# समाजशास्त्र की प्रकृति (Samajshastra Ki Prakriti)

जहाँ तक समाजशास्त्र की प्रकृति का प्रश्न है – इस बात पर चर्चा करने से पहले यह जानना आवश्यक है कि विज्ञान के मूलभूत सिद्धान्त व लक्षण क्या हैं? क्या इन मूलभूत लक्षणों को आधार मानकर समाजशास्त्र को विज्ञान का दर्जा दिया जा सकता है या नहीं। जहाँ तक विज्ञान का प्रश्न है विज्ञान का मूल उद्देश्य होता है घटनाओं का वैज्ञानिक विश्लेषण। यह मानकर चलते हैं कि विज्ञान में ज्ञान का विधिवत व सुनियोजित ज्ञान प्राप्त करना होता है। कुछ यह भी मानते हैं कि विज्ञान में किसी भी वक्तव्य को झूठ व सच साबित करने का प्रमाण देना होता है। इसके अतिरिक्त आर. के. मर्टन का यह कहना था कि विज्ञान के कुछ सर्वव्यापी गुण हैं जिन्हें वैध करार दिया जाता है और विज्ञान की उस कसौटी पर समाजशास्त्र की प्रकृति का भी मूल्यांकन किया जाना चाहिए। मूलतः विज्ञान के कसौटी पर समाजशास्त्र एक वैज्ञानिक विषय के रूप में किस हद तक खड़ा होता है उसे विज्ञान के निम्न लक्षणों पर जाँच कर देखा जा सकता है।

विज्ञान के लक्षण :

1. प्रयोगाश्रित गुण

विज्ञान के इस प्रयोगाश्रित गुण के आधार पर तथ्यों का निरिक्षण व परीक्षण किया जाना आवश्यक है। इसके अनुसार ज्ञान का स्रोत काल्पनिक नहीं हो सकता। कल्पना पर आधारित ज्ञान की संभावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता परंतु अगर उसे विज्ञान की कसौटी पर खड़ा उतरना है तो उस कल्पना पर आधारित अनुमानित ज्ञान को विज्ञान की कसौटी पर प्रयोग के द्वारा उसका परीक्षण के बाद सही साबित होना एक आवश्यक शर्त है और तभी उस तथ्य को ज्ञान व विज्ञान का दर्जा दिया जा सकता है।

2. सैद्धान्तिक आधार

विज्ञान के कसौटी पर खड़े उतरने वाले तथ्यों को सैद्धान्तिक आधार पर भी सही उतरना आवश्यक होता है। विज्ञान में जो भी सिद्धान्त प्रतिपादित होते हैं उसमें उपकल्पना के बीच तार्किक संबंध भी स्थापित किया जाता है। तार्किक संबंध स्थापित होने के बाद ही उसे सिद्धान्त के आधार पर परखा जाता है समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखा जाए तो इस प्रकार के सैद्धान्तिक आधार को ही विज्ञान का सही सूचक माना जा सकता है।

3. समुच्चबोधक प्रकृति

विज्ञान में घटनाओं तथा तथ्यों का समुच्चबोधक स्वरूप होता है जिसके कारण नये सिद्धान्त नये विचार तथा तथ्यों के आधार पर ज्ञान का आकलन किया जाता है। तथ्यों का एक दूसरे पर निर्भर रहना आवश्यक होता है। इससे पूर्वधारणाओं को नयी तथ्यों के खोज पर ही आधारित होता है।

4. नैतिक रूप से तटस्थ

विज्ञान में घटनाओं वा विश्लेषण नैतिक रूप से तटस्थ रहकर किया जाता है। यहाँ तथ्यों की खोज में वैज्ञानिक सिद्धान्तों को ही प्रधानता दी जाती है क्या उचित है? क्या अनुचित है? क्या अच्छा है या क्या बुरा? इसका विश्लेषण विज्ञान के विषय स्रोत से बाहर होता है। फलस्वरूप विद्वान में नैतिक मूल्यों का समावेश नहीं होता है।

समाजशास्त्र की प्रकृति :

विज्ञान के उपर्युक्त नियमों को ध्यान में रखकर जब हम बात करते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि समाजशास्त्र में भी विज्ञान के सभी लक्षणों को ध्यान में रखकर ही सामाजिक क्रियाओं का विश्लेषण किया जाता है जहाँ तक विज्ञान के प्रयोगाश्रित गुण का संबंध है, समाजशास्त्र के अध्ययन विधि कि चर्चा करते हुए अगस्त कॉम्ट दुर्खिम, हर्बट स्पेंसर, मैक्स वेबर तथा कार्ल मार्क्स सभी ने अपने-अपने ढंग से विज्ञान के इस सिद्धान्त का अनुसरण करने पर बल दिया है। निरीक्षण और परीक्षण के आहट पर घटनाओं का विश्लेषण समाजशास्त्र विषय के अध्ययन विधि कि पहली शर्त है।

विज्ञान के सैद्धान्तिक आधार को भी ध्यान में रखकर समाजशास्त्र में उपकल्पना का निर्माण किया जाता है। उपकल्पना के सत्यता की पुष्टि हो जाने पर सिद्धान्त स्वतः प्रतिपादित हो जाते हैं दुर्खिम ने इसी उपकल्पना को ध्यान में रखकर अपनी पुस्तक सुसाइड में आत्महत्या के कारणों का विधिवत अध्ययन करने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकाला कि आत्महत्या एक मनोवैज्ञानिक क्रिया न होकर सामाजिक क्रिया है जिसमें आत्महत्या करने वाले लोग समाज से अलग अर्थात नहीं जुड़े होने के कारण आत्महत्या करने के लिए बाध्य होते हैं। इन सामाजिक परिस्थितियों की चर्चा करते हुए ही उन्होंने आत्महत्या के सिद्धान्त के आधार पर इस क्रिया का विस्तार से विवरण किया था।

रोबर्ट के. मर्टन ने भी प्रकार्यवाद सिद्धान्त के विश्लेषण में नये अवधारणा प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष परिणाम के आधार पर इसके सैद्धान्तिक विश्लेषण का प्रयास किया है। उदाहरण स्वरूप यह कहा जा सकता है कि धर्म के प्रत्यक्ष परिणाम जहाँ समाज के संगठन को मजबूत करते हैं वहीं दूसरी ओर धर्म के आधार पर लोग विभाजित भी होते हैं इस कारण सामाजिक संगठन में एकरूपता बनाये रखना मुश्किल हो जाता है।

विज्ञान के समुच्चबोधक प्रकृति को ध्यान में रखकर यह कहा जा सकता है कि समाजशास्त्र में भी घटनाओं व क्रियाओं का विश्लेषण क्रमशः होता है एक खोज कर लेने के बाद तथ्य इकट्ठे किये जाते हैं और उन तथ्यों के आधार पर अन्य तथ्यों की खोज की जाती है और इस प्रकार तथ्यों का संकलन एक ऐसी प्रक्रिया है जिनके आधार पर समाजशास्त्रीय पद्धति को वैज्ञानिक तरीके से विकसित कर सिद्धान्त निर्माण किया जाता है जिसके फलस्वरूप घटनाओं व क्रियाओं का विश्लेषण क्रमबद्ध तरीके से संभव हो जाता है।

विज्ञान में घटनाओं का विश्लेषण करते हुए जहाँ तक संभव हो तटस्थ नीति अपनायी जाती है परंतु एक समाजशास्त्री जो स्वयं भी समाज का सदस्य होकर सामाजिक घटनाओं का विश्लेषण करता है वह जहाँ तक संभव हो पाता है अपने व्यक्तिगत रूझान को निष्कर्ष पर हावी नहीं होने देता। तात्पर्य यह है कि समाजशास्त्र में अनुसंधानकर्ता को प्रशिक्षित किया जाता है कि वह अपने पूर्वाग्रहों तथा सांस्कृतिक रुझान को अपने अध्ययन विषय से पथक कर उसका विश्लेषण करे।

इस प्रकार उपर्युक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि समाजशास्त्र एक विज्ञान है जहाँ विज्ञान के अध्ययन विधि की तरह ही यहाँ भी क्रियाओं के अध्ययन में जहाँ तक संभव हो पारदर्शिता तथा निरीक्षण के आधार पर घटनाओं का विश्लेषण किया जाता है। हाँ! समाजशास्त्री इतना जरूर मानते हैं कि जिस प्रकार विज्ञान में जो सिद्धान्त प्रतिपादित होते हैं वे स्थायी रूप से घटनाओं का विश्लेषण एक निश्चित क्रम में करते हैं जिनके सिद्धान्त निश्चित निष्कर्ष को दर्शाते हैं उस रूप में घटनाओं तथा क्रियाओं का विवेचन उस निश्चित तरीके से संभव नहीं हो पाता। इसका सबसे बड़ा कारण है विषय की जटिलता।

चूँकि यहाँ पर मानव व्यवहार के सामाजिक संदर्भ का अध्ययन होता है जो परिवर्तनशील है और जिनको प्रयोगशाला में नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। अर्थात् यह कहना उचित होगा कि जिस प्रकार विज्ञान के निष्कर्ष निश्चित, संक्षिप्त, मापदंड प्रत्यक्ष होते हैं उस हद तक समाजशास्त्र के निष्कर्ष निश्चित, संक्षिप्त नहीं होते। मानवीय व्यवहार जटिल होते हैं जिनका एक सांस्कृतिक परिवेश होता है। इसलिए समाजशास्त्र में जो निष्कर्ष निकाले जाते हैं वे संभावित होते हैं और यहाँ संभावनाओं के साथ-साथ घटनाओं की व्याख्या कुछ अनुमान के आधार पर ही की जाती है जिसके सत्यता की जाँच समय-समय पर की जाती है।

The premier library of general studies, current affairs, educational news with also competitive examination related syllabus.

Related Posts

# सिद्धान्त निर्माण का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, महत्व | सिद्धान्त निर्माण के प्रकार | Siddhant Nirman

Home / Sociology / Theory / # सिद्धान्त निर्माण का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, महत्व | सिद्धान्त निर्माण के प्रकार | Siddhant Nirmanसिद्धान्त निर्माण : सिद्धान्त वैज्ञानिक अनुसन्धान…

# पैरेटो की सामाजिक क्रिया की अवधारणा | Social Action Theory of Vilfred Pareto

Home / Sociology / Theory / # पैरेटो की सामाजिक क्रिया की अवधारणा | Social Action Theory of Vilfred Paretoसामाजिक क्रिया सिद्धान्त प्रमुख रूप से एक प्रकार्यात्मक…

# सामाजिक एकता (सुदृढ़ता) या समैक्य का सिद्धान्त : दुर्खीम | Theory of Social Solidarity

Home / Sociology / Theory / # सामाजिक एकता (सुदृढ़ता) या समैक्य का सिद्धान्त : दुर्खीम | Theory of Social Solidarityदुर्खीम के सामाजिक एकता का सिद्धान्त :…

# पारसन्स के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त | Parsons’s Theory of Social Stratification

Home / Sociology / Theory / # पारसन्स के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त | Parsons’s Theory of Social Stratificationपारसन्स का सिद्धान्त (Theory of Parsons) : सामाजिक स्तरीकरण…

# मैक्स वेबर के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त | Maxweber’s Theory of Social Stratification

Home / Sociology / Theory / # मैक्स वेबर के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त | Maxweber’s Theory of Social Stratificationमैक्स वेबर के सामाजिक स्तरीकरण के सिद्धान्त :…

# कार्ल मार्क्स के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त | Karl Marx’s Theory of Social Stratification

Home / Sociology / Theory / # कार्ल मार्क्स के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त | Karl Marx’s Theory of Social Stratificationकार्ल मार्क्स के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

2 × 4 =