वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त :
मार्क्स ने समाज में पाये जाने वाले वर्गभेद को अपनी विवेचना का प्रमुख आधार माना है। सच तो यह है कि उसके द्वारा प्रतिपादित ऐतिहासिक, भौतिकवाद और द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त वर्ग व वर्ग-संघर्ष की धारणा पर ही आधारित हैं।
वर्ग-संघर्ष की अवधारणा मार्क्स के महत्वपूर्ण विचारों में एक है। मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष की अवधारणा ऑगस्टिन थोरे से ली थी, किन्तु इसकी पूर्ण विवेचना मार्क्स ने ही की। मार्क्स यह मानते हैं कि इतिहास के प्रत्येक युग और प्रत्येक समाज में सदैव दो विरोधी वर्ग रहे हैं- शोषक और शोषित वर्ग और ये दोनों वर्ग परस्पर संघर्षरत रहे हैं। इनके संघर्ष से ही समाज के विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ती रही है और समाज का एक युग या अवस्था समाप्त होकर उनका स्थान दूसरा युग या अवस्था लेती रही है।
मार्क्स ने अपनी साम्यवादी घोषणा में कहा कि “आज तक का सम्पूर्ण इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है।” प्राचीनकाल से ही समाज दो परस्पर विरोधी वर्गों में विभक्त रहा है। एक वर्ग तो वह रहा है जिसका उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व रहा है और दूसरा वर्ग उन साधनों से वंचित रहा है। इन दोनों वर्गों में सदैव ही संघर्ष होता आया है। दासों का स्वतन्त्र व्यक्ति से, साधारण जनता का कुलीनों से, कृषि-दासों का भूमिपतियों से, मध्यवर्ग का कुलीन भूमिपतियों से संघर्ष होता रहा है।
मार्क्सवादी विचारधारा के अन्तर्गत मानव एक वर्गीय प्राणी है। मार्क्स का विचार है कि किसी भी समय या युग में जीविकोपार्जन के कारण मनुष्य अनेक वर्गों में विभाजित हो जाते हैं और इन वर्गों में अलग-अलग विशेषताएँ होती हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि वर्गीय विभाजन उत्पादन के नये-नये तरीकों द्वारा होता है। जैसे- भौतिक तरीके बदलते हैं, वैसे ही नये वर्ग बनते हैं। इस प्रकार उत्पादन प्रणाली ही वर्गों की प्रकृति तथा उनके जन्म को निश्चित करती है।
वर्ग की उत्पत्ति (Origin of Class) :
मार्क्स का मत है कि वर्ग की उत्पत्ति का प्रमुख कारण उत्पादन के साधनों में परिवर्तनों का होना है। आदिम समाज में कोई वर्ग नहीं था, क्योंकि उस युग में सभी वस्तुओं पर सभी का समानाधिकार था। किन्तु सभ्यता के विकास के साथ-साथ उत्पादन के साधनों में भी परिवर्तन होता गया और समाज में वर्गों का जन्म हुआ।
आधुनिक समाज औद्योगिक समाज है। इस समाज में निम्न तीन प्रकार के सामाजिक वर्ग देखने को मिलते हैं –
- प्रथम– वह वर्ग जो मजदूरी कर अपना पेट पाल ता है। इस वर्ग को श्रमिक वर्ग कहते हैं।
- द्वितीय– वह वर्ग जिसके पास समाज की पूँजी का केन्द्रीयकरण होता है। इस वर्ग को पूँजीपति वर्ग कहते हैं।
- तृतीय– उन लोगों का भी एक वर्ग है जो अधीनस्थ किसानों से लगान वसूल कर अपनी जीविका चलाते हैं। इस वर्ग को जमींदार वर्ग कहा जाता है। इन तीनों वर्गों की आय के साधन क्रमशः मजदूरी, लाभ व लगान हैं।
वर्ग-संघर्ष का जन्म :
मार्क्स का मत है कि समाज में आदिकाल से ही दो वर्ग रहते आये हैं। मार्क्स ने कहा भी है, “आज तक प्रत्येक समाज शोषक व शोषित वर्ग के विरोध पर आधारित रहा है।” दूसरे शब्दों में, समाज दो वर्गों में विभाजित रहा है। दास युग में दास वर्ग तथा स्वामी वर्ग, सामन्तवादी युग में सामन्त वर्ग व उनके अर्द्धदास, कृषकों का वर्ग तथा आधुनिक युग में पूँजीपति वर्ग एवं श्रमिक वर्ग।
मार्क्स का मत है कि प्रत्येक युग में एक प्रमुख विशेषता रही है कि एक वर्ग के पास उत्पादन के साधनों का केन्द्रीयकरण रहा है, दूसरा वर्ग शोषित व निर्बल रहा है। वस्तु का वास्तविक उत्पादन शोषित वर्ग द्वारा ही होता है, क्योंकि शोषित वर्ग के लोग ही मजदूरी करते हैं और अपना श्रम कम मूल्य पर बेचकर पूँजीपति वर्ग या शोषक वर्ग के लिये कम मूल्य पर अधिक वस्तुओं का उत्पादन करते हैं। शोषक वर्ग के अत्याचारों से तंग आकर शोषित वर्ग में असंतोष का जन्म होता है और उसी के कारण वर्ग-संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है। आधुनिक युग का समाज पूँजीपति वर्ग व सर्वहारा वर्ग दो प्रमुख वर्गों में विभाजित है। इन दोनों वर्गों में संघर्ष चलता रहता है। मार्क्स का कथन है, “सम्पूर्ण समाज अधिकाधिक दो महान् विरोधी समूहों में विभाजित रहा है, एक-दूसरे का प्रत्यक्ष विरोध करते हुए बुर्जुआ और सर्वहारा दो महान् वर्गों में।”
वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त से तात्पर्य :
वर्ग से तात्पर्य एक ऐसे मानव समूह से है जिसके सदस्यों के परस्पर हित समान हों। इसी आधार पर मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। इस सिद्धान्त का अर्थ है कि, “समाज की एक अवस्था से दूसरी अवस्था की ओर प्रगति उत्पादन प्रणाली के आधार पर संगठित दो प्रमुख वर्गों के मध्य सत्ता के लिए संघर्ष द्वारा हुई है।”
मार्क्स के अनुसार, “आधुनिक समाज का इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है।” क्योंकि हर समय दो सामाजिक वर्ग पाये जाते हैं जिनमें से एक वर्ग सदैव ही विशेषाधिकारों से युक्त रहकर उत्पादन के साधनों का उपभोग करता रहा है। इस वर्ग को ही पूँजीवादी वर्ग कहा जाता है। यह दूसरे वर्ग, अर्थात् बहुसंख्यक श्रमिकों का शोषण करता है। जो अपने श्रम से पूँजीवादियों के कच्चे माल को उपयोगी माल में परिवर्तित करता है। इन दोनों वर्गों में सदा से ही संघर्ष रहा है। यद्यपि दोनों वर्गों को एक-दूसरे की आवश्यकता होती है, परन्तु दोनों के हित परस्पर विरोधी रहे हैं।
वर्ग-संघर्ष एवं पूँजीवाद का अन्त-पूँजीवादी व्यवस्था में विश्वास करने वाले व्यक्ति अपने उद्योगों को एक ही स्थान पर केन्द्रित रखना चाहते हैं। फलस्वरूप श्रमिक अथवा शोषित वर्ग में एकता की भावना का संचार हुआ और वे पूँजीवादी व्यवस्था के लिए एक अभिशाप बन गये। मार्क्स के अनुसार, “जैसे-जैसे व्यवसाय में वृद्धि होगी, वैसे-वैसे ऐसे लोगों की संख्या में कमी आती जायेगी जो अपना धन व्यवसाय में लगा सकें। इस प्रकार बड़े पूँजीपतियों की संख्या कम होगी तथा छोटे-छोटे पूँजीपति अपने कष्टों को दूर करने के लिए श्रमिकों में शामिल हो जायेंगे।”
पूँजीवादी वर्ग के सम्बन्ध में मार्क्स का यह भी कहना है कि, “यह वर्ग अपने विनाश का साधन स्वयं एकत्रित करता है।” क्योंकि इसकी प्रमुख विशेषता मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति न होकर लाभ प्राप्त करने के लिए ही उत्पादन करना होता है। यह उद्देश्य ही उन्हें श्रमिकों का शोषण करने के लिए प्रेरित करता है और वे श्रमिकों को उनके श्रम की तुलना में कम मजदूरी प्रदान करते हैं। इसके फलस्वरूप ही दोनों वर्गों में संघर्ष उत्पन्न हो जाता है। क्षमता की वृद्धि के फलस्वरूप पूँजीपतियों में अधिक लाभ प्राप्त करने की प्रवृत्ति जाग्रत होती है। अतः वे समस्त विश्व में अपना बाजार बनाने की चेष्टा करते हैं और अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उनके द्वारा यातायात के साधनों का विकास किया जाता है जिससे सम्पूर्ण विश्व के श्रमिक परस्पर एक-दूसरे के निकट आते हैं और उनमें संगठन एवं संघर्ष की भावना तीव्र हो जाती है। इस प्रकार दोनों के मध्य उत्पन्न संघर्ष अन्तर्राष्ट्रीय रूप धारण कर लेता है।” मार्क्स के अनुसार, “श्रमिकों का कोई देश नहीं होता। अतः समस्त विश्व के श्रमिक एक हो जाओ।”
मार्क्स का वर्ग-संघर्ष का सिद्धान्त :
मार्क्स ने साम्यवादी घोषणा-पत्र में लिखा है कि, “अब तक के सम्पूर्ण समाज का इतिहास वर्ग-संघर्ष का ही इतिहास है। स्वतन्त्र व दास, कुलीन व साधारण लोग, भूमिगत सिर्फ, संघर्ष के अधिकारी और श्रमिक, एक शब्द में घोषणा करने वाले और शोषित सदैव एक-दूसरे के विरोधी रहे हैं। वे कभी प्रत्यक्ष रूप से और कभी परोक्ष रूप से निरन्तर युद्ध कर रहे हैं।”
वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त की व्याख्या :
मार्क्स की धारणा थी कि इतिहास का आधार भौतिकवाद है और वर्ग-संघर्ष, इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या का ही अंश है। मार्क्स के अनुसार प्रत्येक काल में और देश में दो वर्ग- आर्थिक व सामाजिक शक्ति से संघर्ष करते रहे हैं। इस संघर्ष के द्वारा ही समाज की उन्नति होती है। वर्ग-संघर्ष तथा पूँजीवादी अवस्था-मार्क्स का कहना है कि, पूँजीवादी अवस्था में वर्ग-संघर्ष आवश्यक है। मार्क्स कहता है कि “पूँजीपति श्रमिकों को कम देना चाहता · है और काम अधिक लेना चाहता है। इस शोषण के विरुद्ध जाग्रत होने पर श्रमिक क्योंकि वर्ग-संघर्ष करता है। इस संघर्ष में मार्क्स श्रमिकों की विजय निश्चित करता है, उनकी संख्या बहुत अधिक है। इस संघर्ष के पश्चात् ही वर्गविहीन व राज्यविहीन समाज की स्थापना होगी।”
मार्क्स के अनुसार यद्यपि पूँजीवादी का विनाश स्वतः आवश्यक है, पर फिर भी उसके शीघ्र विनाश के लिए मार्क्स ने इस क्रान्ति (वर्ग-संघर्ष) के लिए आव्हान किया है। साम्यवादी घोषणा पत्र में मार्क्स ने लिखा है कि, “साम्यवादियों को अपने विचारों और उद्देश्यों को छिपाने से घृणा है। वे खुले तौर पर घोषणा करते हैं कि उनका उद्देश्य, वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों को बलपूर्वक समाप्त करके ही प्राप्त किया जा सकता है। यदि शासक वर्ग साम्यवादी क्रान्ति से काँपता है, तो उसे काँपने दो। श्रमिकों के पास अपनी बेड़ियों को खोने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। उन्हें समस्त संसार को जीतना है। समस्त संसार के श्रमिको एक हो जाओ।”
वर्ग-संघर्ष का कारण/कारक :
मार्क्स पूँजी को वर्ग-संघर्ष का कारण मानता है। उसका मत है कि पूँजीपति लोग श्रमिकों के श्रम को कम मूल्य पर खरीदते हैं और श्रमिक से कड़ी मेहनत कराकर बहुमूल्य वस्तुओं का उत्पादन करते हैं। वस्तु का मुनाफा अपनी जेब में रखते हैं। श्रमिकों को उनकी मजदूरी मात्र ही देते हैं। धीरे-धीरे पूँजीपतियों के पास धन का एकीकरण हो जाता है और पूँजीपति श्रमिकों का शोषण करने के लिए इस धन का उपयोग करते रहते हैं। इससे श्रमिकों का शोषण होता है व क्रान्ति के कारणों का जन्म होता है। इसलिए कहा जाता है कि पूँजी वह धन है जो श्रमिकों का शोषण करने के लिये उपयोग में लाया जाता है। इस संघर्ष से वर्ग-संघर्ष का बीजारोपण हो सकता है।
वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त की आलोचना/दोष :
कार्ल मार्क्स ने जिस वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया उसकी आलोचना निम्नलिखित प्रकार की गई है-
1. कार्ल मार्क्स द्वारा प्रतिपादित वर्ग-संघर्ष का सिद्धान्त वस्तुतः वर्गहीन समाज की कल्पना पर आधारित है जो सर्वथा भ्रामक एवं अव्यावहारिक प्रतीत होती है।
2. मार्क्स का यह कथन कि सभी समाजों का इतिहास वर्ग-संघर्ष का ही इतिहास है, अत्यधिक अतिशयोक्तिपूर्ण है। कतिपय विद्वान इससे सर्वथा असहमत हैं क्योंकि उनके मतानुसार वर्ग-विरोध की अपेक्षा वर्ग-सहयोग ही अत्यधिक व्यापक एवं सार्वभौमिक घटना है।
मार्क्स का कहना है कि आज तक का इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है, आंशिक सत्य है। यह तो ठीक है कि हमेशा समाज में अनेक विभेद रहे हैं और उन विभेदीकृत गुटों में संघर्ष रहता है, फिर भी इस बात से हम सहमत नहीं हो सकते कि मानव का इतिहास वर्ग-संघर्ष का ही इतिहास है। यदि ऐसा होता तो मानव का बहुत पहले अन्त हो गया होता। वस्तुतः मानव को संचालित करने वाला तत्व सामंजस्य की भावना है। प्रत्येक वर्ग में भिन्नता होते हुए भी सामंजस्य की भावना होती है।
3. मार्क्स इस मान्यता को लेकर चलता है कि समाज सदैव दो परस्पर विरोधी गुटों में बँटा होता है। वह तीसरे गुट की कल्पना नहीं करता है, जबकि वेपर महोदय का विचार है कि वर्ग स्थायी नहीं, परिवर्तनशील है।
कार्ल मार्क्स का दृढ़ मत है कि इस पूँजीवादी व्यवस्था में संघर्षरत वर्ग निश्चित ही किसी दिन सर्वहारा वर्ग को सशस्त्र क्रान्ति हेतु विवश कर देगा। व्यक्ति कल-कारखानों को आग लगाकर फूंक डालेंगे और इस प्रकार बुर्जुआ राज्य शक्ति को निर्मूल कर देंगे। इस प्रकार का वर्ग-संघर्ष प्रारम्भ में श्रमिक संगठनों के रूप में प्रकट होगा, जो कभी-कभार अपने अधिकारों की रक्षा हेतु संघर्षरत होंगे किन्तु आखिर एक दिन हिंसक और सशस्त्र क्रान्ति के द्वारा सम्पूर्ण राज्य व्यवस्था को नष्ट कर दिया जायेगा। सम्पूर्ण मानव समाज का उपलब्ध इतिहास इस तथ्य का प्रत्यक्ष साक्षी रहा है कि कभी भी किसी शासक वर्ग ने बिना संघर्ष और रक्तपात के सत्ता का परित्याग नहीं किया है। इसी से प्रेरित होकर मार्क्स ने उद्घोषित किया है कि “सर्वहारा वर्ग बल-प्रयोग के द्वारा सामाजिक व्यवस्था को परिवर्तित करके एक ऐसी व्यवस्था को जन्म देगा जो श्रमिकों तथा मेहनतकश व्यक्तियों के लिये लाभप्रद होगी।”
4. वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त सम्बन्धी कार्ल मार्क्स के विचारों को सर्वत्र अन्तर्राष्ट्रीय महत्व प्राप्त हुआ है, क्योंकि सारे विश्व में बुर्जुआ प्रवृत्ति बढ़ती चली जा रही है। मार्क्स महोदय के विचारानुसार इस पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध सर्वहारा वर्ग-संघर्ष करेगा तथा हिंसक और सशस्त्र क्रान्ति के माध्यम से राज्य व्यवस्था को बदलेगा। मार्क्स के अनुसार राज्य व्यवस्था आर्थिक तथा सामाजिक व्यवस्था से पृथक् अथवा भिन्न नहीं है, अपितु एक विशिष्ट प्रकार की आर्थिक व्यवस्था को सुस्थिर रखने का साधन भी है। उनका दृढ़ मत है कि मात्र सर्वहारा वर्ग ही पूँजीवादी बुर्जुआ वर्ग से संघर्ष करने में सक्षम है। अन्य शेष वर्ग तो उसके विरोधी होते हुए भी उसी के साये में विकसित होते हैं।
सर्वहारा वर्ग की क्रान्ति का आशय वस्तुतः सम्पूर्ण शासन व्यवस्था को उखाड़ फेंककर, सर्वहारा समाज के नियन्त्रण और निर्देशन में एक अधिनायकवादी शासन व्यवस्था की स्थापना करना है। संक्षेप में यह भी कहा जा सकता है कि वर्ग-संघर्ष की समूल समाप्ति के लिये वर्ग-संघर्ष आवश्यक प्रक्रिया है। मार्क्स व एन्जिल्स कृत कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र के अनुसार, “वे स्पष्टत: घोषित करते हैं कि उनके लक्ष्यों की प्राप्ति मात्र वर्तमान समस्त सामाजिक दशाओं के बलपूर्वक विनाश द्वारा ही हो सकती है। सर्वहारा अपनी दासता की जंजीरों के अलावा कुछ भी नहीं खोयेंगे किन्तु उनको जीतने के लिये संसार पड़ा है।”
इस वर्ग-संघर्ष को ही मार्क्स ने मानव प्रगति का मूल आधार माना है, यह धारणा भी उचित प्रतीत नहीं होती है क्योंकि प्रगति का मूल आधार सहयोग है, संघर्ष नहीं।
5. मार्क्स समाज के विकास एवं बदलाव में सिर्फ वर्ग-संघर्ष को ही महत्वपूर्ण मानता है, जबकि इतिहास गवाह है कि विभिन्न गुटों, व्यक्तियों एवं विचारधाराओं के संघर्ष ने भी इतिहास की धारा मोड़ी है। रूस और चीन में संघर्ष विचारधारा का ही है।
6. मार्क्स सभी प्रकार के वर्गों को आर्थिक हितों पर आधारित मानते हैं, जो कि सर्वथा अनुचित प्रतीत होता है, क्योंकि विश्व में धर्म, प्रजाति तथा राष्ट्रीय आधार पर भी अनेकानेक वर्ग पाये जाते हैं, फिर भी उनमें संघर्ष होता रहता है।
7. वर्ग-संघर्ष का सिद्धान्त ऐतिहासिक दृष्टि से भी ठीक नहीं है। इस सिद्धान्त में धनिक वर्ग व निर्धन वर्ग में संघर्ष की निरन्तरता पर भी बल दिया गया है। किन्तु इतिहास में कहीं ऐसा उदाहरण देखने को नहीं मिलता है जहाँ पर धनिकों व निर्धनों में सदैव ही द्वन्द्व रहा हो।
8. मार्क्स का यह मत भी सत्य नहीं है कि पूँजीवाद विकास की चरम सीमा पर पहुँचकर स्वतः नष्ट हो जायेगा, क्योंकि आज भी पूँजीवाद का अस्तित्व चारों ओर देखने को मिलता है।
प्रोफेसर कौल का विचार है,- “वस्तुतः मार्क्स की वर्ग-संघर्ष की घोषणा तत्कालीन इंग्लैण्ड की परिस्थितियों पर आधारित है। मार्क्स के समय इंग्लैण्ड में उत्पादन में वृद्धि हो रही थी। उससे पूँजीपतियों की दशा आये दिन अच्छी हो रही थी और श्रमिक वर्ग दिनों-दिन दलित होता जा रहा था। श्रमिक अपनी दशा से छुटकारा पाने के लिए अनेक संघर्षों का निर्माण करने लग गये थे। मार्क्स भविष्य में होने वाले सुधारों की कल्पना नहीं कर सका। इसलिये उसकी भविष्यवाणियाँ गलत सिद्ध हुईं।”