समाज का अर्थ :
मानव जाति सदा से अपने को अनुपम प्राणी समझती रही है। इसका मुख्य कारण है, उसकी संस्कृति। केवल मनुष्य में ही संस्कृति पाई जाती है। संस्कृति के अभाव में मनुष्य पशु-मात्र है। अतः हम कह सकते हैं कि संस्कृति से प्रभावित सम्बन्धों की जो व्यवस्था है वही मानव समाज के निर्माण का, उसकी उत्पत्ति का कारक है; इसी समाज का अध्ययन हम समाजशास्त्र में करते हैं।
हम यह सरलता से कल्पना कर सकते हैं कि मानव जीवन आरम्भ में अत्यधिक अनियन्त्रित, असहयोगपूर्ण और कलहपूर्ण रहा होगा। इस जीवन के कष्टों को कम करने अथवा समाप्त करने के लिए लोग धीरे-धीरे एक-दूसरे के निकट सम्पर्क में आने लगे, उन्हें पारस्परिक सम्पर्क के महत्त्व का ज्ञान हुआ। उनके बीच अन्तःक्रियाओं (Interactions) का प्रसार हुआ। कालान्तर में उनके बीच सामाजिक सम्बन्धों का काफी विकास हो गया, सामाजिक सम्बन्ध काफी व्यवस्थित हो चले और इसी व्यवस्था से उस मानव समाज का प्रादुर्भाव हुआ जो समाजशास्त्र में हमारे अध्ययन की विषय-वस्तु है।
साधारण बोलचाल में ‘समाज‘ शब्द का नित्य ही प्रयोग होता है। समाजशास्त्रीय दृष्टि से समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल या ताना-बाना है। सामाजिक सम्बन्धों की अमूर्त व्यवस्था है। यह वह व्यवस्था है कि जिसमें संगठित और विघटित सभी प्रकार के सामाजिक सम्बन्ध सम्मिलित हैं। एक व्यक्ति किसी का पिता, किसी का पुत्र, किसी का पति तो किसी का भाई भी होता है। यदि परिवार को लें तो व्यक्तियों का परिवार से और एक परिवार का अन्य परिवारों से सामाजिक सम्बन्ध पाया जाता है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति अकेला मनुष्य स्वयं नहीं कर पाता, अतः दूसरों के साथ सहयोग करता है, उनके साथ मिल-जुलकर काम करता है। इससे लोगों में सामाजिक सम्बन्ध पनपते हैं। अभिप्राय यह है कि व्यक्ति तो एक होता है, पर उसके जीवन में पारिवारिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, नैतिक सम्बन्धों का जाल-सा बिछ जाता है। इसके फलस्वरूप विभिन्न सम्बन्धों की एक सन्तुलित व्यवस्था इस तरह स्थापित हो जाती है कि प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक प्राणी के रूप में अपनी-अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाता है।
हम विभिन्न सम्बन्धों की इस सन्तुलित व्यवस्था को ही ‘समाज’ को संज्ञा देते हैं। इन्हीं सम्बन्धों के फलस्वरूप व्यक्ति को समाज में विभिन्न स्थिति (Status) प्राप्त होती है और तदनुसार उसे विभिन्न भूमिकाएँ (Role) अर्थात् क्रियाएँ और व्यवहार करने पड़ते हैं। अतः जब हम समाज को सम्बन्धों का जाल कहते हैं तो इसके अन्तर्गत हम उन क्रियाओं अथवा व्यवहारों को भी सम्मिलित कर लेते हैं जो कि उन व्यक्तियों को करने पड़ते हैं जो कि उन सम्बन्धों के वाहक होते हैं।
समाज की परिभाषाएं :
समाज की पारिभाषिक विवेचना विभिन्न समाजशास्त्रियों ने विभिन्न प्रकार से की है। यहाँ हम कुछ प्रमुख समाजशास्त्रियों की परिभाषाओं को स्पष्ट करेंगे-
- मैकाइवर तथा पेज़ (Maciver & Page) ने लिखा है कि – “समाज कार्यप्रणालियों और चलनों की अधिकार सत्ता और पारस्परिक सहायता की, अनेक समूह व श्रेणियों की तथा मानव व्यवहार के नियन्त्रण अथवा स्वतन्त्रताओं की एक व्यवस्था है। इस निरन्तर परिवर्तनशील और जटिल व्यवस्था को हम समाज कहते हैं। यह सामाजिक सम्बन्धों का ताना-बाना है और यह सदा बदलता रहता है।”
उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार समाज सामाजिक सम्बन्धों का एक जाल है। ये सामाजिक सम्बन्ध विविध प्रकार के होते हैं, जिनमें से कुछ सरल, कुछ जटिल, कुछ स्थाई तथा कुछ अस्थाई होते हैं। इनमें चाल-चलन, रीति-रिवाज, कार्यप्रणालियों, प्रभुत्व, सहयोग एवं अन्य प्रकार के सम्बन्ध आते हैं। अतः समाज को समझने के लिए इन सभी को समझना आवश्यक है।
- मोरिस गिन्सबर्ग के अनुसार – “समाज ऐसे व्यक्तियों का संग्रह (The collection of Individuals) है, जो कुछ सम्बन्धों अथवा व्यवहारों की विधियों द्वारा आपस में बँधे हुए हैं, जो उन व्यक्तियों से भिन्न हैं, जो इस प्रकार के सम्बन्धों द्वारा आपस में बँधे हुए नहीं हैं अथवा जिनके व्यवहार उनसे भिन्न हैं।”
स्पष्ट है कि गिन्सबर्ग ने भी समाज को एक संगठित समूह माना है और उसके सदस्यों में भी कुछ सम्बन्धों अथवा व्यवहार विधियों की एकता स्वीकार की है। यह एकता ही किसी समाज के सदस्यों को समाज के बाहरी लोगों से पृथक् करती है, क्योंकि दूसरे लोगों के व्यवहार आदि भिन्न होने से वे उस समाज विशेष के संगठन में नहीं आते।
- टालकट पार्सन्स ने समाज की अत्यन्त वैज्ञानिक परिभाषा प्रस्तुत की है। उसने लिखा है कि –”समाज को उन भानवीय सम्बन्धों की पूर्ण जटिलता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो साधन (Means) और साध्य (Ends) के सम्बन्ध द्वारा क्रिया (Action) करने से उत्पन्न होते हैं, चाहे वे यथार्थ हों या प्रतीकात्मक (Intrinsic or Symbolic).”
स्पष्ट है कि टालकट पार्सन्स ने भी समाज के सामाजिक सम्बन्धों की एक व्यवस्था को स्वीकार किया है, किन्तु उनके अनुसार सभी सम्बन्ध समाज का निर्माण नहीं करते, बल्कि ऐसे सम्बन्ध समाज का निर्माण करते हैं जो किसी क्रिया से उत्पन्न होते हैं। पार्सन्स की परिभाषा में ‘क्रिया’ (Action) शब्द का विशेष महत्त्व है। सभी व्यवहारों को ‘क्रिया’ नहीं कहा जा सकता। केवल ऐसे कार्य ही ‘क्रियाओं’ के अर्थ में आते हैं जो किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए साधन के रूप में किए गए हों। निरुद्देश्य सड़क पर घूमना एक ‘क्रिया’ नहीं है। अतः ऐसे ही निरुद्देश्य घूमने वाले व्यक्तियों के सम्बन्ध स्थापित हों तो उनसे समाज के निर्माण में कोई सहायता नहीं मिलेगी।
इसके विपरीत परिवार में प्रथाओं के अनुसार कार्य करने का एक निश्चित उद्देश्य होता है – परिवार का संगठन बनाए रखना, अतः यह एक ‘क्रिया’ है, जिससे सामाजिक सम्बन्ध की रचना होती है। पार्सन्स के अनुसार सभी क्रियायें चाहे वे प्रत्यक्ष रूप से की जाती हों या केवल प्रतीकात्मक (Symbolic), सामाजिक सम्बन्धों की रचना करती है और इन्हीं से उत्पन्न सम्बन्धों की व्यवस्था को समाज कहा जाता है।
- गिडिंग्स (Giddings) ने लिखा है, “समाज स्वयं एक संघ है, एक संगठन है, औपचारिक सम्बन्धों का योग है जिसमें सहयोगी व्यक्ति परस्पर सम्बद्ध हैं।” समाज की इस परिभाषा में समाज के संगठन पक्ष पर बल दिया गया है। यह बताया गया है कि समाज बिखरे हुए व्यक्तियों का संग्रह मात्र नहीं होता। समाज के सदस्य एक-दूसरे से सम्बद्ध होते हैं। परिवार, जाति, वर्ग, अथवा विविध संस्थाओं के आधार पर उनमें कुछ आपसी औपचारिक सम्बन्ध पाए जाते हैं।
- यूटर ने समाज की बहुत ही सरल परिभाषा दी है, उसके अनुसार, “समाज एक अमूर्त धारणा है जो एक समूह के सदस्यों के बीच पाए जाने वाले सम्बन्धों की सम्पूर्णता का बोध कराती है।”
वास्तव में, व्यक्तियों के बीच पाए जाने वाले सम्बन्धों और अन्तक्रियाओं द्वारा ही सामाजिक जीवन का निर्माण सम्भव होता है। ये अन्तःक्रियायें समाज की जीवन-दाता धमनियाँ हैं। इन अन्तःक्रियाओं का जैसा स्वरूप होता है, समाज का ढाँचा भी वैसा ही बन जाता है। गिलिन के शब्दों में, “समाज तुलनात्मक रूप से सबसे बड़ा एक स्थाई समूह है। यह सामान्य हितों, सामान्य भू-भाग, सामान्य रहन-सहन और आपसी सहयोग अथवा अपनत्व की भावना से पूर्ण है और जिसके आधार पर वह स्वयं को बाहर के समूहों से पृथक् रखता है।” गिलिन की परिभाषा में जो समाज की विशेषतायें बतायी गयी हैं, वे वास्तव में समुदाय की विशेषतायें हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि कुछ भिन्नताओं के बावजूद सभी परिभाषाओं में इस बात पर सहमति है कि समाज का वास्तविक आधार सामाजिक सम्बन्ध ही है। वास्तव में यह कहना ही सर्वाधिक उपयुक्त है कि “समाज रीतियों और कार्य प्रणालियों, प्रभुत्व और पारस्परिक सहायता, विविध समूहों और श्रेणियों, मानव व्यवहार के नियन्त्रणों और स्वतन्त्रताओं की व्यवस्था है।” पर यह स्मरणीय है कि सामाजिक व्यवस्था कोई स्थिर या अचल व्यवस्था नहीं है वरन् गतिशील है। अतः एक समय में भिन्न-भिन्न सामाजिक व्यवस्थाओं और भिन्न-भिन्न समयों में एक सामाजिक व्यवस्था में रीतियों, कार्य प्रणालियों, प्रभुत्व और पारस्परिक सहायता समूहों और श्रेणियों तथा मानव व्यवहार के नियन्त्रणों और स्वतन्त्रताओं का स्वरूप निरन्तर बदलता रहता है।
समाज के प्रमुख आधार :
मैकाइवर एवं पेज ने अपनी परिभाषा के आधार पर समाज में जिन महत्त्वपूर्ण आधारों या तत्त्वों पर प्रकाश डाला है, वे निम्नलिखित हैं-
1. चलन अथवा रीतियाँ (Usages)
ये समाज की वे स्वीकृत पद्धतियाँ हैं जिन्हें समाज द्वारा व्यवहार के क्षेत्र में उचित समझा जाता है। प्रत्येक समाज में कार्य करने के लिए अपनी कुछ पृथक् रीतियाँ होती हैं, जैसे भोजन करने की रीति, शिक्षा प्राप्ति की रीति, संस्कारों को पूरा करने की रीति आदि। समाज के सदस्यों का दैनिक जीवन इन्हीं रीतियों अथवा चलनों से चलता है। इनके कारण प्रत्येक नई पीढ़ी को व्यवहार के निश्चित प्रतिमान मिल जाते हैं, उनको नए सिरे से प्रयोग नहीं करना पड़ता। सामाजिक जीवन में इन रीतियों का इतना महत्त्व है कि इन्हीं के द्वारा समाज के सदस्यों का खान-पान, उठना-बैठना, शादी-त्यौहार, शिक्षा-संस्कार और उनका तौर-तरीका आदि निश्चित होता है। इन्हीं के अन्तर के कारण दो भिन्न-भिन्न समाज के लोगों के जीवन में अन्तर दिखाई पड़ता है, जैसे हिन्दू समाज और मुस्लिम समाज में।
रीतियाँ सामाजिक संगठन की स्थापना में अत्यधिक सहायक होती हैं और कुछ विशेष प्रकार के सम्बन्धों को जन्म देती हैं, जैसे हिन्दू समाज में वैवाहिक रीतियाँ पति-पत्नी के सम्बन्धों में इतना अधिक स्थायित्व उत्पन्न कर देती हैं जितना प्रायः अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। सम्बन्धों का रूप निश्चित करने में ये रीतियाँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
2. कार्य-प्रणालियाँ (Procedures)
मैकाइवर ने ‘कार्य-प्रणालियों’ शब्द का प्रयोग संस्थाओं (Institutions) के लिए किया है, क्योंकि संस्थाएँ सामूहिक कार्य को करने की सर्वोच्च प्रणालियाँ होती हैं। प्रत्येक समाज में उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कुछ विशेष प्रणालियाँ अपनाई जाती हैं और समाज के सदस्यों से आशा की जाती है कि वे इनके द्वारा अपने कार्यों को पूरा करेंगे। ये कार्य-प्रणालियाँ बड़ी सीमा तक ऐसी होती हैं जिनसे व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति सुगमता पूर्वक हो सके तथा संस्कृति के विकास को प्रोत्साहन मिल सके। समाज में विवाह, शिक्षा, धार्मिक विश्वासों आदि की कार्य प्रणालियों या विधियों का बड़ा महत्त्वपूर्ण भाग है।
3. प्रभुत्व या अधिकार सत्ता (Authority)
प्रभुत्व अथवा अधिकार-सत्ता से एक ऐसे सम्बन्ध का बोध होता है जिसमें समाज के कुछ व्यक्तियों के सम्बन्ध अधिकार के होते हैं और कुछ व्यक्तियों के सम्बन्ध अनुसरण करने वालों या अधीनता मानने वालों के। इस कारण सम्बन्धों में एक प्रकार की व्यवस्था बनी रहती है। कोई भी व्यक्ति अनियन्त्रित रूप से सम्बन्धों की स्थापना नहीं कर पाता। अधिकार-सत्ता की धारणा प्रत्येक समूह में पाई जाती है, उदाहरणार्थ- राज्य में राजा अथवा प्रभुसत्ता, परिवार में कर्त्ता और संस्थाओं में प्रधान, व्यक्ति अधिकार प्राप्त करके व्यवस्था बनाए रखने का प्रयास करते हैं ।
4. परस्पर सहयोग (Mutual Co-operation)
सामाजिक सम्बन्धों को स्थापित करने में यह समाज का अधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। पारस्परिक सहयोग के अभाव में किसी प्रकार भी समाज के संगठन की कल्पना नहीं की जा सकती। इसके बढ़ने से समाज का विकास होता है और घटने से समाज छिन्न-भिन्न होने लगता है। प्राचीन काल में और सभ्यता के मध्य स्तर तक पारस्परिक सहयोग की भावना एक छोटे समूह तक ही सीमित थी, अतः समाज का आकार भी सीमित होता था, लेकिन ज्यों-ज्यों पारस्परिक सहयोग का क्षेत्र मापा गया त्यों-त्यों समाज का विस्तार भी होता गया और आज इसी कारण हमें समाज के विशालकाय रूप के दर्शन होते हैं।
5. समूह और विभाग ( Grouping and Divisions)
इनसे मैकाइवर का अभिप्राय उन सभी समूहों और संगठनों से है जो परस्पर सम्बद्ध रहकर समाज को व्यवस्थित बनाते हैं। समाज एक विशाल व्यवस्था है जिसके निर्माण में अनेक समूहों और सामाजिक विभागों की शक्ति निहित होती है। समान हितों अथवा समान उद्देश्यों वाले व्यक्ति मिलकर विभिन्न प्रकार के समूह बनाते हैं और पारस्परिक सहयोग से अपने उद्देश्यों को पूरा करते हैं ।
समाज के अन्तर्गत परिवार, पड़ोस, गाँव, नगर, प्रान्त, विविध संस्थाएँ और समितियाँ आदि सामाजिक विभाग सम्मिलित हैं जिनमें से प्रत्येक हमारे सम्बन्धों को किसी न किसी रूप में और किसी न किसी सीमा तक प्रभावित करता है। ये समूह और विभाग मानव-विकास का मूल स्रोत हैं। इनसे किया गया अनुकूलन ही व्यक्ति के समाजीकरण का आधार है।
6. मानव व्यवहार के नियन्त्रण (Controls of Human Behaviour)
समाज में मनुष्य को अपना मनचाहा व्यवहार करने के लिए स्वतन्त्र नहीं छोड़ा जा सकता। व्यवस्था बनाए रखने के लिए व्यक्तियों तथा समूहों के व्यवहारों पर नियन्त्रण रखना नितान्त आवश्यक है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो मनुष्य का सामाजिक जीवन लगभग असम्भव बन जाएगा। मानव व्यवहार पर नियन्त्रण के दो रूप हो सकते हैं – औपचारिक एवं अनौपचारिक। कानून, प्रचार, प्रशासन आदि औपचारिक नियन्त्रण की विधियाँ हैं जबकि धर्म, प्रथा, , नैतिकता, जन-रीतियाँ आदि अनौपचारिक नियन्त्रण की विधियाँ हैं। नियन्त्रण के साधन कुछ भी हों, लेकिन समाज को व्यवस्थित रखने के लिए उनका क्रियाशील होना नितान्त आवश्यक है।
7. स्वतन्त्रता (Liberty)
नियन्त्रणों के साथ-साथ स्वतन्त्रता भी आवश्यक है, अन्यथा समाज की उन्नति नहीं हो सकती, मनुष्य का समुचित विकास नहीं हो सकता। स्वतन्त्रता का अनुभव करने पर ही व्यक्ति सामाजिक सम्बन्धों का विकास परिस्थितियों के अनुसार स्वयं कर सकते हैं। कोई भी व्यवस्था सदस्यों पर केवल नियन्त्रण थोप कर और स्वतन्त्रता के क्षेत्र को कम से कम करके जीवित नहीं रह सकती । मानव समाज परिवर्तनशील है, परिवर्तन में ही उसकी जीवन-शक्ति है और इस शक्ति को बनाए रखने के लिए स्वतन्त्रता का होना अनिवार्य है।
इस प्रकार मैकाइवर एवं पेज ने समाज के सात आवश्यक आधार अथवा तत्त्व बताए हैं और स्पष्ट किया है कि सभी सामाजिक सम्बन्ध परस्पर गुंथे हुए हैं। समाज अनेक परिस्थितियों के परिणामस्वरूप निर्मित, सामाजिक सम्बन्धों की एक जटिल व्यवस्था है और चूँकि सभी परिस्थितियाँ समयानुसार परिवर्तित होती रहती हैं, अतः समाज की प्रकृति में भी परिवर्तन होते रहना स्वाभाविक है।
समाज की विशेषताएं अथवा उसके मुख्य तत्त्व :
समाज की संकल्पना (Concept) को स्पष्ट करने के लिए उन विशेषताओं का उल्लेख करना उपयोगी होगा जो समाज में सर्वव्यापी रूप से पाई जाती हैं। ये विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
1. समाज अमूर्त (Abstract) है
‘सामाजिक सम्बन्धों के जाल‘ का नाम ही समाज है, अतः समाज कोई प्रत्यक्ष स्थूल वस्तु नहीं है। ‘सम्बन्धों’ का हम अनुभव कर सकते हैं, उन्हें देख नहीं सकते। इस प्रकार चूँकि सम्बन्ध अमूर्त हैं, अतः समाज भी अमूर्त है। हम प्रत्यक्ष रूप में नहीं दिखा सकते कि समाज अमुक वस्तु है। जहाँ सामाजिक सम्बन्ध व्यवस्थित रूप में मौजूद हैं, वहीं समाज की सत्ता को स्वीकार करना होगा।
2. समाज जागरूकता (Awareness) पर आधारित है
जागरूकता की उपस्थिति समाज का आवश्यक तत्त्व है, क्योंकि इसके अभाव में सामाजिक सम्बन्धों का निर्माण नहीं हो सकता। जागरूकता का अर्थ है – “किसी स्थिति के प्रति मानसिक चेतना।” समाज में समानताओं, असमानताओं, सहयोग, संघर्ष आदि विभिन्न दशाओं के प्रति व्यक्ति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जागरूक रहते हैं। इस जागरूकता से ही सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना होती है।
3. समाज में समानता और भिन्नता (Likeness and Differences ) दोनों सन्निहित हैं
समाज में समानता और भिन्नता दोनों का अस्तित्व है। बाह्य रूप से दोनों परस्पर विरोधी लगती हैं, लेकिन आन्तरिक रूप से दोनों एक-दूसरे की पूरक हैं। समाज के अस्तित्व के लिए यदि समान उद्देश्यों, समान विचारों, समान मनोवृत्तियों, समान शरीरों की आवश्यकता है तो उद्देश्य प्राप्ति के साधनों में भिन्नता का होना भी आवश्यक है, क्योंकि इन भिन्नताओं से ही सामाजिक जीवन का विस्तार होता है। मनुष्यों के प्रमुख सामाजिक उद्देश्य (प्रजनन, शिशु रक्षा, शरीर रक्षा, भोजन संग्रह आदि) समान होते हैं, लेकिन इन उद्देश्यों की पूर्ति के साधनों या प्रविधियों में भिन्नता आवश्यक है क्योंकि तभी समाज का विकास और विस्तार होगा। समाज में एक वस्तु दूसरे को दी जाती है और एक वस्तु दूसरे से ली जाती है। यह आदान-प्रदान सामाजिक सम्बन्धों का महत्त्वपूर्ण आधार है और इसका अस्तित्व तभी सम्भव है जब विभिन्नताओं का अस्तित्व हो।
4. समाज में भिन्नता समानता के अधीन है
यद्यपि समाज के लिए समानता और भिन्नता दोनों आवश्यक हैं, लेकिन भिन्नता समानता के अधीन है। अर्थात् समानता प्राथमिक है और भिन्नता गौण। इस स्थिति को अनेक उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। समाज में जो श्रम विभाजन पाया जाता है उसका कारण विभिन्न व्यक्तियों की योग्यताओं और सामर्थ्य में भिन्नता होना है। लेकिन श्रम विभाजन वास्तव में लोगों के पारस्परिक सहयोग का ही परिणाम है। लोगों की आवश्यकताएँ मौलिक रूप से समान होती हैं, अतः वे असमान कार्यों के करने में परस्पर सहयोगी बनते हैं। विभिन्न व्यक्ति विभिन्न कार्य करके विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन करते हैं ताकि समाज की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके।
व्यक्तियों की भिन्न-भिन्न योग्यताओं और सामर्थ्य का समुचित उपयोग इसलिए हो पाता है कि उनमें सहयोग और समानता की भावनाओं की प्रधानता है। व्यापार, , उद्योग आदि में मुनाफा कमाने के ‘समान’ लक्ष्य से लोग साझेदारी करते हैं और अपनी-अपनी योग्यतानुसार अलग-अलग कार्य संभाल लेते हैं। भिन्नता का तत्त्व उनकी साझेदारी में सहायक अवश्य होता है, लेकिन उसका स्थान गौण है क्योंकि प्रधान तत्त्व तो मुनाफा कमाने का समान उद्देश्य है। संक्षेप में, ‘समान’ लक्ष्य को मानकर लोग ‘असमान’ साधनों और कार्यों द्वारा उस लक्ष्य को पाने का प्रयत्न करते हैं।
5. एक से अधिक व्यक्तियों की सत्ता अनिवार्य है
एक व्यक्ति से समाज का निर्माण नहीं हो सकता। समाज का निर्माण तभी होता है जब अनेक व्यक्ति एक-दूसरे के साथ सम्बन्ध स्थापित करते हैं।
6. समाज अन्योन्याश्रितता पर आधारित है
सामाजिक सम्बन्ध किसी न किसी रूप में एक-दूसरे पर आश्रित होते हैं, अत: यह कहा जाता है कि समाज अन्योन्याश्रितता पर आधारित है। प्राचीन समाज में व्यक्तियों की आवश्यकताएँ न्यूनतम थीं तब भी स्त्री-पुरुष एक-दूसरे पर निर्भर थे। आधुनिक समाज सुविशाल है जिसमें आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक सम्बन्धों का जटिल ताना-बाना है। आधुनिक जीवन का ऐसा कोई पहलू नहीं है जिसमें व्यक्ति पूरी तरह आत्म-निर्भर हो। उसे किसी न किसी रूप में अनिवार्यतः दूसरे लोगों के साथ सम्बन्ध स्थापित करते हुए चलना पड़ता है। ज्यों-ज्यों समाज अधिक जटिल और विकसित होता जाएगा, लोगों की पारस्परिक निर्भरता भी बढ़ती जाएगी। पारस्परिक सम्बन्ध ही सामाजिकता का आधार हैं जिनकी अनुपस्थिति में समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
7. समाज में सहयोग और संघर्ष का अस्तित्व
सहयोग और संघर्ष सामाजिक अन्तक्रिया की महत्त्वपूर्ण प्रक्रियाएँ हैं। सहयोग वह प्रक्रिया है जो समाज को संगठित करती है, कार्यक्रम बनाती है और व्यक्तियों को इस बात की प्रेरणा देती है कि वे परस्पर मिलकर कार्य करें। प्रत्येक व्यक्ति का सामाजिक जीवन सहयोग पर ही आधारित है, क्योंकि कोई भी अकेला व्यक्ति अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं नहीं कर सकता। सहयोग की प्रक्रिया समाज में जागृति, प्रगति और प्राण-शक्ति का संचार करती है। सहयोग के समान ही संघर्ष की उपस्थिति भी समाज में होती है। सामाजिक सम्बन्ध सदैव सहयोगी ही नहीं होते, असहयोगी भी होते हैं।
संघर्ष एक सार्वभौमिक सामाजिक प्रक्रिया है जो किसी न किसी रूप में और किसी न किसी मात्रा में प्रत्येक समाज में हर समय पाई जाती है। प्रत्येक सामाजिक सम्बन्ध प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से न्यूनाधिक रूप में संघर्ष के साथ आवश्यक रूप से जुड़ा रहता है । संघर्ष मानवीय क्रियाओं को गतिशीलता और जागरूकता प्रदान करता है। लोगों के विभिन्न व्यक्तिगत लक्ष्य होते हैं जिन्हें पाने की होड़ में संघर्ष का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। संघर्ष का स्वस्थ स्वरूप मानव समाज को आगे ले जाता है। संघर्ष औचित्य की सीमा को लाँघ न जाए, इसके लिए आवश्यक नियन्त्रण वांछित है।
इस प्रकार हमने देखा कि समाज का अर्थ जीवन, समानता, असमानता, पारस्परिक निर्भरता, सहयोग, संघर्ष और अमूर्तता है। यद्यपि अन्य जीवनधारी भी समाज से मिलती-जुलती व्यवस्था का निर्माण करते हैं, लेकिन उनमें मानसिक जागरूकता की स्थिति मनुष्य से बहुत कम होती है, संस्कृति जैसी कोई चीज उनमें होती ही नहीं है। समाजशास्त्र में हम केवल मानव समाज का ही अध्ययन करते हैं।
समाज के प्रकार/वर्गीकरण :
समाजशास्त्र समाज का अध्ययन करता है और समाज का कोई भी अध्ययन तब तक अधूरा है जब तक हम समाज के प्रकारों के बारे में जानकारी प्राप्त नहीं कर लें। विभिन्न विद्वानों ने समाज का विभिन्न प्रकार से वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। कुछ वर्गीकरण इस प्रकार हैं-
स्पेन्सर का वर्गीकरण
स्पेन्सर ने समाजों के चार प्रकार बताए हैं-
- सरल समाज (Simple Societies)
- मिश्रित समाज (Compounded Societies)
- दोहरे मिश्रित समाज (Doubly-compounded Societies)
- तिहरे मिश्रित समाज (Triply-compounded Societies)
‘सरल समाज‘ आदिम समाज है जो बहुत छोटे आकार के होते हैं और जिनमें श्रम विभाजन नहीं बराबर पाया जाता है। एक ही व्यक्ति विभिन्न प्रकार के कार्य करता है। सामाजिक स्तरीकरण के रूप-निर्धारण में गुणों का नहीं वरन् जन्म का विशेष महत्त्व होता है। सरल समाजों में धर्म और परम्परा का विशेष प्रभाव देखने को मिलता है और राजनीतिक संगठन भी काफी सरल प्रकार का होता है।
‘मिश्रित समाज‘ भी आदिम समाज का ही एक रूप है किन्तु यह सरल समाज से कुछ अधिक विकसित होता है। सरल समाज की तुलना में इसका आकार भी कुछ बड़ा होता है और श्रम-विभाजन भी कुछ अधिक पाया जाता है। सामाजिक स्तरीकरण के निर्धारण में परम्पराओं तथा आर्थिक कारकों का अधिक महत्त्व होता है। राजनीतिक संगठन प्रायः वंशानुगत होता है। तथा कुछ सामाजिक नियमों को ध्यान में रखा जाता है।
‘दोहरे मिश्रित समाज‘ भी आदिम समाज का ही एक रूप है लेकिन ये सरल और मिश्रित समाजों की तुलना में कुछ अधिक विकसित और बड़े होते हैं। इन समाजों में श्रम विभाजन भी उपर्युक्त दोनों प्रकार के समाजों की अपेक्षा कुछ अधिक पाया जाता है। सामाजिक स्तरीकरण मुख्यतः सामाजिक-आर्थिक आधार पर होता है और राजनीतिक संगठन कुछ जटिल होता है।
‘तिहरे मिश्रित समाज’ सभ्य समाज का एक रूप है। इन समाजों का आकार उपर्युक्त तीनों प्रकार के आदिम समाजों की तुलना में बड़ा होता है। इनमें जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में श्रम-विभाजन पाया जाता है। परम्परा और धर्म का महत्त्व तुलनात्मक रूप में कुछ कम होता है। विभिन्न आधारों पर सामाजिक स्तरीकरण का निर्धारण होता है। राजनीतिक संगठन भी तुलनात्मक रूप से अधिक जटिल पाया जाता है।
दुर्खीम का वर्गीकरण
दुर्खीम ने भी समाज के चार प्रकार बतलाए हैं –
- सरल समाज (Simple Societies)
- सरल बहुखण्डीय समाज (Simple Poly-scgmentary Societies)
- मिश्रित बहुखण्डीय समाज (Compounded Poly-segmentary Societies)
- दोहरे मिश्रित बहुखण्डीय समाज (Doubly compounded Poly-segmentary Societies)
‘सरल समाज’ को दुर्खीम ने एक छोटे आकार वाला एक ऐसा अकेला समूह बताया है जिसमें कोई उच्च स्तरीय व्यवस्था नहीं पाई जाती। फिर भी समाज के सदस्य एक-दूसरे से सहयोग करते हैं। इस पारस्परिक सहयोग से सभी कार्य सम्पन्न होते हैं अथवा सामाजिक लक्ष्यों की प्राप्ति हो जाती है। झुण्ड (Horde) तथा गोत्र (Clan) इस प्रकार के सरल समाजों के उदाहरण हैं।
‘सरल बहुखण्डीय समाज‘ में यद्यपि अधिकतर विशेषताएँ ‘सरल समाज’ की ही पाई जाती हैं लेकिन आन्तरिक रूप से ऐसा समाज अनेक खण्डों में विभक्त होता है। इसीलिए दुर्खीम ने इसे ‘सरल बहुखण्डीय समाज’ कहा है। दुर्खीम के अनुसार वे जनजातियाँ, जिनमें भ्रातृदल पाए जाते हैं, बहुखण्डीय समाजों का उदाहरण हैं। भ्रातृदल का अर्थ स्पष्ट करते हुए डॉ. दुबे ने लिखा है – “संगठन की दृष्टि से कभी-कभी कई गोत्र मिलकर एक समूह बना लेते हैं। इसे ही हम भ्रातृदल कहते हैं।” टोडा जनजाति ‘सरल बहुखण्डीय समाज’ का एक अच्छा उदाहरण है।
मिश्रित बहुखण्डीय समाजों के अन्तर्गत वे आदिम जनजातीय समाज आते हैं जो अनेक गोत्र-समूहों से मिलकर बनते हैं। इन गोत्र-समूहों में मिश्रित विशेषताएँ देखने को मिलती हैं। ये समाज भौतिक साधनों की समानता के आधार पर प्रायः छोटे-छोटे खण्डों में विभाजित होते हैं।
दोहरे मिश्रित बहुखण्डीय समाजों के उदाहरण बड़े जनजातीय समाज हैं। मिश्रित बहुखण्डीय समाजों से मिलकर जो बड़े समाज बनते हैं उन्हें दुर्खीम ने ‘दोहरे मिश्रित बहुखण्डीय समाज’ कहा है।
कार्ल मार्क्स का वर्गीकरण
आर्थिक व्यवस्था को एक निर्णायक संस्था मानकर कार्य मार्क्स ने समाजों का अपना वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। एक स्थल पर मार्क्स ने लिखा है- “व्यापक रूप से हम एशियाई, प्राचीन, सामन्तवादी एवं आधुनिक उत्पादन के तरीकों को समाज की आर्थिक निर्माण की प्रगति में कई अवस्थाएँ मान सकते हैं।” दूसरे स्थान पर मार्क्स एवं एन्जिल्स ने आदिम साम्यवादी, प्राचीन समाज, सामन्तवादी समाज तथा पूँजीवाद को मानव इतिहास की प्रमुख अवस्थाएँ (युग ) कहा है। प्रख्यात समाजशास्त्री बॉटोमोर का निष्कर्ष है कि यदि इन दोनों योजनाओं को मिला दिया जाए तो मार्क्स के वर्गीकरण में हमें समाजों के पाँच मुख्य प्रकार मिलते हैं-
- आदिम समाज ( Primitive Society)
- एशियाई समाज (Asian Society)
- प्राचीन समाज ( Ancient Society)
- सामन्तवादी समाज ( Feudalist Society)
- पूँजीवादी समाज (Capitalist Society)
आदिम समाज में उत्पादन के साधनों पर सम्पूर्ण समुदाय का समान अधिकार होता है, किसी व्यक्ति-विशेष अथवा कुछ व्यक्तियों का ही अधिकार नहीं। आदिम समाज में उत्पादन प्रणाली आदिम प्रकार की होती है। लोग तीर-कमान तथा पत्थर के औजारों की सहायता से कुछ उत्पादन तथा पशुओं के शिकार से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। संयुक्त श्रम के आधार पर जो भी थोड़ा-बहुत उत्पादन होता है उसे समाज के सभी लोग आपस में बाँट लेते हैं। इस प्रकार के समाज में वर्ग-भेद और शोषण नहीं पाए जाते।
एशियाई समाज वह समाज है जिसकी कृषि प्रधान आर्थिक व्यवस्था उत्पादन की छोटी इकाइयों पर आधारित होती है। मार्क्स ने भारत को एशियाई समाज का एक अच्छा उदाहरण बताया है।
प्राचीन समाजों में परम्पराओं का विशेष प्रभाव होता है। परम्पराओं द्वारा ही व्यक्ति के व्यवहारों का निर्धारण होता है। उत्पादन प्रणाली अधिक विकसित नहीं होती। निजी सम्पत्ति की धारणा पाई जाती है, अतः सम्पत्ति का असमान वितरण देखने को मिलता है और फलस्वरूप आर्थिक आधार पर वर्ग-भेद पाया जाता है।
सामन्तवादी समाज वे हैं जिनमें भूमि और उत्पादन के साधनों पर कुछ सामन्तों या जमींदारों का अधिकार होता है, साधारण किसानों का नहीं। सामन्त लोग किसानों का शोषण करते हैं। राजनीतिक शक्ति कुछ लोगों में केन्द्रित होती है। वर्ग-भेद तथा वर्ग संघर्ष भी काफी मात्रा में पाए जाते हैं।
पूँजीवादी समाजों में मशीनों की सहायता से वृहद् स्तर पर उत्पादन किया जाता है। वास्तव में इस प्रकार के समाजों की स्थापना में मशीनों का आविष्कार तथा औद्योगीकरण का विशेष योग है। उत्पादन के साधनों पर पूँजीपतियों का अधिकार होता है जो वेतनभोगी श्रमिकों से उत्पादन कार्य कराते हैं। अधिकाधिक लाभ कमाने के कारण पूँजीपति अधिकाधिक धनी होते जाते हैं जबकि श्रमिकों का शोषण होता है और वे अपना श्रम इतना सस्ता बेचने को विवश होते हैं कि अपनी अनिवार्यताओं की पूर्ति भी नहीं कर पाते। प्रायः औद्योगिक अशान्ति देखने को मिलती है ।
कार्ल मार्क्स ने उपर्युक्त पाँच प्रकार के समाजों के अतिरिक्त समाज का एक अन्य प्रकार या रूप भी बतलाया है और वह है- समाजवादी समाज (Socialistic Society)। मार्क्स की मान्यता थी कि पूँजीवादी समाजों में अमीरी-गरीबी बढ़ने के साथ-साथ तीव्र वर्ग-चेतना जागृत होगी और फलस्वरूप वर्ग संघर्ष होगा जिसमें पूँजीपति वर्ग समाप्त हो जाएगा और एक
वर्ग-विहीन समाज की स्थापना हो जायेगी। इस समाज में निजी सम्पत्ति का कोई स्थान नहीं होगा और उत्पादन के साधनों पर समूचे समाज का अधिकार होगा। सब अपनी योग्यता के अनुसार कार्य करेंगे और आवश्यकता के अनुसार प्राप्त करेंगे। वर्तमान समय में चीन समाजवादी समाज का उदाहरण प्रस्तुत करता है।
बॉटोमोर का वर्गीकरण
बॉटोमोर ने तीन आधारों पर समाजों को वर्गीकृत किया है –
1. संस्थाओं की पद्धति के आधार पर
इसमें आर्थिक संस्थाओं की प्रधानता देते हुए समाज के दो रूप बताए हैं-
- एशियायी समाज
- पश्चिमी समाज
2. सामाजिक समूहों की संख्या तथा उनके स्वरूप के आधार पर
इसके आधार पर दो प्रकार बताए हैं-
- आदिम समाज
- सभ्य समाज
3. सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूप के आधार पर
बॉटोमोर ने इस आधार पर भी समाजों के दो वर्ग किये हैं—
- वैयक्तिक और प्रत्यक्ष सामाजिक सम्बन्धों की प्रधानता वाले समाज
- अवैयक्तिक और अप्रत्यक्ष सामाजिक सम्बन्धों की प्रधानता वाले समाज
वैयक्तिक और प्रत्यक्ष सामाजिक सम्बन्धों की प्रधानता वाले समाज में परिवार, पड़ोस, नातेदारी समूह, गाँव आदि की प्रधानता पाई जाती है। भारत इस प्रकार के समाज का अच्छा उदाहरण है। अवैयक्तिक और अप्रत्यक्ष सामाजिक सम्बन्धों की प्रधानता वाले समाज में विशेष हितों की पूर्ति के लिए बनाई गई समितियों की प्रधानता रहती है। पश्चिम के समाजों को ऐसे समाज का उदाहरण माना जा सकता है।
बॉटोमोर का अभिमत है कि समाज के विभिन्न प्रकारों के विशुद्ध उदाहरण मिलना अत्यधिक कठिन है। फिर भी यह वर्गीकरण और विश्लेषण वास्तव में पाये जाने वाले समाजों के अध्ययन में लाभप्रद है।