससे लाभ उठाने की प्रेरणा मिले। इसके अतिरिक्त मुनरो ने कहा कि करदाता की सहमति से भू-राजस्व तय किया जाये, अर्थात् सीधा रैयत से ही भू-राजस्व का अनुबन्ध किया जाए।

रैयतवाड़ी भू-राजस्व प्रणाली के अन्तर्गत अंग्रेजों ने भू-राजस्व का निर्धारण कर सीधे रैयत से 30 वर्ष की लम्बी अवधि के लिए अनुबन्ध किया। सर्वप्रथम 1792 ई. में भू-राजस्व कृषि उपज का 1/2 निर्धारित किया गया था जो अत्यधिक था, अतः मुनरो ने 1807 ई. में भू-राजस्व को घटाकर 1/3 निर्धारित करने का प्रस्ताव रखा जो कम्पनी संचालकों द्वारा मान लिया गया। सन् 1820 से 1827 की अवधि में, जब मुनरो मद्रास प्रान्त का गवर्नर रहा, यह प्रणाली मद्रास प्रान्त में सर्वत्र लागू कर दी गई।

रैयतवाड़ी भू-राजस्व प्रणाली लागू करने के कारण :

रैयतवाड़ी भू-राजस्व अपनाने के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

1. जमींदारी व्यवस्था के कारण अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थी।

2. स्थायी बन्दोबस्त के अन्तर्गत कम्पनी को वित्तीय दृष्टि से घाटा रहने लगा था क्योंकि राजस्व का एक हिस्सा जमींदारों को भी देना पड़ता था।

3.कम्पनी जमीन से बढ़ती हुई आय पर भी कोई दावा प्रस्तुत नहीं कर सकती थी क्योंकि लगान अथवा राजस्व में वृद्धि करने के लिए न्यायालय की पूर्व सहमति लेनी आवश्यक थी।

उपर्युक्त कारणों से रीड एवं मुनरो ने उच्च अधिकारियों से सिफारिश की कि बन्दोबस्त सीधे कृषकों (रैयत) के साथ किया जाये। इस प्रकार सर्वप्रथम मद्रास एवं तत्पश्चात् बम्बई में यह व्यवस्था लागू की गई।

रैयतवाड़ी बन्दोबस्त की प्रमुख विशेषताएं :

संक्षेप में, रैयतवाड़ी बन्दोबस्त की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् रूप में बताई जा सकती हैं-

1. यह अनुबन्ध सरकार के द्वारा सीधे कृषकों (रैयत) के साथ किया गया।

2. कृषक को ही भूमि का वास्तविक स्वामी स्वीकार किया गया।

3. भूमि का स्थायी प्रबन्ध नहीं किया गया किन्तु अनिश्चितता दूर करने की दृष्टि से 20-30 वर्षों के लिए निश्चित लगान की व्यवस्था की गई तथा उसके बाद संशोधन का प्रावधान था।

रैयत के साथ भू-राजस्व के निर्धारण का कार्य जिलाधीशों (Collectors) को सौंपा गया था जिसे अपने जिले के लगभग 15,00,000 रैयत (कृषकों) से अनुबन्ध करना था।

रैयतवाड़ी भू-राजस्व प्रणाली के गुण :

इस प्रणाली से निम्नांकित लाभ हुए-

1. भूमि पर रैयत अर्थात् कृषक का स्वामित्व मानते हुए भू-राजस्व का अनुबन्ध रैयत से किया जाना तथा मध्यस्थ का न होना, इस प्रणाली की विशेषता है जो सिद्धान्ततः उचित है। इसके कारण जब तक रैयत निर्धारित भू-राजस्व अदा करता रहा, उसे अपनी भूमि से बेदखल नहीं किया गया।

2. भू-राजस्व देते रहने तक रैयत का भूमि पर अधिकार बनाए रखने से इस प्रणाली में कुछ स्थायित्व आया और वह परिश्रम द्वारा कृषक को उन्नत बनाने के लिए प्रेरित हुआ।

3. यद्यपि भू-राजस्व की दर काफी ऊँची थी किन्तु इसका निर्धारण लम्बी अवधि के लिए स्थायी रूप से किया गया था, अतः बार-बार जाँच-पड़ताल द्वारा इसकी वृद्धि होने की चिन्ता से रैयत को राहत मिली।

4. भू-राजस्व का निर्धारण ग्राम स्तर पर न कर प्रत्येक खेत की उपज के आधार पर किया गया जिसके फलस्वरूप भूमि की उर्वरा शक्ति के अनुरूप भूमि कर देना चर्चित है।

5. इस प्रणाली के अनुसार ब्रिटिश सरकार ने यह सिद्धान्त स्वीकार किया कि भूमि के किराये की राशि पर नहीं, बल्कि इसके एक अंश पर भू-राजस्व के रूप में सरकार का अधिकार होना चाहिए।

रैयतवाड़ी भू-राजस्व प्रणाली के दोष :

सिद्धान्त रूप से उपर्युक्त गुण होते हुए भी इस प्रणाली में निम्नांकित दोष थे-

1. यद्यपि मुनरो के प्रयास से इस प्रणाली में भू-राजस्व 1/2 से घटाकर 1/3 कर दिया गया किन्तु फिर भी यह काफी ऊँची धनराशि थी जो रैयत की सामर्थ्य से बाहर थी। फलतः रैयत क्रमशः निर्धन होते गये।

2. यद्यपि 30 वर्ष की लम्बी अवधि तक अनुबन्ध किये जाने से रैयत को कुछ राहत मिली किन्तु भू-राजस्व में स्थायित्व नहीं आया। भू-राजस्व में वृद्धि होने के भय से रैयत को अपनी भूमि पर अधिक परिश्रम करके लाभान्वित होने की प्रेरणा नहीं मिली।

3. इस प्रणाली में भू-राजस्व के निर्धारण एवं उसकी वसूली में ग्राम पंचायतों की सर्वथा उपेक्षा की गई जिसके कारण सरकारी कर्मचारियों द्वारा भू-राजस्व वसूल करते समय रैयत पर अत्याचार किए गए तथा उसके परिणामों का आधार भी न्यायोचित नहीं था क्योंकि रैयत से कृषि-उपज के सम्बन्ध में नहीं पूछा गया।

4. भू-राजस्व के कारण रैयत निर्धन होते गए और वे अकाल का सामना करने में असमर्थ रहे। मोटे रूप से रैयतवाड़ी प्रणाली के अन्तर्गत ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने जमींदारों को नहीं बल्कि मीरासदारों (अर्थात् ग्राम समुदायों के उन सदस्यों को जो दाय योग्य हिस्सों के मालिक थे) और किसानों के उन सभी प्रवर्गों को वैध भू-स्वामियों के रूप में मान्यता प्रदान की जिन्हें मीरासदारों के रूप में वहीं अधिकार तो प्राप्त नहीं थे, लेकिन जो राज्य भू-राजस्व सीधे अदा करते थे। अंग्रेजों के आगमन के पहले भी कुछ इलाकों में कई मीरासदार क्षुद्र सामन्तों के रूप में प्रकट हो चुके थे और कभी-कभी तो पूरा का पूरा गाँव एक मीरासदार की शक्ति के अधीन आ जाता था। वह पहले राज्य और फिर अपने फायदे के लिए राजस्व वसूल करता था। इस प्रकार धीरे-धीरे वह एक ऐसे छोटे भू-स्वामी में परिवर्तित हो गया जिसकी जमीन को अंग्रेजों के शासन के अन्तर्गत उसकी निजी सम्पत्ति माना जाने लगा। ग्रामीण आबादी के निम्न संस्तरणों (हाल ही में आये किसानों के अधिकांश दासों और अछूत दस्तकारों) को बहुत कम अधिकार प्राप्त थे। पहले स्थानीय प्रथाओं के अनुसार उन्हें तब तक जमीन से बेदखल नहीं किया जा सकता था जब तक वे अपने दायित्व को पूरा करते रहते थे और ग्राम समुदायों के मुखियाओं को अपनी काश्तों के लिए आवश्यक लगान देते थे। अब अधिकांश मामलों में उन्हें भूमि पर अपने अधिकारों से वंचित कर दिया गया और वे अधिकार रहित काश्तकार या बटाईदार बन गये। उनकी काश्तों पर लगान कभी नहीं बढ़ाया जा सकता था, उन्हें कभी भी बेदखल किया जा सकता था।

इस प्रणाली के अन्तर्गत चरागाहों और परती भूमि को, जिन पर पहले ग्राम समुदाय का अधिकार था, अब राज्य ने जब्त कर लिया। इस प्रकार किसानों को उनमें अपने जानवरों को निःशुल्क चराने और ईंधन के लिए लकड़ी इकट्ठा करने के अवसर से वंचित कर दिया गया। अपने दृष्टिकोण को इस सिद्धान्त पर आधारित करते हुए कि भूमि औपनिवेशिक राज्य की सम्पत्ति है, अंग्रेज अधिकारी रैयतों को अपने ऐसे स्थायी काश्तकार मानने लगे जिनसे मानो उन्हें लगान की कोई भी रकम माँगने अर्थात् उन पर मनमाने राजस्व की माँग थोपने का अधिकार था। व्यवहार में इसका मतलब यह था कि उस अधिकतम रकम को वार्षिक राजस्व निश्चित किया गया जिसे भारतीय किसान अदा कर सकता था, बशर्ते कि परिस्थितियाँ इष्टतम हों। मद्रास राजस्व विभाग के अभिलेखों के अनुसार रैयतवाड़ी स्थापित करने के पहले प्रयासों ने लगभग प्रत्येक मामले में देश में सरकारी वसूली को बहुत बढ़ा दिया। किसानों के लिए इतना अधिक राजस्व देना लगभग असम्भव था और उन पर राजस्व का बकाया निरन्तर बढ़ता गया।

19वीं सदी के दौरान जब-जब राजस्व माँग का पुनरीक्षण किया गया, तब-तब अंग्रेज अधिकारियों को बकाया रकम स्थगित करने और कराधान की रकम को कम करने के लिए बाध्य होना पड़ा। यह रैयतों से माँगे गये अतिशय भूमि करों का परिणाम था। बंगाल में प्रचलित प्रणाली और रैयतवाड़ी प्रणाली में मुख्य अन्तर यह था कि बंगाल में जमीदारों को भू-स्वामी माना जाता था, जबकि रैयतवाड़ी के अन्तर्गत भू-स्वामी मुख्यतया किसान थे। हालांकि दक्षिण भारत में किसानों को अपनी जमीनों का मालिक मान लिया गया था, लेकिन तब तक भूमि अपना मूल्य गंवा चुकी थी। यह ब्रिटिश पूँजीपतियों द्वारा पहले सामन्ती और बाद में अर्द्ध सामन्ती विधियों से औपनिवेशिक मुनाफे निचोड़ने का परिणाम था।

The premier library of general studies, current affairs, educational news with also competitive examination related syllabus.

Related Posts

# इतिहास शिक्षण के शिक्षण सूत्र (Itihas Shikshan ke Shikshan Sutra)

शिक्षण कला में दक्षता प्राप्त करने के लिए विषयवस्तु के विस्तृत ज्ञान के साथ-साथ शिक्षण सिद्धान्तों का ज्ञान होना आवश्यक है। शिक्षण सिद्धान्तों के समुचित उपयोग के…

# छत्तीसगढ़ के क्षेत्रीय राजवंश | Chhattisgarh Ke Kshetriya Rajvansh

छत्तीसगढ़ के क्षेत्रीय/स्थानीय राजवंश : आधुनिक छत्तीसगढ़ प्राचीनकाल में दक्षिण कोसल के नाम से जाना जाता था। प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में दक्षिण कोसल के शासकों का नाम…

# भारतीय संविधान की प्रस्तावना | Bhartiya Samvidhan ki Prastavana

भारतीय संविधान की प्रस्तावना : प्रस्तावना, भारतीय संविधान की भूमिका की भाँति है, जिसमें संविधान के आदर्शो, उद्देश्यों, सरकार के संविधान के स्त्रोत से संबधित प्रावधान और…

# वैष्णव धर्म : छत्तीसगढ़ इतिहास | Vaishnavism in Chhattisgarh in Hindi

छत्तीसगढ़ में वैष्णव धर्म : छत्तीसगढ़ में वैष्णव धर्म के प्राचीन प्रमाण ईसा की पहली और दूसरी सदी में पाए जाते हैं। बिलासपुर के मल्हार नामक स्थान…

# छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक पृष्ठभुमि | Cultural background of Chhattisgarh in Hindi

छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक पृष्ठभुमि/धरोहर : लगभगग 700 वर्षों (ई. 6वीं सदी से 14वीं सदी) का काल छत्तीसगढ़ के इतिहास का एक ऐसा चरण रहा है, जब इस…

# छत्तीसगढ़ में शैव धर्म का प्रभाव | Influence of Shaivism in Chhattisgarh

छत्तीसगढ़ में शैव धर्म का प्रभाव : छत्तीसगढ़ क्षेत्र आदिकाल से ही सांस्कृतिक एवं धार्मिक परंपरा का प्रमुख केंद्र रहा है। शैव धर्म छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक प्राचीन…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

five + 3 =