# कार्ल मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद सिद्धांत | इतिहास की भौतिकवादी (आर्थिक) व्याख्या : अर्थ एवं परिभाषा, आलोचनात्मक व्याख्या

समाज और इतिहास के सम्बन्ध में कार्ल मार्क्स ने जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है उसे ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद‘ (Historical Materialism) के नाम से सम्बोधित किया जाता है। ऐतिहासिक भौतिकवाद एक वैज्ञानिक धारणा है। यह मानव-इतिहास की घटनाओं की भौतिक आधार पर व्याख्या करती है। ऐतिहासिक भौतिकवाद की आधारभूत मान्यताओं का वर्णन मार्क्स की प्रसिद्ध रचना “जर्मन विचारधारा” (German Ideology) में देखने को मिलता है। मार्क्स ने इस रचना में स्पष्ट किया है कि सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं का परिवर्तन वस्तुगत नियमों (Objective laws) के द्वारा होता है।

भौतिकवादी व्याख्या / ऐतिहासिक भौतिकवाद :

मार्क्स द्वारा प्रस्तुत एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त “इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या” या “आर्थिक व्याख्या” है जिसे ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद‘ भी कहा जाता है। मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की सहायता से अपने समाजवाद को एक वैज्ञानिक निश्चयात्मकता प्रदान की और इसका प्रयोग ऐतिहासिक एवं सामाजिक विकास की व्याख्या करने के लिए किया। “इतिहास की द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी व्याख्या” को ही उसने ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’ (Historical Materialism) या ‘इतिहास की भौतिक व्याख्या‘ का नाम दिया।

# मार्क्स द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धान्त के नामकरण पर विचार प्रकट करते हुए प्रो. वेपर ने लिखा है, “इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या के सिद्धान्त के अन्तर्गत मार्क्स ने जो बात कही है, उसके लिए यह नाम भ्रमपूर्ण है। इस सिद्धान्त को भौतिकवाद नहीं कहा जा सकता, क्योंकि भौतिक शब्द का अर्थ चेतनाहीन पदार्थ से होता है, जबकि इस सिद्धान्त में मार्क्स ने चेतनाहीन पदार्थ की कोई बात नहीं की है। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन की बात कहते हुए यह कहा है कि यह परिवर्तन आर्थिक कारणों से होता है। अतः मार्क्स के सिद्धान्त का नाम ‘इतिहास की आर्थिक व्याख्या‘ होना चाहिए।” कोल (Cole) भी इसे ‘इतिहास की आर्थिक व्याख्या’ के नाम से सम्बोधित करने के ही पक्ष में हैं।

अर्थ एवं परिभाषाएं :

ऐतिहासिक भौतिकवाद एक दार्शनिक विज्ञान के रूप में सामाजिक विकास के सामान्य नियमों, पहलुओं एवं प्रवृत्तियों पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है। यह सामाजिक जीवन के सामाजिक चेतना से सम्बन्धों का भी उल्लेख करता है तथा प्रत्येक समस्या की व्याख्या इसी सह-सम्बन्ध द्वारा की जाती है। कार्ल मार्क्स ने इसकी परिभाषा करते हुए लिखा है, “ऐतिहासिक भौतिकवाद एक दार्शनिक विज्ञान है जिसका सम्बन्ध जीवन के सार्वभौमिक नियमों से भिन्न सामाजिक विकास के विशिष्ट नियमों से है।”

एम. सिदोरोव के शब्दों में, “ऐतिहासिक भौतिकवाद वह दार्शनिक विधा है जो एक अखण्ड व्याख्या के रूप में समाज का तथा उस व्यवस्था के कार्य और विकास को शामिल करने वाले मुख्य नियमों का अध्ययन करती है। संक्षेप में, यह सामाजिक विकास का दार्शनिक सिद्धान्त है।”

स्टालिन के शब्दों में, “ऐतिहासिक भौतिकवाद समाज के इतिहास का विज्ञान है।”

# मार्क्स उन इतिहासकारों से सहमत नहीं है जो यह मानते हैं कि इतिहास कुछ महान् और विशेष व्यक्तियों के कार्यों का परिणाम है। वह इस मत से भी सहमत नहीं है कि प्राकृतिक या भौगोलिक पर्यावरण ही मानव के सामाजिक जीवन और उसके विकास के लिए उत्तरदायी है। यद्यपि इनका प्रभाव मानव-जीवन पर पड़ता है किन्तु इन्हें निर्णायक कारक नहीं कह सकते।

# इसी प्रकार से जनसंख्यात्मक कारक भी वास्तविक कारक नहीं हैं जो इतिहास और मानव के सामाजिक जीवन को तय करते हैं। मार्क्स कहता है कि वास्तविक कारक तो आर्थिक कारक ही हैं जो इतिहास को बनाते हैं। मार्क्स के विचार में इतिहास राजा-महाराजा, रानी-महारानी तथा सेनापतियों और विजेताओं की कहानी और उनकी गाथाओं का गान मात्र नहीं है। उनके अनुसार इतिहास की सभी घटनाएँ आर्थिक अवस्थाओं में होने वाले परिवर्तनों का परिणाम मात्र हैं। किसी भी समाज, कोई भी राजनैतिक संगठन और उसकी न्याय-व्यवस्था को समझने के लिए उसके आर्थिक ढाँचे का ज्ञान प्राप्त करना नितान्त आवश्यक है। मानवीय क्रियाएँ नैतिकता, धर्म, प्रकृति, जनसंख्या और राष्ट्रीयता से प्रभावित नहीं होतीं वरन् केवल आर्थिक कारकों से प्रभावित होती हैं। मार्क्स के ही शब्दों में, “सभी सामाजिक, राजनीतिक तथा बौद्धिक सम्बन्ध, सभी धार्मिक तथा कानूनी पद्धतियाँ सभी बौद्धिक दृष्टिकोण जो इतिहास के विकासक्रम में जन्म लेते हैं, वे सब जीवन की भौतिक अवस्थाओं से उत्पन्न होते हैं।”

# ऐतिहासिक भौतिकवाद का परीक्षण :

मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद या आर्थिक निर्धारणवाद के प्रमुख विचारधारा को हम इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं –

(1) भौतिक मूल्यों की आवश्यकता – मानव ही इतिहास का निर्माता है। वह इतिहास का निर्माण तभी कर सकता है जब उसका जीवन और अस्तित्व बना रहे। मानव के अस्तित्व और जीवन के लिए यह जरूरी है कि उसे भोजन, वस्त्र और आवास की सुविधाएँ प्राप्त हों, जिन्हें मार्क्स आवश्यक भौतिक मूल्य कहता है।

(2) भोजन, वस्त्र एवं आवास अर्थात् भौतिक मूल्यों को जुटाने के लिए मानव को उत्पादन करना होता है।

(3) उत्पादन का कार्य उत्पादन की प्रणाली (Mode of production) पर निर्भर है। इस उत्पादन-प्रणाली में हम उत्पादन के औजार, श्रम, उत्पादन की शक्ति और कौशल आदि को गिनते हैं।

(4) एक उत्पादन प्रणाली एक विशेष प्रकार के सम्बन्धों को जन्म देती है जो दूसरे प्रकार की उत्पादन-प्रणाली से भिन्न होते हैं। उत्पादन-प्रणाली और उत्पादन-शक्ति ही मानव के सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक व बौद्धिक जीवन की क्रियाओं को तय करती है, उसी पर मानव की सरकार, कानून, कला, साहित्य और धर्म का स्वरूप निर्भर होता है।

(5) जब उत्पादन-प्रणाली और उत्पादन की शक्ति में परिवर्तन होता है तो मानव की सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, बौद्धिक सभी क्रियाओं में परिवर्तन आ जाता है। यही कारण है कि जब हस्त-चालित यन्त्र थे तो सामन्तवादी समाज था और जब वाष्प-चालित यन्त्र आए तो पूँजीवादी समाज ने जन्म लिया।

(6) उत्पादन-प्रणाली व उत्पादन की शक्ति में परिवर्तन द्वन्द्ववाद की प्रक्रिया से होता है और तब एक होता है जब तक कि उत्पादन की सर्वश्रेष्ठ अवस्था नहीं आ जाती। यह अवस्था समाजवाद की स्थापना पर ही आती है जो इतिहास के विकास का अन्तिम चरण है। इस तरह मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद, वेपर के शब्दों में, “एक आशावादी सिद्धान्त है जिसमें मानव की विजय होती है।”

(7) मार्क्स भी हीगल की भाँति इतिहास की अनिवार्यता में विश्वास करते हैं। वे मानते हैं कि इतिहास का निर्माण मनुष्यों के प्रयत्नों से सर्वथा स्वतन्त्र रूप में होता है। इतिहास के प्रवाह को मानव-प्रयत्नों द्वारा रोका नहीं जा सकता। इस प्रवाह में विभिन्न युगों के उत्पादन की शक्तियों के अनुकूल जिस प्रकार के सम्बन्धों की आवश्यकता होगी, वे अवश्य अवतरित होंगे। मानव के वश में यह है कि वह उनके आने में देर कर दे या उन्हें शीघ्र ले आए।

(8) इतिहास का काल विभाजन– मार्क्स यह मानते हैं कि इतिहास की प्रत्येक अवस्था वर्ग-संघर्ष का इतिहास है। इतिहास की प्रत्येक घटना, प्रत्येक परिवर्तन आर्थिक शक्तियों का परिणाम है। ★

मार्क्स द्वारा इतिहास का काल विभाजन :

मार्क्स ने उत्पादन सम्बन्धों एवं आर्थिक प्रणालियों के आधार पर इतिहास को पाँच युगों में बाँटा है-(i) आदिम साम्यवादी युग, (ii) दासत्व युग, (iii) सामन्तवादी युग, (iv) पूँजीवादी युग, और (v) समाजवादी युग। इनमें से तीन युग बीत चुके हैं, चौथा चल रहा है और पाँचवाँ अब आने को है। इनका वर्णन निम्नलिखित है –

(i) आदिम साम्यवादी युग

यह इतिहास का प्रारम्भिक युग था। इस युग में पत्थर के औजार और धनुषबाण उत्पादन के मुख्य साधन थे। मानव मछली मारकर, शिकार करके और कन्दमूल-फल एकत्रित करके जीवनयापन करता था। उत्पादन के साधनों पर सामूहिक स्वामित्व था, निजी सम्पत्ति जैसी चीज नहीं थी। सब समान थे तथा शोषण की स्थिति नहीं थी, इसलिए ही मार्क्स इसे साम्यवादी अवस्था कहता है।

(ii) दासत्व युग

धीरे-धीरे भौतिक परिस्थितियों में परिवर्तन हुआ। अब व्यक्ति पशुपालन एवं कृषि कार्य करने लगा, दस्तकारी का उदय हुआ निजी सम्पत्ति के विचार ने जन्म लिया और श्रम-विभाजन पनपा। जिन व्यक्तियों का भूमि और उत्पादन के साधनों पर अधिकार था, वे दूसरों को अपना दास बनाकर उनसे बलपूर्वक काम कराने लगे। इस प्रकार दासत्व युग में स्वतन्त्रता और समानता समाप्त हो गई, समाज में स्वामी और दास दो वर्ग बने तथा दासों का शोषण प्रारम्भ हुआ और वर्ग-संघर्ष होने लगा।

(iii) सामन्तवादी युग

इस युग में उत्पादन के साधनों पर राजाओं और सामन्तों का अधिकार हो गया, विशेषतः भूमि पर। छोटे-छोटे किसान जिन्हें अर्द्धदास किसान (Serfs) कहा जाता था, सामन्तों से भूमि लेकर उस पर खेती करते थे। किसान दास तो न थे किन्तु उन पर कई नियन्त्रण लाद दिए गए थे। उन्हें सामन्तों के यहाँ बेगार में खेती करनी होती थी और युद्ध के समय उनकी सेना में सिपाही के रूप में लड़ना पड़ता था। इन सबके बदले में सामन्त उन्हें निर्वाह के लिए कुछ वेतन या भूमि दे देता था। इस युग में शोषण भयंकर था, अतः शोषक और शोषितों में वर्ग-संघर्ष निरन्तर चलता रहा।

(iv) पूँजीवादी युग

इस युग का प्रादुर्भाव औद्योगिक क्रान्ति से शुरू हुआ जिसने उत्पादन के साधनों में आमूल-चूल परिवर्तन ला दिए। पूँजीपति उत्पादन के नवीन साधनों, जैसे- कारखानों एवं मशीनों का स्वामी हो गया और श्रमिकों द्वारा उत्पादन का कार्य कराने लगा। अब उत्पादन बड़ी मात्रा में और तीव्र गति से होने लगा। छोटे-छोटे उद्योग-धन्धे नष्ट हो गए, क्योंकि वे कारखानों में बने माल से प्रस्पिर्धा नहीं कर सकते थे। अतः कुटीर उद्योगों में लगे व्यक्ति भी कारखानों में श्रमिकों के रूप में सम्मिलित हो गए। इस प्रकार समाज की सम्पत्ति मुट्ठी भर पूँजीपतियों के हाथों में केन्द्रित हो गई और समाज में पूँजीपति एवं श्रमिक दो स्पष्ट वर्ग पनपे जो अपने-अपने हितों को लेकर परस्पर संघर्षरत हैं। इस युग में श्रमिकों का शोषण युगों से तीव्र हुआ। पूँजीवादी व्यवस्था के अनुसार ही राज्य व्यवस्था, कला, नैतिकता, साहित्य और दर्शन में भी परिवर्तन हुआ।

(v) समाजवादी युग

पूँजीपतियों के शोषण को समाप्त करने के लिए श्रमिक वर्ग में चेतना आएगी, वे क्रान्ति करेंगे और पूँजीपतियों को उखाड़ फेंकेंगे। इस संघर्ष में श्रमिकों की ही विजय होगी। वे समाजवाद की स्थापना करेंगे और श्रमिकों का अधिनायकत्व कायम होगा। उत्पादन के साधनों पर राज्य का सामूहिक अधिकार होगा, तब शोषक और शोषित नहीं होंगे और वर्गविहीन समाज की स्थापना होगी। इस युग में व्यक्ति को अपनी योग्यता के अनुसार कार्य करना होगा और उन्हें आवश्यकता के अनुरूप वस्तुएँ मिलेंगी।

मार्क्स के समाजवादी समाज की अवस्था रूस, चीन और पूर्वी यूरोपीय देशों में ही आयी है, शेष में नहीं। मार्क्स इतिहास की आर्थिक व्याख्या के आधार पर पूँजीवाद का अन्त और साम्यवाद के आगमन की सम्भावना व्यक्त करता है। वह कहता है कि में कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके पास उत्पादन साधन होते हैं और कुछ साधनविहीन। इन दोनों वर्गों में सदैव संघर्ष होता रहा है जो साम्यवादी युग में आकर समाप्त हो जाता है और वर्गविहीन समाज की स्थापना हो जाती है।

सिद्धान्त की आलोचनाएं :

मार्क्स द्वारा प्रस्तुत इतिहास की भौतिकवादी (आर्थिक) व्याख्या के सिद्धान्त की निम्नलिखित आलोचनाएँ की जाती हैं

1. आर्थिक तत्व पर अत्यधिक और अनावश्यक बल

मार्क्स ने सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं वैधानिक ढाँचे में परिवर्तन के लिए आर्थिक तत्वों को उत्तरदायी माना है जो अतिशयोक्तिपूर्ण है। उसने भौगोलिक, जनसंख्यात्मक और सामाजिक तत्वों की अवहेलना की है, जबकि इन सभी का सामाजिक परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण हाथ होता है।

2. आर्थिक आधार पर सभी ऐतिहासिक घटनाओं की व्याख्या असम्भव

मार्क्स ने सभी ऐतिहासिक घटनाओं की व्याख्या आर्थिक तत्वों के आधार पर की है किन्तु यह उचित नहीं है। गौतम बुद्ध का संन्यास, मराठों का पतन, भारत विभाजन, अरब-इजराइल युद्ध, पद्मिनी का जौहर आदि घटनाओं की आर्थिक व्याख्या नहीं की जा सकती।

3. संयोग के तत्व की उपेक्षा

मार्क्स ने इतिहास की अपनी व्याख्या में संयोग के तत्व को भुला दिया है। यदि जयचन्द ने पृथ्वीराज चौहान से द्वेष के कारण गोरी को भारत पर आक्रमण के लिए आमन्त्रित न किया होता तो भारत का इतिहास ही दूसरा होता। यदि 1917 ई. में जर्मन सरकार लेनिन को रूस में लौटने की अनुमति दे देती तो शायद रूस में जार का शासन आज भी चल रहा होता। यदि इंग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने विवाह किया होता और उसके सन्तान होती तो इंग्लैण्ड का एकीकरण नहीं हो सकता था।

4. इतिहास के कालक्रम अनुपयुक्त

मार्क्स ने मानव-इतिहास को 5 युगों में बाँटा है। उनके इस क्रम से कई विद्वान् सहमत नहीं हैं। वे पूँजीवाद के बाद साम्यवादी युग आने की बात कहते हैं। किन्तु रूस और चीन में जहाँ साम्यवाद है, वह उस प्रकार के पूँजीवादी युग के बाद नहीं आया जिसकी कल्पना मार्क्स ने की है। ये दोनों ही कृषि-प्रधान देश थे न कि औद्योगिक दृष्टि से पूर्ण विकसित देश।

5. इतिहास का राज्यविहीन समाज पर आकर रुकना सम्भव नहीं

मार्क्स का यह कहना भी अनुपयुक्त है कि इतिहास का विकास राज्यविहीन समाज के निर्माण पर रुक जाएगा। परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है, जिस द्वन्द्ववाद के कारण अन्य युग बदले, उसी आधार पर यह युग भी तो परिवर्तित होगा, किन्तु मार्क्स ने इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं किया।

मार्क्स का यह कहना भी उपयुक्त नहीं है कि आर्थिक शक्ति के द्वारा ही राजनीतिक शक्ति प्राप्त होती है। स्थिति इसके विपरीत भी हो सकती है।

The premier library of general studies, current affairs, educational news with also competitive examination related syllabus.

Related Posts

# सिद्धान्त निर्माण का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, महत्व | सिद्धान्त निर्माण के प्रकार | Siddhant Nirman

Home / Sociology / Theory / # सिद्धान्त निर्माण का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, महत्व | सिद्धान्त निर्माण के प्रकार | Siddhant Nirmanसिद्धान्त निर्माण : सिद्धान्त वैज्ञानिक अनुसन्धान…

# पैरेटो की सामाजिक क्रिया की अवधारणा | Social Action Theory of Vilfred Pareto

Home / Sociology / Theory / # पैरेटो की सामाजिक क्रिया की अवधारणा | Social Action Theory of Vilfred Paretoसामाजिक क्रिया सिद्धान्त प्रमुख रूप से एक प्रकार्यात्मक…

# सामाजिक एकता (सुदृढ़ता) या समैक्य का सिद्धान्त : दुर्खीम | Theory of Social Solidarity

Home / Sociology / Theory / # सामाजिक एकता (सुदृढ़ता) या समैक्य का सिद्धान्त : दुर्खीम | Theory of Social Solidarityदुर्खीम के सामाजिक एकता का सिद्धान्त :…

# पारसन्स के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त | Parsons’s Theory of Social Stratification

Home / Sociology / Theory / # पारसन्स के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त | Parsons’s Theory of Social Stratificationपारसन्स का सिद्धान्त (Theory of Parsons) : सामाजिक स्तरीकरण…

# मैक्स वेबर के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त | Maxweber’s Theory of Social Stratification

Home / Sociology / Theory / # मैक्स वेबर के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त | Maxweber’s Theory of Social Stratificationमैक्स वेबर के सामाजिक स्तरीकरण के सिद्धान्त :…

# कार्ल मार्क्स के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त | Karl Marx’s Theory of Social Stratification

Home / Sociology / Theory / # कार्ल मार्क्स के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त | Karl Marx’s Theory of Social Stratificationकार्ल मार्क्स के सामाजिक स्तरीकरण का सिद्धान्त…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

five × 5 =