परिवर्तन प्रकृति का नियम है। समाज और राज्य में परिवर्तन होते रहते हैं। यह प्रक्रिया अविचल गति से चलती रहती है। अतएव राजनीतिक-सामाजिक चिन्तकों के लिए यह विषय विचारणीय रहा है कि परिवर्तन के नियम क्या हैं, परिवर्तन में मनुष्य की क्या भूमिका है, परिवर्तन की गति, उसका लक्ष्य क्या है? इस सभी प्रश्नों पर विचार विभिन्न चिन्तकों ने किया है जिसमें मैकाइवर व पेज, सर हेनरीमेन, टयलकॉट पारसन्स, हर्बर्ट स्पेंसर आदि प्रमुख हैं।
सामाजिक परिवर्तन की परिभाषाएं :
1. फिशर के अनुसार, “परिवर्तन पहले की अवस्था या अस्तित्व के प्रकार में अन्तर को कहते हैं।”
2. किंग्सले डेविस के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन से तात्पर्य उन्हीं परिवर्तनों से है जो समाज के ढाँचे और कार्य में घटित है।”
3. गिन्सबर्ग के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन से मेरा तात्पर्य सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन से है अर्थात् समाज के आकार, समाज की संरचना, इसके विभिन्न अंगों, संगठनों के प्रकारों की बनावट एवं सन्तुलन में होने वाले परिवर्तन से है।”
4. जॉनसन के अनुसार, “अपने मूल अर्थ में सामाजिक परिवर्तन का अर्थ सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन है। “
5. मैकाइवर और पेज के अनुसार, “सामाजिक सम्बन्धों में होने वाले परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।”
उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि समाज में होने वाले राजनीतिक सामाजिक, आर्थिक, नैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक या भौतिक परिवर्तनों को सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। जो वस्तु आज जिस स्थिति में है, कल ऐसी नहीं थी और कल ऐसी नहीं रहेगी। चाहे वह समाज हो, धर्म, अर्थ, संस्कृति, राज्य आदि कोई भी क्षेत्र क्यों न हो। इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन स्वाभाविक है। यह अपरिहार्य भी है क्योंकि इसे कोई रोक नहीं सकता।
सामाजिक परिवर्तन पर गाँधीवादी सिद्धान्त :
गाँधीवाद, सामाजिक परिवर्तन का नैतिक और अहिंसात्मक मार्ग है। गाँधीजी ने सत्य और अहिंसा पर जितना बल दिया, अन्य किसी विचारक ने नहीं दिया। इसी अहिंसा के बल पर उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य से लोहा लिया गाँधीवाद के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित है –
1. सत्य
सत्य का अर्थ है अस्तित्व जो हर समय अस्तित्व में हो वही सत्य है और ईश्वर का अस्तित्व चूँकि हर समय बना रहता है, इसलिए एकमात्र ईश्वर ही सत्य है। अन्य सभी चीजें नश्वर हैं, इसलिए सत्य नहीं है।
यहाँ पर एक प्रश्न उपस्थित होता है कि बुरे लोगों की अन्तरात्मा को हमेशा सच बोलना चाहिए। लेकिन सत्य क्या है। महात्मा गाँधी कहते हैं जो हमारी अन्तरात्मा बुरे कार्यों किया जाना को सच कहेगी और अच्छे लोगों की अन्तरात्मा अच्छे कार्य को, तब सत्य का निर्णय कैसे होगा। गाँधीजी कहते हैं कि पंच महाव्रत का पालन कर अन्तरात्मा को शुद्ध चाहिए इसके बाद अन्तरात्मा जो कहे वह सत्य है ये पंच महाव्रत है–सत्य, अहिंसा, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह (आवश्यकता से अधिक धन संग्रह न करना)।
2. अहिंसा
किसी प्राणी के प्रति मनसा, वाचा कर्मणा- बुरा न सोचना, बुरा न कहना और बुरा न करना अहिंसा है। यह इसका नकारात्मक अर्थ है। सकारात्मक दृष्टि से प्रेम, वीरता, धैर्य, अन्याय का विरोध करना अहिंसा है। अहिंसा जीवन का आधार होना चाहिए।
3. सत्याग्रह
सत्य के प्रति आग्रह करते हुए अन्याय का विरोध करना सत्याग्रह है और भी सरल शब्दों में कहा जा सकता है अपने विरोधी को कष्ट में डालने के बजाय स्वयं कष्ट सहकर अन्याय का विरोध करना सत्याग्रह है। सत्य और अहिंसा सत्याग्रह के मूल आधार है। इसमें विरोधी का विरोध नहीं किया जाता अपितु इसके द्वारा किए जाने वाले अन्यायपूर्ण कार्यों का विरोध किया जाता है। महात्मा गाँधी कहते हैं कि मान लीजिए सरकार ने एक कानून बनाया, मैं उसे उचित नहीं मानता तो मैं उस कानून का पालन नहीं करूँगा और कानून के उल्लंघन करने पर सरकार मुझे जो भी दण्ड दे मैं उसे सहर्ष स्वीकार कर लूँगा, तो मैंने सत्याग्रह किया। सत्याग्रह के नियम कठोर हैं और इनका पालन करना भी आवश्यक है। सत्याग्रह के कई रूप हैं जैसे—असहयोग आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन हिजरत, उपवास, हड़ताल, सामाजिक बहिष्कार आदि।
4. साध्य व साधन की पवित्रता
महात्मा गाँधी साध्य और साधन दोनों की पवित्रता पर बल देते हैं। बोया बीज बबूल का, तो आम कहाँ से होय। साधन की पवित्रता साध्य को उत्कृष्ट बनाती है। अतएव सही मार्ग से आगे बढ़ते हुए सही लक्ष्य तक पहुँचना चाहिए। यही कारण है कि गांधीजी ने स्वतन्त्रता रूपी साध्य को प्राप्त करने के लिए सत्याग्रह रूपी साधन को अपनाया।
5. न्यास सिद्धान्त
न्यास सिद्धान्त, अपरिग्रह की धारणा पर आधारित है। गांधीजी का मानना है कि समाज का पूँजीपति वर्ग अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरी करने के बाद शेष बची सम्पत्ति का स्वयं स्वामी न समझे अपति न्यासी या संरक्षक समझे और इस धन का उपयोग समाज कल्याण के लिए करे। यदि कोई पूँजीपति ऐसा न करे तो सत्याग्रह द्वारा परिवर्तन करके ऐसा करने के लिए उसे तैयार करना चाहिए।
6. विकेन्द्रीकरण
गांधीजी का विकेन्द्रीकरण राजनीतिक और आर्थिक दो भागों में विभाजित है। राजनीतिक विकेन्द्रीकरण का अर्थ है कि राजनीतिक शक्तियाँ एक ही स्थान पर केन्द्रित नहीं होनी चाहिए। राजनीतिक विकेन्द्रीकरण की अवधारणा ग्रामीण स्वराज्य की अवधारणा है। प्रत्येक गांव में ग्राम पंचायत होगा जिसके सदस्य वयस्क स्त्री-पुरुषों द्वारा निर्वाचित होंगे। सरपंच मिलकर जिला पंचायत अध्यक्ष का निर्वाचन करेंगे। जिला पंचायत के अध्यक्ष राज्यपाल का और राज्यपाल मिलकर राष्ट्रपति को चुनेंगे अर्थात पूरी शक्ति ग्रामीण क्षेत्रों में होगी।
आर्थिक विकेन्द्रीकरण की विवेचना करते हुए महात्मा गांधी लघु और कुटीर उद्योगों का समर्थन और भारी उद्योगों का विरोध करते हैं। लघु और कुटीर उद्योग को अपनाने से पूँजी का केन्द्रीकरण नहीं होगा, शोषण बन्द हो जाएगा और हर हाथ को काम मिलेगा।
गाँधीजी के अन्य विचारों में साम्प्रदायिक सद्भावना, अस्पृश्यता का अन्त, सर्वधर्म-समभाव दृष्टि आदि हैं।