# वी. वी. उत्तरवार बनाम महाराष्ट्र राज्य वाद

वी. वी. उत्तरवार बनाम महाराष्ट्र राज्य वाद :

वी. वी. उत्तरवार वाद व्यक्तिगत अधिकारों के साथ-साथ सामाजिक न्याय एवं अधिकारों के महत्व को रखने एवं समाजवादी प्रवृत्ति पर बल देने से सम्बन्धित है।

संविधान भाग-3 में उल्लिखित मौलिक अधिकारों के साथ-साथ, भाग-4 में निहित निदेशक सिद्धान्तों को देश के शासन में आधारभूत सिद्धान्त मानता है। न्यायालय ने, अपने निर्णयों में समय-समय पर सुस्थापित किया, कि भाग- 3 एवं 4 के उपबन्धों, के बीच कोई संघर्ष नहीं है, संविधान का स्पष्ट दर्शन लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं में अनुप्राणित करेगा।

यद्यपि राज्य के नीति निदेशक सिद्धान्त किसी सुनिश्चित विधिक अधिकार अथवा विधिक उपचार को सामाजिक आर्थिक व्यवस्था हेतु स्थापित नहीं करते, फिर भी ये शासन के आधार स्तम्भ तथा न्यायालय के लिए महत्वपूर्ण प्रकाश स्तम्भ हैं। यदि प्रतिबन्ध भी आरोपित किए जाते हैं तो उन्हें युक्तियुक्त होना चाहिए। इन निदेशक सिद्धान्तों ने न्यायिक पुनर्विलोकन में न्यायपालिका के लिए आदर्श प्रस्तुत कर महती सेवा की है।

राजनीतिक व्यवस्था में न्यायालय ने निदेशक सिद्धान्तों को निर्णयों में महत्वपूर्ण स्थान दिया है और प्रतिबन्धों की युक्तियुक्तता को सुनिश्चित कर एक नई समाजवादी प्रवृत्ति जन्म दिया।

वी. वी. उत्तरवार वाद में मौलिक अधिकारों एवं निदेशक  सिद्धान्तों के सन्दर्भ में न्यायाधीश मसोदकर ने स्पष्टतः अभिनिर्धारित किया था कि – “यदि कोई विधि दो व्याख्याओं को परिलक्षित करती है – एक, जो निदेशक सिद्धान्तों को बनाए रखती है एवं उसके उद्देश्यों के अनुरूप है, एवं दूसरी, सिद्धान्तों के विपरीत में अर्थ देती है, तो जो व्याख्या निदेशक सिद्धान्तों को पुष्ट करती है, एवं लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायक है, का ही पालन किया जाना चाहिए।”

इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मौलिक अधिकारों के निर्वचन में निदेशक सिद्धान्तों को महत्वपूर्ण एवं पूरक माना गया, इस दृष्टि से, न्यायिक निर्णयों से व्यक्तिगत अधिकारों की अपेक्षा सामाजिक अधिकारों की एक नई प्रवृत्ति प्रारम्भ हुयी। प्रारम्भिक निर्णयों में न्यायालय जहाँ मौलिक अधिकारों को ही बाद योग्य होने के कारण प्रमुखता देते थे, वहीं इन नवीन निर्णयों से निदेशक सिद्धान्तों में निहित लक्ष्यों को भी बल मिला तथा दोनों ही भागों में उल्लिखित अधिकारों को एक दूसरे के पूरक मानने सम्बन्धी निर्णयों से एक नये आधार को बल मिला।

The premier library of general studies, current affairs, educational news with also competitive examination related syllabus.

Related Posts

# भारतीय संघीय संविधान के आवश्यक तत्व | Essential Elements of the Indian Federal Constitution

भारतीय संघीय संविधान के आवश्यक तत्व : भारतीय संविधान एक परिसंघीय संविधान है। परिसंघीय सिद्धान्त के अन्तर्गत संघ और इकाइयों में शक्तियों का विभाजन होता है और…

# भारतीय संविधान में किए गए संशोधन | Bhartiya Samvidhan Sanshodhan

भारतीय संविधान में किए गए संशोधन : संविधान के भाग 20 (अनुच्छेद 368); भारतीय संविधान में बदलती परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुसार संशोधन करने की शक्ति संसद…

# भारतीय संविधान की प्रस्तावना | Bhartiya Samvidhan ki Prastavana

भारतीय संविधान की प्रस्तावना : प्रस्तावना, भारतीय संविधान की भूमिका की भाँति है, जिसमें संविधान के आदर्शो, उद्देश्यों, सरकार के संविधान के स्त्रोत से संबधित प्रावधान और…

# भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं | Bharatiya Samvidhan Ki Visheshata

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत के संविधान सभा ने भारत का नवीन संविधान निर्मित किया। 26 नवम्बर, 1949 ई. को नवीन संविधान बनकर तैयार हुआ। इस संविधान…

# प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य | Freedom of Press and Expression

प्रेस की स्वतन्त्रता : संविधान में प्रेस की आज़ादी के विषय में अलग से कोई चर्चा नहीं की गई है, वहाँ केवल वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता…

# एम. सी. मेहता बनाम तमिलनाडु राज्य वाद

एम. सी. मेहता बनाम तमिलनाडु राज्य वाद : एम. सी. मेहता बनाम तमिलनाडु राज्य वाद में प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता और अधिवक्ता श्री एम. सी. मेहता ने लोकहित…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

ten + 7 =