अपने सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा में वेब्लेन ने मनुष्य को अपनी आदतों द्वारा नियन्त्रित माना है। मनुष्य की आदतों तथा मनोवृत्तियाँ भौतिक पर्यावरण विशेषकर प्रौद्योगिकी में परिवर्तन के अनुसार परिवर्तित होती रहती हैं। दूसरे शब्दों में, मनुष्य की आदतें तथा मनोवृत्तियाँ उस कार्य तथा प्रविधि का प्रत्यक्ष फल है जिसके द्वारा वह अपनी जीविका कमाता है। मनुष्य जिस प्रकार का कार्य करता है, वही उसके जीवन के स्वरूप को निश्चित करता है और उसी के अनुसार उसकी आदतें बनती हैं। ये आदतें उसके विचारों को प्रभावित करती हैं और उन्हें एक निश्चित स्वरूप प्रदान करती हैं। जैसी आदतें होती हैं, वैसे ही विचार भी होते हैं।
जैसाकि वेब्लेन ने कहा है कि भौतिक पर्यावरण के अनुसार मनुष्य को अपने मस्तिष्क को ढालना पड़ता है। इस युक्ति की सत्यता इस बात से प्रमाणित हो जाती है कि चरावाही युग में निवास करने वाले व्यक्तियों की आदतें, संस्कृति तथा संस्थाएँ कृषि युग में रहने वालों की आदतों से भिन्न थीं और मशीन युग में यह अन्तर और भी अधिक हो गया क्योंकि इन विभिन्न युगों की भौतिक परिस्थितियों में पर्याप्त भिन्नताएँ हैं।
वेब्लेन का कहना है कि यह सच है कि मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ बहुत कुछ स्थिर होती हैं। परन्तु इन मूल प्रवृत्तियों से सम्बन्धित आदतें भौतिक परिस्थितियों में परिवर्तन हो जाने पर बदल जाया करती हैं। इन आदतों का स्वरूप, प्रकृति, कार्य करने की सीमाएँ आदि भौतिक पर्यावरण के अनुसार ही निश्चित होती हैं। भौतिक पर्यावरण के द्वारा निर्मित ये मानवीय आदतें धीरे-धीरे सामाजिक अन्तः क्रियाओं के फलस्वरूप स्थिर तथा दृढ़ होती जाती हैं और अन्त में एक संस्था के रूप में विकसित होती हैं। ये संस्थाएँ ही सामाजिक ढाँचे का निर्माण करती है। जिस प्रकार की भौतिक परिस्थितियाँ होती हैं उसी प्रकार की आदतें पनपती हैं, और जिस प्रकार की आदतें होंगी उसी प्रकार की सामाजिक संस्थाएँ या सामाजिक ढाँचा बन जाता है। चूँकि प्रत्येक समाज की भौतिक परिस्थितियाँ या पर्यावरण एक-सा नहीं होता है, इस कारण वहाँ के लोगों की आदतें या सामाजिक ढाँचा भी समान नहीं होता है।
दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि विभिन्न समाजों के सामाजिक ढाँचे में जो भिन्नता या अन्तर दिखाई देता है, उसका कारण इन समाजों में पाई जाने वाली भौतिक परिस्थितियों में अन्तर है। भौतिक पर्यावरण में भिन्नता के कारण ही सामाजिक ढाँचे में अन्तर उत्पन्न होता है।
वेब्लेन के अनुसार भौतिक परिस्थिति उस कार्य को निश्चित करती है जिसे मनुष्य को करना चाहिए। उदाहरणार्थ, चरागाह की स्थिति में यह सम्भव न था कि मनुष्य मशीन पर काम करता। अर्थात् भौतिक परिस्थिति मनुष्य के काम को निश्चित करती है। यह कार्य नवीन आदतों को जन्म देता है; इन आदतों के आधार पर मनुष्य के विचार विकसित होते हैं; मानव के इन विचारों पर सामाजिक ढाँचा और सामाजिक परिवर्तन निर्भर करता है। “मानव वही है जो कुछ वह करता है, जैसा वह कार्य करता है वैसा ही वह अनुभव और विचार भी करता है।” इस प्रकार वेब्लेन काविश्वास है कि भौतिक पर्यावरण ही वह शक्ति है जोकि मानव-जीवन तथा सामाजिक ढाँचे के विकास को निश्चित करती है या ढालती है।
वेब्लेन ने अपने इस सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “समुदाय के कई वर्गों के विचारने की आदतों में या अन्तिम रूप में, व्यक्तियों के, जो उस समुदाय का निर्माण करते हैं, विचारने की आदतों में परिवर्तन होने पर सामाजिक ढाँचा बदलता है, विकसित होता है और अपने को परिवर्तित परिस्थितियों के साथ अनुकूलित कर पाया है। समाज का विकास वास्तव में व्यक्तियों द्वारा मानसिक अनुकूलन की वह प्रक्रिया है जो उस नवीन परिस्थिति के दबाव से उत्पन्न होती है जोकि पुरानी परिस्थितियों द्वारा उत्पन्न किए गए तथा उन परिस्थितियों से अनुकूलित विचारने की आदतों को सहन नहीं करती।”
वेब्लेन के इस विचार को और भी स्पष्ट रूप में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है कि किसी समाज-विशेष की भौतिक परिस्थितियों में परिवर्तन होने पर जो नवीन परिस्थिति उत्पन्न होती है, उससे अनुकूलन करना उस समाज के सदस्यों के लिए अनिवार्य हो जाता है क्योंकि वे नवीन परिस्थितियाँ पुरानी परिस्थितियों में बनी पुरानी आदतों को सहन नहीं करतीं। दूसरे शब्दों में, नवीन परिस्थिति में पुरानी आदतें बिल्कुल बेकार सिद्ध होती हैं। इस कारण व्यक्ति को नई आदतें बनानी पड़ती हैं। नवीन परिस्थितियों के दबाव से उत्पन्न इस नई आदतों के फलस्वरूप सामाजिक संस्थाओं में भी परिवर्तन हो जाता है क्योंकि आदतों का स्थिर स्वरूप ही संस्था है। इस प्रकार भौतिक परिस्थितियों के बदलने से आदतें बदलती हैं; आदतों के बदलने में संस्थाओं में भी परिवर्तन हो जाता है; आदतों और संस्थाओं में परिवर्तन का अर्थ होता है- सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन ।
वेब्लेन के अनुसार भौतिक परिस्थितियों में परिवर्तन प्रौद्योगिकी या तकनीकी में परिवर्तन के फलस्वरूप होता है। प्रौद्योगिकी में परिवर्तन जितनी तेजी से होता है उतनी तेजी से सामाजिक संस्थाएँ या सामाजिक ढाँवा नहीं बदलता है। सामाजिक संस्थाएँ और सामाजिक ढाँचा प्रौद्योगिकी की अपेक्षा अधिक रूढ़िवादी होता है। साथ ही, विलासी वर्ग अपने आर्थिक हितों की रक्षा करने के लिए परिवर्तनों का, विशेषकर उन परिवर्तनों का विरोध करते हैं जिनके द्वारा उनके आर्थिक स्वार्थ को धक्का पहुँचने का अन्देशा होता है। परन्तु प्रौद्योगिकीय या भौतिक पर्यावरण सदैव बदलता रहता है। यह कभी नहीं रूकता और न ही स्थिर रहता है और न ही इनकी कोई अन्तिम या आदर्श स्थिति ही है जब परिवर्तन नहीं होता। इस गतिशीलता के दबाव से समस्त चीजों को ही बदलना होता है और कोई भी संस्था इस प्रक्रिया से विमुक्त नहीं हो पाती। भौतिक पर्यावरण में परिवर्तन के फलस्वरूप जो नवीन परिस्थितियों उत्पन्न होती हैं उनसे अनुकूलन करने की आवश्यकता ही सामाजिक ढाँचे में संस्थाओं को अनिवार्य रूप में बदल देती हैं जिसके फलस्वरूप सामाजिक परिवर्तन होता है।
वेब्लेन के कथनानुसार आधुनिक औद्योगिक समाज में जो कुछ भी परिवर्तन संस्थाओं में होते हैं वे सभी आर्थिक शक्तियों के कारण ही होते हैं। अपने इस मत को और भी स्पष्ट करते हुए वेब्लेन ने लिखा है कि किसी भी समुदाय को औद्योगिक या आर्थिक मशीन के रूप में देखा जा सकता है क्योंकि उसका ढाँचा आर्थिक संस्थाओं से बना होता है। ये संस्थाएँ समुदाय की जीवन-प्रक्रिया को चलाने की वह अभ्यस्त विधियाँ हैं जोकि उस भौतिक पर्यावरण से सम्बन्धित होती है जिसमें वह समुदाय निवास करता है।
वेब्लेन ने अपने सिद्धान्त की पुष्टि में अनेक प्रमाणों को प्रस्तुत किया है। उदाहरणार्थ, सामन्तवादी व्यवस्था की दो प्रमुख विशेषताएँ थीं— (क) व्यक्तिगत कुशलता का महत्व, और (ख) मनुष्य का मनुष्य के अधीन होना। उस समय के सामाजिक ढाँचे या संस्थाओं में यही दो स्पष्ट विशेषताएँ थीं। उस समय के राज्य व्यक्तिगत सत्ता तथा वर्ग का वर्ग के अधीन होना इन दो बातों पर आश्रित थे। आर्थिक क्षेत्रों का शोषण वर्ग के द्वारा होता था और व्यक्तिगत शक्ति तथा कौशल, सफलता का एकमात्र आधार था। धर्म के क्षेत्र में भी व्यक्तिगत सत्ता तथा बहुत-कुछ तानाशाही की प्रधानता थी। परन्तु जैसे ही मशीनों का प्रयोग प्रारम्भ हुआ और भौतिक परिस्थिति बदली, वैसे ही सम्पूर्ण सामाजिक ढाँचा भी बदला । व्यक्तिगत या मानव-शक्ति का स्थान यान्त्रिक शक्ति ने ले लिया। अब केवल शारीरिक शक्ति ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उसके साथ कौशल की भी आवश्यकता हुई। नियोजक, इंजीनियर तथा वैज्ञानिक की सेवाओं की अधिकाधिक आवश्यकता हुई। अन्य रूप में, सम्पूर्ण भौतिक परिस्थितियाँ बदल गईं और उसी के साथ रहन-सहन कार्य करने और सोचने के तरीकों में भी परिवर्तन हो गया। इस प्रकार किसी समय-विशेष में विचारने की आदतें उस समय की प्रौद्योगिकी के द्वारा निर्धारित होती हैं और इसी कारण प्रौद्योगिकी में कोई परिवर्तन होने पर सम्पूर्ण सामाजिक ढाँचा भी स्वयं बदल जाता है। अतः स्पष्ट है कि प्रौद्योगिकी सामाजिक परिवर्तन का सर्वप्रमुख और सर्वप्रथम कारण है।
“इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन वह प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से हमारी सामाजिक व्यवस्था प्रौद्योगिकी प्रगति को व्यक्त करती है।”