सामाजिक मूल्यों का सिद्धान्त :
समाजशास्त्रीय विचारधारा के क्षेत्र में डॉ. राधा कमल मुखर्जी ने अपने सामाजिक मूल्यों के सिद्धान्त का प्रतिपादन करके समाजशास्त्रीय जगत में महान ख्याति प्राप्त की है, सामान्यतः मूल्यों के सम्बन्ध में मुखर्जी ने प्रायः अपनी सभी कृतियों में कुछ न कुछ उल्लेख किया है। वास्तव में इन्होंने अपने सामाजिक मूल्य के सिद्धान्त को अपनी कृति ‘The Social Structure of Values‘ में प्रस्तुत किया है तथा अपनी एक अन्य कृति ‘The Dimensions of Values‘ में मूल्यों के विभिन्न आयामों (Dimensions) के सन्दर्भ में विस्तृत विवेचना की है।
सामाजिक मूल्य की परिभाषा :
मूल्यों की परिभाषा (Definition of Values)– डॉ. मुखर्जी ने मूल्य की परिभाषा इस प्रकार दी है, “मूल्य एक जटिल सम्पूर्णता है, चेतन प्राणिशास्त्रीय सामाजिक आदर्श दशा है।”
(A value is a complex gestalt, a conscious vital-social-ideal situation.)
डॉ. मुखर्जी की उपर्युक्त परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने मूल्य को एक सजीव सामाजिक तथ्य माना है। उनके विचार में मूल्य का सम्बन्ध सम्पूर्ण व्यक्तित्व से होता है और मूल्य मनुष्य की प्राणिशास्त्रीय आवश्यकताओं, सामाजिक सम्बन्धों तथा मानव के आदर्शों पर आधारित है।
“मूल्य समाज के द्वारा स्वीकृत वे इच्छाएँ तथा लक्ष्य हैं जिनका अन्तरीकरण सीखने अथवा समाजीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से आरम्भ होता है और जो कि इसके पश्चात् प्रातीतिक अधिमान्यताएँ, मान और अभिलाषाएँ बन जाती हैं।”
डॉ. मुखर्जी की मूल्यों की उपर्युक्त परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि यद्यपि मूल्य एक आन्तरिक गुण है, परन्तु मानव इसको समाजीकरण की सामाजिक, सांस्कृतिक प्रतिक्रियाओं के माध्यम से प्राप्त करता है। प्रत्येक समाज के अपने कुछ आदर्श तथा लक्ष्य होते हैं। इन आदर्शों और लक्ष्यों को उसी दशा में पूरा किया जा सकता है, जबकि समाज के सदस्यों के लिए कुछ निश्चित मान निर्धारित कर दिए जायें। इस प्रकार वास्तव में सामाजिक मान ही मूल्य हैं। ये मूल्य ही समाज के सदस्यों की अनुशासित व्यवहार करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं और सदस्यों का अनुशासित व्यवहार सामाजिक जीवन में शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित करता है।
मूल्यों की प्रकृति/मूल्यों की विशेषताएं :
1. मूल्य सार्वभौमिक हैं
डॉ. मुखर्जी ने मूल्यों को सार्वभौमिक बताया है। परन्तु वह इस बात से सहमत नहीं हैं कि मूल्यों की प्रकृति सार्वभौमिक होती है। सार्वभौमिक का अभिप्रायः यह है कि मूल्य सभी समाजों में पाये जाते हैं। परन्तु मूल्यों की प्रकृति सार्वभौमिक नहीं होती है। उदाहरणार्थ- विवाह सार्वभौमिक (Universal) है, परन्तु विवाह से सम्बन्धित सामाजिक मूल्य सार्वभौमिक नहीं होते हैं। हिन्दू समाज में विवाह एक धार्मिक संस्कार (Regligious sacrament) माना गया है, परन्तु मुस्लिम समाज में इसे एक सामाजिक समझौता (Social contract) समझा गया है। इस प्रकार विवाह सार्वभौमिक होते हुए भी उसकी प्रकृति सार्वभौमिक नहीं है।
2. मूल्य परिवर्तनशील हैं
समय के अनुसार मूल्यों में परिवर्तन होता रहता है जो मूल्य आज विद्यमान हैं, यह आवश्यक नहीं कि कल भी विद्यमान रहें। अतः यदि भावी समाज का निर्माण करना है तो मूल्यों का अध्ययन किया जाना आवश्यक है जैसा कि डॉ. मुखर्जी का कथन है, “समाजशास्त्र के द्वारा सार्वभौमिक मूल्यों, आदर्शों तथा प्रतीकों का अध्ययन, व्याख्या तथा पोषण किए बिना भावी समाज का निर्माण नहीं हो सकता है।”
3. मूल्य सामाजिक व्यवहार एकरुपता प्रदर्शित करते हैं
डॉ. मुखर्जी ने समाजशास्त्र को मूल्यों से सम्बन्धित बताया है। मूल्यों के संघर्ष एवं सहयोग पर सभी सामाजिक सम्बन्ध और व्यवहार पर आधारित है।
मूल्यों का सामाजिक उद्भव :
डॉ. राधाकमल मुखर्जी के विचार में मूल्य सामाजिक होते हैं। अतः मनुष्य ही सामाजिक मूल्यों को जन्म देता है। परिणामस्वरूप, डॉ. मुखर्जी ने सामाजिक जीवन में ही मूल्यों को खोजने का प्रयास किया है। उन्होंने प्रत्येक समाज के दो पहलू मूर्त और अमूर्त बताए हैं। सामाजिक व्यवहार के प्रतिमान तथा संस्थाओं को मूर्त कहा गया है। इनको देखा भी जा सकता है और इनका अध्ययन भी किया जा सकता है, परन्तु एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष अमूर्त है, जिसको देखा नहीं जा सकता है। इसका केवल अनुभव ही किया जा सकता है। ये मूल्य आदर्श तथा प्रमाप हैं। ये समस्त मानव सम्बन्धों के आधार होते हैं।
डॉ. मुखर्जी के विचार में,
- “मनुष्य ही मूल्यों की खोज करता है और मनुष्य ही मूल्यों का निर्माण करता है।”
- “मूल्य समाज के ही अंग हैं और ये पृथ्वी पर ही पाये जाते हैं। ये न ही आदर्श हैं और न ही स्वर्ग की वस्तु हैं। सभी एक-दूसरे का सहयोग करते हैं…..।”
- “ये मूल्य मानव प्रवृत्तियों तथा इच्छाओं को व्यवस्थित तथा नियन्त्रण करने के मुख्य साधन हैं। समाज का मूल्य आदर्शों तथा सद्गुणों के निर्माण और पुनर्निर्माण के बिना कोई अस्तित्व नहीं है।”
मूल्यों का सोपान या संस्तरण :
डॉ. राधाकमल मुखर्जी के अनुसार सभी मूल्य एक ही स्तर के नहीं होते बल्कि इसमें एक संस्तरण देखने को मिलता है। इस संस्तरण का सम्बन्ध मूल्यों के आयामों से होता है। ये आयाम मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं।
- जैविक आयाम (Biological Dimension)
- सामाजिक आयाम (Social Dimension)
- आध्यात्मिक आयाम (Spiritual Dimension)
1. जैविक आयाम (Biological Dimension)– स्वास्थ्य, जीवन निर्वाह, कुशलता तथा सुरक्षा आदि से सम्बन्धित होते हैं।
2. सामाजिक आयाम (Social Dimension)– धन, सम्पत्ति, पद, न्याय आदि से सम्बन्धित होते हैं।
3. आध्यात्मिक आयाम (Spiritual Dimension)– सत्य, सुन्दरता, सुसंगति तथा पवित्रता आदि से सम्बन्धित होते हैं।
उपर्युक्त मूल्यों में आध्यात्मिक मूल्य सर्वोच्च होता है क्योंकि उसका विशिष्ट गुण आत्म-लोकातित्व है जो लोकातीत मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है। द्वितीय स्थान सामाजिक मूल्यों का होता है जो साधन मूल्य, बाह्य मूल्य अथवा क्रियात्मक मूल्य कहलाते हैं जिनका उद्देश्य सामाजिक संगठन व सुव्यवस्था को बनाये रखना है। मूल्यों के संस्तरण में तृतीय स्थान जैविक मूल्यों का होता है जो जीवन को बनाये रखने तथा उसे तीव्र गति देने के लिए होते हैं। इस कारण इन्हें भी साधन मूल्य और क्रियात्मक मूल्य कहा जाता है।
डॉ. राधाकमल मुखर्जी ने मूल्यों के सोपान में प्राथमिकता एवं आरोही के सम्बन्ध में जो सामान्यीकरण निष्कर्ष के रूप में ज्ञात किया है वे अग्र प्रकार हैं-
1. साध्य, अन्तर्निष्ठ या लोकातीत मूल्य साधन या क्रियात्मक मूल्यों से उत्तम होते हैं। इनकी श्रेष्ठता इस तथ्य पर निर्भर है कि वे सम्पूर्ण मानव-जीवन व अनुभव को सुव्यवस्थित और सार्थक बनाते हैं।
2. मूल्यों के प्रकार्य की दृष्टि से आत्म-यथार्थीकरण तथा आत्म-लोकातीतकरण का कार्य केवल जीवन को बनाये रखने तथा उसके वृद्धि के कार्य से निश्चय ही उच्च श्रेणी के होते हैं। मूल्यों का सोपान इस बात पर निर्भर है कि मूल्यों में कितनी समग्रता, खुलापन और मानव स्वतन्त्रता के तत्व निहित हैं।
3. वास्तविक अनुभव में साध्य मूल्य तथा साधन मूल्य आपस में निरन्तर मिलते-जुलते तथा एक-दूसरे में निहित या व्याप्त होते रहते हैं। साधन मूल्य स्वयं में लक्ष्य नहीं होते बल्कि वे साध्य मूल्यों के साथ मिले रहते हुए अपनी क्रियाशीलता को बनाए रखते हैं।
4. मूल्यों के आरोहण में यह विशिष्टता है कि वैयक्तिक तथा सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सिद्धान्तों, मूल्यों तथा अनुभवों की एक द्वन्द्वात्मक गतिशीलता होती है।
5. मूल्यों के संस्तरण में वास्तविक अनुभव में जैविक आयाम से ऊपर वाले मूल्यों में से कुछ मूल्यों को प्राप्त किया जा सकता है और कुछ को प्राप्त करने तक पहुँचना सम्भव नहीं होता, किन्तु फिर भी मानव उच्च मूल्यों के साथ एकीकरण को बनाए रखते हुए जीवन के श्रेष्ठतम लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में निरन्तर अग्रसर रहता है।
6. अनन्त शाश्वत और सार्वभौमिक मूल्य अपनी अनिवार्यता को समाज से और समाज के लोगों से प्राप्त करता है जो मूल्यों के संस्तरात्मक व विकासात्मक व्यवस्था को निर्देशित और नियन्त्रित करता है। ऐसे मूल्यों को ही आदर्श मूल्य कहा जाता है।
डॉ. मुखर्जी का विचार है कि मूल्यों का संस्तरण निम्नलिखित चार प्रकार के सामाजिक संगठनों में दिखाई देता है :
1. भीड़ (Crowd)
डॉ. मुखर्जी ने भीड़ को सामाजिक संगठन की प्रथम अवस्था बताया है। भीड़ की प्रकृति अस्थायी होती है। भीड़ में संवेग प्रधान होते हैं। भीड़ में बुद्धि का निम्न-स्तर पाया जाता है। व्यक्ति विवेक से काम नहीं लेता है। वह भावनाओं के आवेश में आकर कार्य करता है।
डॉ. मुखर्जी के विचार में, “भीड़ की कोई नैतिकता नहीं होती है। परन्तु जब भीड़ को नैतिकता की जानकारी हो जाती है तो उसकी प्रतिक्रिया अत्यधिक तीव्र होती है। भीड़ का यह व्यवहार धार्मिक अथवा प्रजातीय झगड़ों में दिखाई देता है, जबकि भीड़ गलत को सही सिद्ध करने के लिए हिंसा पर उतर आती है। जब राज्य कानून को बनाये रखने में असमर्थ होता है तो भीड़ अव्यवस्थित और असभ्य तरीके से अपनी नैतिकता को बलपूर्वक लागू करने का प्रयास करती है।”
2. हित समूह (Interest Group)
हित समूह के उदाहरण आर्थिक और धार्मिक समूह हैं। हित समूह की प्रकृति भी स्थायी नहीं होती है। हित समूह में आदान-प्रदान, एकता, एक-दूसरे के हित, ध्यान रखना जैसे नैतिक सिद्धान्त पाये जाते हैं। एक आर्थिक समूह के सदस्यों का आचरण कुछ प्राथमिक मूल्यों (Primary values) की अभिव्यक्ति हो सकती है।
3. समाज (Society)
समाज हित समूह का ही विस्तृत रूप है। समाज से समानता तथा न्याय की अभिव्यक्ति होती है। कहने का अभिप्राय यह है कि समाज के सदस्य सामाजिक जीवन में न्याय तथा समानता को बनाये रखने के लिए अनेक मूल्यों को अभिव्यक्त करते हैं। समाज में व्यक्ति तार्किक और संवेगों पर आधारित होता है।
4. सामूहिकता (Collectiveness)
डॉ. मुखर्जी ने सामूहिकता को नैतिक दृष्टि से मानव समाज का सर्वोत्कृष्ट संगठन कहा है। सामूहिकता में सामाजिक सम्बन्ध सार्वभौमिक होते हैं। ये बाह्य नियन्त्रणों पर निर्भर नहीं करते, वरन् इसका आधार तो अधिकतर स्वतः प्रेम होता है।
कहने का आशय यह है कि व्यक्ति नैतिकता को न तो किसी स्वार्थवश मानता है और न ही भावनाओं से प्रेरित होकर। इसका आधार बुद्धि और तर्क होता है।
अवमूल्य की अवधारणा :
डॉ. मुखर्जी का विचार है कि जिस प्रकार समाज में मूल्य पाये जाते हैं, उसी प्रकार अवमूल्य भी पाये जाते हैं। जब व्यक्ति समाज द्वारा निर्धारित किये गये मूल्यों के विपरीत व्यवहार करता है तो यह अवमूल्य कहलाता है। व्यक्ति द्वारा सामाजिक मान्यताओं की उपेक्षा करना भी अवमूल्य है।
समाज में एकता के अभाव में अवमूल्य विकसित होते हैं। व्यक्ति की प्रतिष्ठा पर अवमूल्यों का बुरा प्रभाव पड़ता है। डॉ. मुखर्जी ने अवमूल्यों के विनाश के दो उपाय बताए हैं। प्रथम उपाय सुधारात्मक है और दूसरा रचनात्मक। यदि अपराध करने वाले व्यक्ति को समाज में पुनःजीवनयापन करने की अनुमति प्रदान कर दी जाये और इसके लिए उसके अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी जाएँ तो अवमूल्यों को समाप्त किया जा सकता है।