लोक-कल्याणकारी राज्य का अर्थ :
लोक-कल्याणकारी राज्य का तात्पर्य अपनी सम्पूर्ण जनता का सर्वांगीण विकास करना तथा लोकहित करना है। लोकहित से तात्पर्य राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से व्यक्ति की अवसर की असमानता को दूर कर उसकी साधारण आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था करना होता है। इस व्यवस्था का उद्देश्य किसी समुदाय विशेष, वर्ग विशेष अथवा समाज के किसी अंग विशेष का हित-साधन मात्र नहीं होता, अपितु सम्पूर्ण समाज का हित साधन करना होता है।
लोक-कल्याणकारी राज्य की परिभाषाएं :
लोक-कल्याणकारी राज्य की प्रमुख परिभाषाएं निम्नलिखित है-
1. टी. डब्ल्यू. कैन्ट के अनुसार, “लोक-कल्याणकारी राज्य वह राज्य है जो अपने नागरिकों के लिए व्यापक समाज सेवाओं की व्यवस्था करता है। इन समाज सेवाओं के अनेक रूप होते हैं। इनके अन्तर्गत शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी तथा वृद्धावस्था में पेंशन आदि की व्यवस्था होती है। इसका मुख्य उद्देश्य नागरिकों की सभी प्रकार से सुरक्षा करना होता है।”
2. डॉ. अब्राहम लिंकन के अनुसार, “वह समाज जहाँ राज्य की शक्ति का प्रयोग निश्चयपूर्वक साधारण आर्थिक व्यवस्था को इस प्रकार परिवर्तित करने के लिए किया जाता है कि सम्पत्ति का अधिक से अधिक उचित वितरण हो सके, लोक-कल्याणकारी राज्य कहलाता है।”
3. डॉ. आशीर्वादम् के अनुसार, “लोक कल्याणकारी राज्य का अर्थ है- राज्य के कार्य-क्षेत्र का विस्तार, ताकि अधिक से अधिक लोगों का कल्याण हो सके।”
4. एम. सी. छागला के अनुसार, “लोक-कल्याणकारी राज्य का कार्य एक ऐसे पुल का निर्माण करना है, जिसके द्वारा व्यक्ति जीवन की पतित अवस्था से निकलकर एक ऐसी अवस्था में प्रवेश कर सके, जो उत्थानकारी और उद्देश्यपूर्ण हो।”
लोक-कल्याणकारी राज्य की विशेषताएं :
लोक-कल्याणकारी राज्यों की निम्नलिखित विशेषताएं हो सकती है-
1. राज्य के कार्यक्षेत्र में वृद्धि
लोक-कल्याणकारी सिद्धान्त व्यक्तिवादी विचारक के विरुद्ध एक प्रक्रिया है और इस मान्यता पर आधारित है कि राज्य को वे सभी हितकारी कार्य करने चाहिए जिनके करने से व्यक्तिगत स्वतन्त्रता कम या नष्ट नहीं होती।
2. राजनीतिक सुरक्षा का प्रबन्ध
ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि सभी व्यक्तियों में राजनीतिक शक्ति निहित हो और वे अपने विवेकानुसार इस शक्ति का प्रयोग कर सकें।
इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु अग्रलिखित तत्व आवश्यक है-
i. प्रजातन्त्रात्मक पद्धति
राजतन्त्र, अधिकनायकतन्त्र या कुलीनतन्त्र के अन्तर्गत नागरिकों को कोई राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं होते हैं। केवल लोकतन्त्रात्मक शासन में ही नागरिकों को ये अधिकार प्राप्त होते हैं। अतः एक प्रजातन्त्रीय शासन पद्धति वाला राज्य ही लोक-कल्याणकारी राज्य हो सकता है।
ii. नागरिक स्वतन्त्रताएं
राजनीतिक सुरक्षा व शक्ति की कल्पना केवल तभी की जा सकती है, जबकि नागरिक स्वतन्त्रता का वातावरण हो, अर्थात् नागरिकों को विचार अभिव्यक्ति और राजनैतिक दलों के संगठनों की स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए।
3. सामाजिक समानता की व्याख्या
धर्म, जाति, वर्ग व सम्प्रदायता का भेदभाव किये बिना व्यक्ति के रूप में महत्व प्रदान करना सामाजिक समानता का पर्याय है।
4. अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देना
लोक-कल्याणकारी राज्य, सम्पूर्ण संसार के व्यक्तियों के हितों से सम्बन्ध रखता है। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सहयोग को बढ़ावा देना और शान्ति व विकास में योग देना इसका लक्ष्य है। लोक-कल्याणकारी राज्य ‘वसुधैव कुटुम्बकम्‘ की धारणा पर आधारित विचार है।
5. आर्थिक सुरक्षा का प्रबन्ध
लोक-कल्याणकारी राज्य का प्रमुख आधार आर्थिक सुरक्षा की व्यवस्था है। आर्थिक सुरक्षा के प्रबन्ध के लिए निम्नलिखित तत्वों का होना आवश्यक है-
i. सभी को रोजगार के अवसर
ऐसे सभी व्यक्तियों को जो शारीरिक व मानसिक दृष्टि से कार्य करने की क्षमता रखते हैं, राज्य के द्वारा उनके योग्यतानुसार रोज़गार के अवसर अवश्य ही उपलब्ध कराये जाने चाहिए। कार्य करने में असमर्थ व्यक्तियों को जीवनयापन के लिए राज्य द्वारा ‘बेरोजगारी बीमे’ का प्रबन्ध होना चाहिए।
ii. सम्पत्ति व आय का सम-वितरण
आर्थिक सुरक्षा तभी स्थापित की जा सकती है, जबकि समाज में आर्थिक समानता हो, ताकि कोई भी व्यक्ति अपने धन के आधार पर किसी का शोषण न कर सके। सम्पत्ति व आय का वितरण समान होना चाहिए।
iii. न्यूनतम पारिश्रमिक का आश्वासन
प्रत्येक व्यक्ति को इतना वेतन अवश्य दिया जाना चाहिए, जिससे कि वह अपनी अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति कर सके व न्यूनतम जीवन-स्तर के साथ जीवन-यापन कर सके।
अर्थशास्त्री क्राउथर ने कहा है कि “नागरिकों के लिए अधिकार रूप में इन्हें स्वस्थ बनाये रखने के लिए पर्याप्त भोजन की व्यवस्था की जानी चाहिए, निवास, वस्त्र आदि के न्यूनतम जीवन स्तर की ओर से उन्हें चिन्ता रहित होना चाहिए, शिक्षा का उन्हें पूर्णतया समान अवसर प्राप्त होना चाहिए और बेरोजगारी, बीमारी तथा वृद्धावस्था के दुःख से उनकी रक्षा की जानी चाहिए।”
लोक-कल्याणकारी राज्य के प्रमुख कार्य :
लोक-कल्याणकारी राज्य के प्रमुख कार्य अग्रलिखित है-
1. आन्तरिक सुव्यवस्था और विदेशी आक्रमणों से रक्षा
एक राज्य जब तक विदेशी आक्रमणों से अपनी भूमि और सम्मान की रक्षा करने की क्षमता नहीं रखता और आन्तरिक शान्ति और सुव्यवस्था रखते हुए व्यक्तियों को जीवन की सुरक्षा का आश्वासन नहीं देता, उस समय तक वह राज्य कहलाने का ही अधिकारी नहीं है। इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए राज्य सेना और पुलिस रखता है, सरकारी कर्मचारियों तथा न्याय की व्यवस्था करता है और इन कार्यों से सम्बन्धित व्यय को पूरा करने के लिए नागरिकों पर कर लगाता है।
2. कृषि, उद्योग तथा व्यापार का नियमन और विकास
लोक-कल्याणकारी राज्य के दायित्व एक ऐसे राज्य के द्वारा ही पूरे किये जा सकते हैं, जो आर्थिक दृष्टि से पर्याप्त सम्पन्न हो, अतः इस प्रकार के राज्य द्वारा कृषि, उद्योग तथा व्यापार के नियमन एवं विकास का कार्य किया जाना चाहिए। इसमें मुद्रा निर्माण, प्रामाणिक माप और तौल की व्यवस्था, व्यवसायों का नियमन, कृषकों को राजकोषीय सहायता, नहरों का निर्माण, बीज वितरण के लिए गोदाम खोलना और कृषि सुधार इत्यादि सम्मिलित हैं। राज्य के द्वारा जंगल आदि प्राकृतिक साधनों और सम्पत्ति की रक्षा की जानी चाहिए और कृषि तथा उद्योगों के बीच सन्तुलन स्थापित किया जाना चाहिए।
3. आर्थिक सुरक्षा सम्बन्धी कार्य
लोक-कल्याणकारी राज्य का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य आर्थिक सुरक्षा सम्बन्धी होता है। आर्थिक सुरक्षा के अन्तर्गत अनेक बातें सम्मिलित हैं जिसमें सभी व्यक्तियों को रोजगार और अधिकतम समानता की स्थापना प्रमुख है। ऐसे सभी व्यक्तियों को जो शारीरिक और मानसिक दृष्टि से कार्य करने की क्षमता रखते हैं, राज्य के द्वारा उन्हें उनकी योग्यता के अनुसार किसी-न-किसी प्रकार का कार्य अवश्य ही दिया जाना चाहिए। जो व्यक्ति किसी प्रकार का कार्य करने में असमर्थ है या राज्य जिन्हें कार्य नहीं प्रदान कर सका है, उनके लिए राज्य जीवन-निर्वाह भत्ते की व्यवस्था की जानी चाहिए।
4. जनता के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाना
लोक-कल्याणकारी राज्य के द्वारा नागरिकों को न्यूनतम जीवन-स्तर की गारण्टी दी जानी चाहिए। ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि नागरिकों को अपने आपको स्वस्थ बनाये रखने के लिए पर्याप्त भोजन, वस्त्र, निवास, शिक्षा और स्वास्थ्य की सामान्य सुविधाएँ अवश्य ही प्राप्त हो। इसके साथ ही राज्य के द्वारा नागरिकों के जीवन-स्तर को निरन्तर ऊँचा उठाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए है।
5. शिक्षा और स्वस्थ्य सम्बन्धी कार्य
लोक-कल्याणकारी राज्य का उद्देश्य व्यक्तियों के लिए उन सभी सुविधाओं की व्यवस्था करना होता है जो उनके व्यक्तियत विकास हेतु सहायक और आवश्यक हैं। इस दृष्टि से शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधा का विशेष उल्लेख किया जा सकता है। इस प्रकार, राज्य शिक्षण संस्थाओं की स्थापना करता है और एक निश्चित स्तर तक शिक्षा को अनिवार्य तथा निःशुल्क किया जाता है। औद्योगिक तथा प्रविधिक शिक्षा की व्यवस्था भी राज्य द्वारा की जाती है। इसी प्रकार चिकित्सालयों तथा प्रसूतिगृहों आदि की स्थापना की जाती है, जिनका उपयोग जन-साधारण निःशुल्क कर सकते हैं।
6. सार्वजनिक सुविधा सम्बन्धी कार्य
लोक-कल्याणकारी राज्य के द्वारा परिवहन, संचार साधन, सिंचाई के साधन, बैंक, विद्युत, कृषि के वैज्ञानिक साधनों आदि की व्यवस्था से सम्बन्धित सार्वजनिक सुविधा के कार्य भी किये जाते हैं। इन सुविधाओं के लिए राज्य के द्वारा उचित शुल्क भी प्राप्त किया जाता है और जो लाभ होता है, वह सार्वजनिक कोष में जाता है तथा उनका उपयोग भी स्वाभाविक रूप से अधिक सार्वजनिक सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए ही किया जाता है।
7. समाज-सुधार
कल्याणकारी राज्य का लक्ष्य व्यक्तियों का न केवल आर्थिक अपितु सामाजिक कल्याण भी होता है। इस दृष्टि से राज्य के द्वारा मद्यपान, बाल-विवाह, छुआछूत, जगति-व्यवस्था आदि परम्परागत सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के उपाय किये जाने चाहिए।
8. आमोद-प्रमोद की सुविधाएं
जनता को स्वस्थ मनोरंजन की सुविधाएँ प्रदान करने के लिए राज्य के द्वारा सार्वजनिक उद्यानों, क्रीड़ा, क्षेत्रों, सार्वजनिक तरणतालों, सिनेमागृहों, रंगमंच और रेडियो आदि का प्रबन्ध करना चाहिए।
लोक-कल्याणकारी राज्य की आलोचना
लोक-कल्याणकारी राज्य की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की जाती है-
1. व्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन
लोक-कल्याणकारी राज्य में राज्य को अधिकाधिक अधिकार देकर शक्तिशाली बनाया जाता है। राज्य जितना अधिक शक्तिशाली होता है, वह स्वतन्त्रता की भावना को उतना ही अधिक कुचलता है। व्यक्ति के विकास की दृष्टि से राज्य की शक्ति में वृद्धि अवांछनीय है।
2. नौकरशाही का बोलबाला
राज्य को अपने विस्तृत कार्यों करने के लिए नौकरशाही पर बहुत आश्रित रहना पड़ता है। अतः नौकरशाही अत्यन्त प्रभावशाली और शक्तिशाली हो जाती है। यह अत्यधिक शक्ति और अत्यधिक भ्रष्टाचार को जन्म देती है।
3. अकर्मण्य व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि
लोक-कल्याणकारी राज्य में समाज में निठल्ले, अकर्मण्य और निष्क्रिय व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि होती है। जब राज्य की ओर से बेकारी आदि के बीमे की राशि मुफ्त में मिलने लगती है तो बेकार लोग काम ढूँढने का प्रयत्न नहीं करते हैं, उनमें मुफ्तखोरी की प्रवृत्ति पैदा हो जाती है। यह उन्हें आलसी बना देती है और उनमें परिश्रम की भावना का लोप हो जाता है। इस प्रकार कल्याणकारी राज्य सर्वाधिक कोष में मौज उड़ाने वाले अपाहिजों का राज्य बन जाता है।
4. अधिक व्ययशील
राज्य व्यक्ति के सभी क्षेत्रों के विकास के लिए कार्य करता है। अतः उन कार्यो को पूरा करने के लिए उसे अधिक व्ययसाध्य व्यवस्था अपनानी पड़ती है। इसलिए यह व्यवस्था अपेक्षाकृत खर्चीली होती है।
निष्कर्ष :
लोक-कल्याणकारी राज्य वर्तमान समय के यद्यपि सर्वाधिक लोकप्रिय राज्य माने जाते हैं, किन्तु व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर आघात करने, नौकरशाही का भय होने, ऐच्छिक समुदाय पर आघात तथा अत्यधिक खर्चीली व्यवस्था होने के कारण इसकी आलोचना भी की जाती है। इन दोषों के होते हुए भी लोक-कल्याणकारी राज्य के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
क्या भारत एक लोक-कल्याणकारी राज्य है?
भारत में लोक-कल्याणकारी राज्य की परम्परा बहुत प्राचीन है। चौथी शताब्दी ई.पू. में मगध सम्राट चन्द्रगुप्त के महामात्य कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में यह व्यवस्था की थी कि राजा को प्रजा का पालन पिता की तरह करना चाहिए। बालक, बूढ़े, रोगी और विपत्तिग्रस्त अनाथ व्यक्तियों के भरण-पोषण की व्यवस्था करनी चाहिए। महाभारत और कालिदास ने ‘राजा’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘रजंन’ अर्थात् ‘प्रसन्न करने’ का अर्थ देने वाली धातु से करते हुए राजा का प्रधान कार्य प्रजा का सब प्रकार का कल्याण करना बताया था।
अपनी इस प्राचीन परम्परा के अनुसार भारत के संविधान-निर्माता लोक-कल्याणकारी राज्य के विचार से प्रेरित थे, लेकिन एक लोक-कल्याणकारी राज्य से जिन कार्यों को करने की अपेक्षा की जाती है उन कार्यों का निष्पादन करने के लिए बहुत अधिक आर्थिक शक्ति और साधनों की आवश्यकता होती है। ग्रेट-ब्रिटेन के अधीन दीर्घकालीन दासता के उपरान्त नवस्वाधीनता प्राप्त भारत की सरकार के पास इतने साधन नहीं थे कि राज्य इस प्रकार के जनहितकारी कार्यो को कर सकता। अतः संविधान-निर्माताओं द्वारा संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों में इस बात की घोषणा की गई है कि हमारा उद्देश्य भारत को एक लोक-कल्याणकारी राज्य का स्वरूप प्रदान करता है।
इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों में निम्नलिखित बातों का उल्लेख किया गया है-
(1) राज्य अपनी नीति का इस प्रकार संचालन करेगा कि-
- समान रूप से पुरुषों और स्त्रियों सभी नागरिकों को जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त हों।
- राष्ट्रीय धन का स्वामित्व और वितरण सबके हित में हो।
- पुरुषों और स्त्रियों को समान कार्य के लिए समान वेतन मिले।
- बालकों का शोषण न किया जाये इत्यादि।
(2) राज्य अपने आर्थिक साधनों की सीमा में काम दिलाने, बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी व अंगहीन होने की दशा में सार्वजनिक सहायता देने की व्यवस्था करे।
(3) राज्य काम करने की दशाओं में सुधार करे तथा स्त्रियों के लिए प्रसूति सहायता का प्रबन्ध करे।
(4) राज्य नागरिकों के स्वास्थ्य को सुधारे तथा उनके आहार, पुष्टि बल और जीवन-स्तर को ऊँचा उठाये।
उपर्युक्त बातों को दृष्टिगत रखते हुए भारत सरकार तथा राज्य सरकारों ने कल्याणकारी राज्य की स्थापना की दिशा में कुछ कदम उठाते हैं। कल्याणकारी राज्य के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारत ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त नियोजन का सहारा लिया है। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में लोक-कल्याण के क्षेत्र में प्रतिवर्ष विभिन्न प्रकार की शिक्षा सुविधाओं और चिकित्सा सेवाओं का विस्तार हो रहा है। आर्थिक क्षेत्र में भूमि सुधार, चकबन्दी और रोजगार सम्बन्धी कानून बने हैं। मजदूरों के कल्याण के लिए अनेक कानूनों का निर्माण किया गया है।
यद्यपि वर्तमान समय तक भारत में लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना सम्भव नहीं हो सकी है और गरीबी, बेकारी, अज्ञानता और गन्दगी का चारों ओर साम्राज्य है, लेकिन इस लक्ष्य की ओर बढ़ने के निरन्तर प्रयास किये जा रहे हैं और यह आशा की जाती है कि समय की गति के साथ-साथ इस दिशा की ओर बढ़ने के हमारे प्रयासों में तीव्रता और गति आयेगी।