“राज्य परिवारों तथा ग्रामों का एक संघ होता है जिसका उद्देश्य एक पूर्ण तथा आत्मनिर्भर जीवन की स्थापना है, जिससे हमारा अभिप्राय सुखी और सम्मानीय जीवन से है।” – अरस्तू
गिर्डिंस के अनुसार “राज्य का उद्देश्य ऐसा वातावरण बनाए रखना है, जिसमें सभी प्रजाजन सर्वोच्च तथा आत्म-निर्भर जीवन बिता सकें।” रिची ( Ritchie ) के अनुसार, “राज्य का उद्देश्य व्यक्ति द्वारा सर्वोत्तम जीवन प्राप्त करना है।” आधुनिक काल में बर्गेश, विलोबी तथा गार्नर ने इस समस्या पर काफी चर्चा की है। गार्नर के अनुसार “राज्य का उद्देश्य व्यक्ति का हित-साधन, राष्ट्र का हित साधन और मानव सभ्यता का विकास है।”
एडम स्मिथ के अनुसार “राज्य के तीन बड़े उद्देश्य हैं- पहला, राज्य का विदेशी आक्रमणों अथवा आन्तरिक हिंसा से बचाव, दूसरा, व्यक्ति की अन्याय तथा दूसरे सदस्यों के अत्याचारों से रक्षा, तीसरा, विभिन्न कार्यों तथा जन-संस्थाओं का निर्माण और उनको बनाए रखना जिनका मानव अथवा मानव-समूह न तो निर्माण कर सकता है और न ही उसको कायम रख सकता है।”
राज्य साध्य है या साधन?
राज्य के कार्यक्षेत्र के विषय में अनेक राजनीतिक दृष्टिकोण विद्यमान हैं। कुछ राजनीतिक विचारधाराएँ राज्य को समस्त अधिकार प्रदान कर व्यक्ति को पूरी तरह उसके अधीन बना देती हैं। कुछ राजनीतिक विचारधाराएँ राज्य के कार्यक्षेत्र को सीमित कर व्यक्ति की अधिकतम स्वतंत्रताओं की पक्षधर हैं। राज्य कार्यक्षेत्र के विषय में विस्तृत ज्ञान हेतु विभिन्न दृष्टिकोणों का विवेचन आवश्यक है –
- राज्य स्वयं में साध्य है एवं व्यक्ति साधन
- राज्य एक साधन है एवं व्यक्ति साध्य
- राज्य साध्य व साधन दोनों है
राज्य स्वयं में साध्य है एवं व्यक्ति साधन :
प्लेटो, अरस्तू, हीगल, बोसांके आदि विचारक राज्य को मानव जीवन का उच्चतम लक्ष्य और अपने आप में एक साध्य मानते हैं। प्लेटो और अरस्तू के मतानुसार समाज एवं राज्य एक महान् नैतिक संस्था है जिसका उद्देश्य व्यक्ति का नैतिक विकास करना है। प्लेटो के शब्दों में “राज्य वृक्षों या चट्टानों से उत्पन्न नहीं होते। ये उन व्यक्तियों के चरित्र से उत्पन्न होते हैं जो उनमें निवास करते हैं।” अरस्तू का मत है कि राज्य का उद्भव जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हुआ है तथा वह अच्छे जीवन के लिए विद्यमान है।”
आदर्शवादियों के अनुसार राज्य व्यक्तियों की यथार्थ इच्छा का प्रतीक हैं। मनुष्य का पूर्ण विकास राज्य के अन्तर्गत ही सम्भव है। राज्य के विरूद्ध व्यक्ति को कोई अधिकार नहीं हो सकता। उनके अनुसार राज्य से पृथक व्यक्तियों का कोई अस्तित्व नहीं होता। बोसांके ने लिखा है कि “राज्य विश्वव्यापी नैतिक संगठन का एक अंग न होकर समस्त नैतिक विश्व का अभिभावक है।” जोड के अनुसार – “राज्य एवं समाज मनुष्यों की सभी सामाजिक भावनाओं और इच्छाओं का प्रतीक है और साथ ही उनकी सामाजिक आवश्यकताओं की भी पूर्ति करता है, अतः राज्य व्यक्ति से जो माँग करता है उसे पूरा करने के लिए व्यक्ति को तत्पर रहना चाहिए।”
हीगल राज्य को स्वयं में साध्य ही मानता है और राज्य को पृथ्वी पर ईश्वरीय अवतार मानता है। ट्रीटश्के का मत है कि “राज्य व्यक्ति है और हमारा यह कर्तव्य है कि हम नतमस्तक होकर उसकी पूजा करें।” जो विचारक राज्य को स्वयं में साध्य मानते हैं, उन्होंने व्यक्ति की इच्छा को राज्य की इच्छा के साथ एकाकार कर दिया। इस सिद्धान्त का परिणाम फासीवाद है। फासीवादी मानते हैं कि “सब कुछ राज्य के लिए, राज्य के विरूद्ध कुछ नहीं।” संक्षेप में आदर्शवादी और समष्टिवादी विचारक राज्य को एक साध्य मानते हैं।
राज्य एक साधन है एवं व्यक्ति साध्य :
राज्य को साधन मानने वाले विचारक राज्य को मानव के हितों की पूर्ति का साधन मानते हैं। उनकी धारणा है कि समस्त संस्थाएँ व्यक्ति के कल्याण और समृद्धि के लिए हैं न कि व्यक्ति उन संस्थाओं के लिए है। राज्य का एकमात्र उद्देश्य व्यक्तियों का कल्याण करना है।
व्यक्तिवादी, अराजकतावादी और बहुलवादी विचारक राज्य को एक साधन मानते हैं। व्यक्तिवादी विचारक राज्य के अस्तित्व को तो स्वीकार करते हैं किन्तु राज्य को साध्य नहीं मानते। जे. एस. मिल. एवं हर्बर्ट स्पेंसर राज्य को आवश्यक बुराई मानते हैं। वे राज्य के कार्यों को पुलिस कार्यों तक ही सीमित रखना चाहते हैं। अराजकतावादी यह मानते हैं कि व्यक्ति का कल्याण राज्य की सत्ता की समाप्ति में निहित है। उनके लिए राज्य, अनावश्यक, अवांछनीय तथा अस्वाभाविक संस्था है। बहुलवादी विचारक राज्य को अन्य समुदायों के समान एक समुदाय मानते हैं।
राज्य साध्य व साधन दोनों है :
ब्लंटशली ने, राज्य को साधन और साध्य दोनों के रूप में माना है। इसके अनुसार, राज्य एक तरफ नागरिकों के हित साधन की एक संस्था है तो दूसरी ओर वह स्वयं एक साध्य है, क्योंकि राज्य के अस्तित्व पर ही व्यक्ति की सुख सुविधाएं निर्भर करती है।